Dhiraj Kulshreshtha : आज टाइम्स ऑफ इंडिया में संपादकीय पेज पर मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का लीड आर्टिकल छपा है…..यह आर्टिकल अखबार और राजनेता दोनों की गिरावट का बेहतरीन नमूना है… ‘अ रिवोल्यूशन इन सब्सिडीज’ यानि आर्थिक सहायता में क्रांति…के हैडिंग से छपा यह लीड आलेख सरकार के विभिन्न विभागों की संयुक्त सालाना रिपोर्ट से ज्यादा कुछ नहीं है…जिसे वसुंधरा राजे नहीं बल्कि नौकरशाह तैयार करते हैं, और जनसंपर्क विभाग विज्ञप्ति के रूप में जारी करता है….पर बहुप्रतिष्ठित अखबार के संपादकजी क्या कर रहे हैं…अगर सेटिंग (मार्केटिंग) के तहत इस विज्ञप्ति को छापना ही था, तो अखबार के किसी भी पेज पर छाप सकते थे।
संपादकीय पेज तो अखबार का मुख्य पॉलिसी पेज होता है…इस पेज का लीड आर्टिकल इसकी प्राणवायु….छोटे तो बेचारे बिक ही जाते हैं पर इतने बड़े अखबार के संपादक ने भी अपना स्पेस बेच दिया। और तो और …आलेख और हैडिंग में कोई तालमेल नहीं है, हैडिंग तो जरूर संपादकजी ने ही दी होगी…सब्सिडी क्रांति के गीत गाने वाले हैडिंग के आलेख में ही दूसरे पैरे से ही पीपीपी मॉडल की आरती शुरु हो जाती है यानि कि यह आलेख सिर्फ उनके लिए काम का है जो सिर्फ हैडिंग ही पढ़कर आगे बढ़ जाते है.. (ये मार्केटिंग वाले भी संपादकों को क्या-क्या पढ़ा देते हैं) पर तीसरे छोर पर मुख्यमंत्री की टीम पर भी तरस आता है कि उसमें एक भी कायदे का आदमी नहीं है, जो मुख्यमंत्री के नाम से एक प्रभावी लेख लिखकर इस अवसर(सौदे) को ठीक से भुना पाता…..कम से कम वसुंधरा राजे की चिंतक, लेखक जैसी छवि तो बनती…. विज्ञप्ति लेखन ने सब धो डाला…. अब तो बस यह जानना बाकी बचा है कि छपने की डील कितने में हुई थी…
राजस्थान के वरिष्ठ पत्रकार धीरज कुलश्रेष्ठ के फेसबुक वॉल से.
Comments on “टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादकों ने तो शर्म भी बेच दी”
धीरज जी, खबर अच्छी है लेकिन छोटे अखबारों के बारे में आपकी टिप्पणी आपकी भी सोच को जाहिर करती है।
धीरज जी, इस मीडिया मंडी में बड़े अखबार ही भांड मीडिया का रोल प्ले कर रहे हैं। अब ये अलग बात है कि “हर बड़ी मछली छोटी मछली को ही शिकार बनाती है” जिसे आपने भी तस्दीक कर अपने बड़ेपन का सबूत पेश किया है।