टीआरपी के खेल में चैनलों की बदहवास बहस किसी की जान ले लेगी, ऐसा सोचते थे…और वैसे ही हुआ और कांग्रेस के तेजतर्रार लोकप्रिय प्रवक्ता राजीव त्यागी की दिल के दौरा पड़ जाने के कारण असमय मृत्य हो गयी..।
राजीव त्यागी के जाने के कोई समय नही था…मौत अटल है सबको जाना है यह सत्य है लेकिन मौत भी आने के लिए बहाना खोजती है…और राजीव भाई के मौत का बहाना बना चैनल का डिबेट….
आप सोचिए..क्या भाषा होती है डिबेट की….जयचंद्र…औरंगजेब…..बाबर की औलाद…तैमूर….जिन नामो की उपाधि आपसी बहसों में दिया जाता है उन उपाधियों का हमारे हिंदुस्तान में सम्मान की नजर से नही देखा जाता है..।
रोक लगनी चाहिए ऐसी बहसों पर और इस प्रकार के बेहूदी भाषा पर…नही तो आज राजीव त्यागी कल किसी और का नंबर आयेगा… और इसके लिए सबसे आगे राजनीतिक दलों को आगे आना चाहिए…उसके बाद दर्शकों को…बाद में चैनलों की मजबूरी हो जायेगी… नही तो तैयार रहिये कल किसी और अपने चहेतों की श्रद्धांजलि देने के लिए….।
प्रतिस्पर्धा के खेल में चैनल के एंकर भी यही सोचते है ,जितना उनके शो में चिल्लम पो होगा उतना ही उनके शो का टेलीविजन रेटिंग पॉइंट मतलब टीआरपी मिलेगा…और यही टीआरपी चैनलों की कमाई का रीढ़ होता है…और इसके लिए चैनलों के प्रबंधनों द्वारा शो के प्रोड्यूसरों और एंकरों पर दबाव बनाया जाता है….और किसी कारण शो की टीआरपी नही आता है तो शो को बंद कर दिया जाता है ।
इसके लिए हम भी जिम्मेदार है…आप देख लीजिए जिस शो में जितना चिलम पो होता है उसी शो की टीआरपी भी होती है….तो इसके लिए एंकर और प्रोड्यूसर को जिम्मेदार माना जाय यह भी नाइंसाफी है…अगर किसी शो का टीआरपी मिलता है तो दर्शकों के कारण मिलता है..और उस शो का दर्शक कौन होता है….?जरा आप ही सोचिए….इस सवाल का जबाब खुद मिल जाएगा…
Rajanish Pandey
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