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टीवी पत्रकारों को जोकर किसने बनाया !

अरनब गोस्वामी ने अगर इंग्लिश TV न्यूज की हत्या की, जैसा कि Outlook वाले कहते हैं, तो हिंदी TV न्यूज चैनलों की उससे भी बुरी मौत के लिए कौन जिम्मेदार है? या फिर यह आत्महत्या का मामला है, जिसके लिए कोई दोषी नहीं है. आखिर किन की लीडरशिप में हिंदी TV न्यूज चैनलों ने मसखरा-युग में प्रवेश किया?

<p>अरनब गोस्वामी ने अगर इंग्लिश TV न्यूज की हत्या की, जैसा कि Outlook वाले कहते हैं, तो हिंदी TV न्यूज चैनलों की उससे भी बुरी मौत के लिए कौन जिम्मेदार है? या फिर यह आत्महत्या का मामला है, जिसके लिए कोई दोषी नहीं है. आखिर किन की लीडरशिप में हिंदी TV न्यूज चैनलों ने मसखरा-युग में प्रवेश किया?</p>

अरनब गोस्वामी ने अगर इंग्लिश TV न्यूज की हत्या की, जैसा कि Outlook वाले कहते हैं, तो हिंदी TV न्यूज चैनलों की उससे भी बुरी मौत के लिए कौन जिम्मेदार है? या फिर यह आत्महत्या का मामला है, जिसके लिए कोई दोषी नहीं है. आखिर किन की लीडरशिप में हिंदी TV न्यूज चैनलों ने मसखरा-युग में प्रवेश किया?

न्यूज का एंटरटेनमेंट हो जाना ग्लोबल मामला है, लेकिन हिंदी न्यूज चैनलों में यह कुछ ज्यादा ही भोंडे तरीके से हुआ. न्यूज बुलेटिन में नागिन ने नाग की हत्या का बदला लिया, स्वर्ग को सीढ़ी तन गई, सबसे महंगी वैश्या की ऑन स्क्रीन खोज हुआ, बिना ड्राइवर के कार चली. मत पूछिए कि क्या क्या न हुआ. और जब ढलान पर चल ही पड़े तो फिर कितना गिरे और किस गटर में गिरे, इसकी किसे परवाह रही.

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हिंदी न्यूज चैनलों को पीपली लाइव और हिदी के टीवी पत्रकारों को जोकर बनाने वाले दौर के तीन लीडर हैं. ये तीन नाम हैं – उदय शंकर, क़मर वहीद नकवी और रजत शर्मा. इस दौर पर मैं कभी डिटेल पेपर लिखूंगा. बाकी लोगों को भी लिखना चाहिए क्योंकि बात बिगड़ गई और बिगाड़ने वाला कोई नहीं हो, ऐसा कैसे हो सकता है. इनसे मेरा कोई निजी पंगा नहीं है. इनमें से दो लोग तो किसी दौर में मेरे बॉस रहे हैं. मुझे नौकरी दी है. उनके क्राफ्ट और कौशल पर भी किसी को शक नहीं होना चाहिए. मामला नीयत का भी नहीं है.

और जो एंकर-रिपोर्टर टाइप लोग स्क्रीन पर तमाशा करते नजर आते हैं, और इस वजह से अक्सर आलोचना के निशाने पर होते हैं, उनकी इतनी हैसियत नहीं थी कि मैं उन्हें दोषी ठहराऊं.

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लेकिन इसमें क्या शक है कि इनके समय से चैनल जिस तरह से चलने लगे, उसकी वजह से आज की तारीख में हिंदी के टीवी पत्रकारों और चैनलों के नाम पर पान दुकानों और हेयर कटिंग सलून में चुटकुले चलते हैं. पत्रकारों का नाम आते ही बच्चे हंसने लगते हैं. इन चैनलों ने मसखरेपन की दर्शकों को ऐसी लत लगा दी कि आखिर में न्यूज चैनलों पर आधे-आधे घंटे के लाफ्टर चैलेंज शो चलने लगे.

होने को तो ये न भी होते और कोई और होता, तो भी शायद यही हो रहा होता, लेकिन जिस कालखंड में हिंदी टीवी चैनलों का “मसखरा युग” शुरू हुआ तब 3 सबसे महत्वपूर्ण प्लेफॉर्म की लीडरशिप इनके ही हाथ में थी. कहना मुश्किल है कि इसमें इनका निजी दोष कितना है, लेकिन अच्छा होता है तो नेता श्रेय ले जाता है, तो बुरा होने का ठीकरा किसके सिर फूटे? इन्होंने अगर नहीं भी किया, तो अपने नेतृत्व में होने जरूर दिया.

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एस पी सिंह ने गणेश को दूध पिलाने की खबर का मजाक उड़ाकर और जूता रिपेयर करने वाले तिपाए को दूध पिलाकर भारतीय टीवी न्यूज इतिहास के सबसे यादगार क्षण को जीने का जज्बा दिखाया था. सिखाया कि अंधविश्वास के खंडन की भी TRP हो सकती है. लेकिन मसखरा युग में अंधविश्वास फैलाकर TRP लेने की कोई भी कोशिश छोड़ी नहीं गई.

टीवी पर इंग्लिश न्यूज में भी तमाशा कम नहीं है. लेकिन वह तमाशा आम तौर पर समाचारों के इर्द गिर्द है. हिंदी न्यूज में तमाशा महत्वपूर्ण है. खबर की जरूरत नहीं है. न्यूज चैनल कई बार लंबे समय न्यूज के बगैर चले और चलाए गए. किसी ने तो यह सब किया है.

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उदय शंकर, क़मर वहीद नकवी और रजत शर्मा ही क्यों? हिंदी न्यूज चैनलों के मसखरा युग में प्रवेश के तीन नायकों की मेरी इस शिनाख्त से कुछ लोग खफा है, तो कुछ पूछ रहे हैं कि यही तीन क्यों? दीपक चौरसिया, आशुतोष, विनोद कापड़ी जैसे लोग भी क्यों नहीं.

जिनकी भावनाएं आहत हुई हैं मेरा स्टेटस पढ़कर, उनके लिए मुझे कुछ नहीं कहना. उनसे निवेदन है कि कमेंट बॉक्स में जाकर मेरा स्टेटस फिर से पढ़ लें.

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और जो जानना चाहते हैं कि “उदय शंकर, कमर वहीद नकवी और रजत शर्मा ही क्यों” उन्हें शायद मालूम नहीं कि हिंदी के न्यूज चेनलों ने जब “नागिन का बदला युग” या “महंगी वेश्या की खोज युग” में प्रवेश किया तो ये तीन लोग देश के सबसे लोकप्रिय तीन चैनलों के लीडर थे. TRP लाने की मजबूरी थी. सही बात है. लोग न देखें, तो चैनल क्यों चलाना.

लेकिन TRP लाने के लिए उन्होंने जो रास्ता चुना, उसकी वजह से आज एक बच्चा भी टीवी पत्रकारों को जोकर और मदारी के रूप में देख कर हंसता है.

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दीपक चौरसिया, आशुतोष, विनोद कापड़ी जैसे लोग इसलिए नहीं क्योंकि वे स्क्रीन पर जरूर रहे लेकिन उस दौर में इनकी इतनी हैसियत नहीं थी कि कटेंट को निर्णायक रुप से प्रभावित करें.

पिछले कमेंट से एक हिस्सा रेफरेंस के लिए कॉपी पेस्ट कर रहा हूं:

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“एस पी सिंह ने गणेश को दूध पिलाने की खबर का मजाक उड़ाकर और जूता रिपेयर करने वाले तिपाए को दूध पिलाकर भारतीय टीवी न्यूज इतिहास के सबसे यादगार क्षण को जीने का जज्बा दिखाया था. सिखाया कि अंधविश्वास के खंडन की भी TRP हो सकती है. लेकिन मसखरा युग में अंधविश्वास फैलाकर TRP लेने की कोई भी कोशिश छोड़ी नहीं गई.”

“टीवी पर इंग्लिश न्यूज में भी तमाशा कम नहीं है. लेकिन वह तमाशा आम तौर पर समाचारों के इर्द गिर्द है. हिंदी न्यूज में तमाशा महत्वपूर्ण है. खबर की जरूरत नहीं है. न्यूज चैनल कई बार लंबे समय न्यूज के बगैर चले और चलाए गए.”

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“किसी ने तो यह सब किया है.”

वे खुद अंधविश्वासी नहीं हैं, लेकिन आपको या आपमें से ज्यादातर को अंधविश्वासी मानते हैं!!

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उदय शंकर, क़मर वहीद नकवी और रजत शर्मा ने एक खास कालखंड में हिंदी टेलीविजन समाचार उद्योग को अंधविश्वास और मसखरा युग में पहुंचा दिया, लेकिन ये तीनों खुद आधुनिक विचारों के मॉडर्न लोग हैं. इसलिए समस्या इनकी निजी विचारधारा को लेकर नहीं है. बल्कि TRP पाने के लिए बनी उनकी इस सोच को लेकर है कि हिंदी चैनलों का दर्शक मूर्ख और अंधविश्वासी होता है.

इसे मनोरंजन उद्योग की भाषा में “Lowest common denominator” कहते हैं. इसकी परिभाषा यह है- the large number of people in society who will accept low-quality products and entertainment या appealing to as many people at once as possible.

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लेकिन इसका नतीजा यह भी हुआ कि आज एक बच्चा भी टीवी पत्रकारों को जोकर और मदारी के रूप में देख कर हंसता है.

दिलीप मंडल के फेसबुक वॉल से

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