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सुख-दुख

आठ साल से तिब्बत में तंबू गाड़कर बैठी है चीनी फौज!

चंद्र भूषण-

89वें साल में दलाई लामा…

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88 बसंत देख चुके चौदहवें दलाई लामा अभी किसी को राजनीतिक या कूटनीतिक चुनौती देने की स्थिति में नहीं हैं। जब वे इस स्थिति में थे, तब भी उनकी कार्यशैली और मिजाज किसी को चुनौती देने वाला नहीं था। बीच में कुछ दिन अकारण एक अप्रिय विवाद में घिर जाने के बाद अपने इस जन्मदिन पर उन्होंने एक खुशनुमा बयान दिया। कहा कि चीन के प्रति उनके मन में कोई कटुता नहीं है, वहां भारी संख्या में बौद्ध रहते हैं जिनके साथ पेइचिंग प्रवास के दौरान उनका मिलना-जुलना था, और सबसे बड़ी बात यह कि चीन की सरकार स्वयं उनसे बातचीत करना चाहती है।

भारत आधिकारिक रूप से तिब्बत को चीनी लोक गणराज्य का अंग मानता है। दलाई लामा को लेकर उसकी भूमिका चीन के एक निर्वासित, असंतुष्ट धार्मिक-राजनीतिक नेता और उनके अनुयायियों को शरण देने तक सीमित है। भारत में वे हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला शहर से अपनी निर्वासित संसद और सरकार चलाते हैं लेकिन भारत सरकार ऐसी गतिविधियों के सक्रिय समर्थन में खड़ी नहीं दिखना चाहती।

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कम से कम 2020 के प्रथमार्ध तक यही स्थिति रही। 15 जून 2020 को लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर खून बहा, हालांकि गोलियां नहीं चलीं। यह युद्ध और शांति के बीच की स्थिति है, लिहाजा बहुतेरी राजनयिक प्रतिबद्धताएं हिल-डुल हालत में हैं। कुछ लोगों का आग्रह है कि इस तरल स्थिति की छाप दलाई लामा और भारत स्थित तिब्बतियों के व्यवहार में भी दिखनी चाहिए और चीन की जोर-जबर्दस्ती के खिलाफ उन्हें खुलकर बोलना चाहिए।

सीमा तनाव में क्या करें

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यह वाकई टेढ़ा मामला है। चीन सरकार सीमा के उस पार तिब्बतियों की फौजी भर्ती करके सीमावर्ती क्षेत्रों में उनकी बहुलता वाली पलटनें लगाने में जुटी है। इसके अलावा उनकी दो और प्रतिरक्षा पंक्तियां खड़ी करने की पहल चीन द्वारा ली जा रही है। एक, हल्की सैनिक ट्रेनिंग वाली जन मिलिशिया खड़ी करना और दूसरी दुर्गम सीमा क्षेत्रों में घुमंतू चरवाहों के गांव बसाना, जिनका काम वास्तविक नियंत्रण रेखा पर छोटे से छोटे बदलाव पर नजर रखना है।

भारत ने चकराता (उत्तराखंड) में तिब्बतियों की जो टूटू रेजिमेंट खड़ी थी, उसने तीन साल पहले स्पेशल फ्रंटियर फोर्स के रूप में पैंगोंग त्सो के दक्षिणी हिस्से में अपना कमाल दिखा दिया था। जाहिर है, भारत-चीन टकराव की मौजूदा स्थिति में ‘तिब्बती बनाम तिब्बती’ जैसा कोई दृश्य बना तो इससे चीन पर दबाव बढ़ने के बजाय कुछ कम ही होगा।

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हमारा परिचय निर्वासित तिब्बतियों से है लेकिन जरूरत तिब्बत में रह रहे तिब्बतियों की मानसिकता समझने की है। क्योंकि असली लड़ाई उन्हीं की है, जो लोग तिब्बत से बाहर आ गए हैं, उनकी नहीं। दलाई लामा की राय हमेशा से इस लड़ाई को मध्यमार्ग के जरिये लड़ने की रही है।

अपनी इस राय पर अडिग रहने के लिए उन्होंने अपने बड़े भाई ग्यालो थोंडुप तक से दूरी बना ली, जो तिब्बत की आजादी के लिए सारे तिब्बतियों में सबसे ज्यादा सक्रिय रहे और इसमें सीआईए का सक्रिय सहयोग मिलने की बात भी बाकायदा किताब लिखकर स्वीकार की। दलाई लामा अपनी लड़ाई को आजादी के बजाय सांस्कृतिक स्वायत्तता की मांग तक सीमित रखते हैं, जिसपर निर्वासित तिब्बतियों की नई पीढ़ी दबे ढंग से उनके प्रति नाराजगी भी जताती रही है।

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गांधी का आध्यात्मिक बेटा

बहरहाल, दलाई लामा को गांधी का आध्यात्मिक बेटा यूं ही नहीं कहा जाता। निर्वासित तिब्बतियों में तिब्बत पर चीन के आधिपत्य को लेकर कई धाराएं पहले दिन से ही मौजूद रही हैं। इसके खिलाफ ठेठ पूर्वी खाम इलाके में, फिर दक्षिणी तिब्बत में कई जगहों पर हथियारबंद लड़ाई 1956 में शुरू हो गई थी। मार्च 1959 में ल्हासा से नेफा तक पहुंचने में दलाई लामा और उनके साथियों को लगभग एक पखवाड़ा लगा था।

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आठ साल से तिब्बत में तंबू गाड़कर बैठी चीनी फौज इतने लंबे सफर में उन्हें रोक नहीं पाई तो इसका कारण यही था कि जिन इलाकों से होकर वे आगे बढ़ रहे थे, वे तिब्बती विद्रोहियों के कब्जे में थे और खुद ल्हासा में निहत्थे आम लोग फौजी बंदूकों का सामना कर रहे थे। यह बागी पहलू तिब्बतियों ने आगे भी कायम रखा। गौर करने की बात यह है कि द्वितीय विश्वयुद्ध से लेकर अबतक दुनिया में न जाने कितने सशस्त्र विद्रोह पूरी तरह कुचल दिए गए और समय के साथ उनके मुद्दे भी हवा में उड़ गए। लेकिन तिब्बत का मुद्दा आज भी दुनिया के लिए मौजूं बना हुआ है तो इसकी अकेली वजह यह है कि उसे दलाई लामा का नेतृत्व हासिल है।

हम इस बात से वाकिफ नहीं हैं कि निर्वासित तिब्बतियों में कितनी तरह के क्षेत्रीय और सांप्रदायिक टकराव मौजूद हैं। तिब्बती बौद्ध धर्म के चार बड़े संप्रदायों में सैकड़ों साल से आपसी लड़ाइयां चल रही थीं और वे हाल तक जाहिर होती रही हैं। पूर्वी तिब्बत का लड़ाकू खाम इलाका भी खुद को लंबे समय से ल्हासा के आधिपत्य से मुक्त मानता आया है। लेकिन दलाई लामा के प्रभाव में ये सारे टकराव इतने मंद पड़ गए हैं कि बाहरी लोग उनके बारे में कुछ नहीं जानते और निर्वासित तिब्बती संसद में हर खेमा तिब्बत की आजादी या स्वायत्तता के साझा मुद्दे पर एकजुट दिखता है।

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भीतरी टकराव

तिब्बती स्वतंत्रता की लड़ाई को ज्यादा उग्र बनाने पर उनका भीतरी टकराव उभर आने का भी खतरा है। अभी, दलाई लामा के 88 पार करने पर निर्वासित तिब्बतियों के बीच इस समस्या को लेकर भी बातचीत जारी है कि दलाई लामा के आंख मूंदने के बाद उनकी लड़ाई कैसे आगे बढ़ सकेगी।

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इसमें एक पहलू उनके उत्तराधिकार का भी है, जिसपर अमेरिका ने अपने यहां कानून पारित कर रखा है और चीन के बाहर पूरी दुनिया में इसपर सहमति है कि यह फैसला तिब्बतियों को ही तय करने दिया जाए। खुद चीन का कहना है कि दलाई लामा तो क्या, किसी भी बड़े लामा का अवतार चीन सरकार की मोहर के बिना सत्यापित नहीं होता। लेकिन अंततः यह एक धार्मिक मसला है। कल को चीनी अपनी मोहर वाला 15वां दलाई लामा खड़ा भी कर दें तो कोई तिब्बती उसे देवतुल्य मानकर पूजने तो नहीं जाएगा।

बहरहाल, निर्वासित तिब्बतियों के लिए चिंता इससे आगे की है। 14वें दलाई लामा के बाद वे अपनी मर्जी का दलाई लामा जरूर चुन लेंगे लेकिन उसके वयस्क होने तक दुनिया में उनका प्रतिनिधित्व कैसे हो पाएगा? निर्वासित तिब्बती संसद और खासकर उसके युवा प्रधानमंत्री पेनपा त्सेरिंग को इस पहलू पर और ज्यादा काम करना चाहिए।

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