Sheetal P Singh : ये कहाँ आ गये हम… जिन्हें सुदर्शन टीवी (जिसके मालिक/ संपादक पर यौन उत्पीड़न का मामला दर्ज हुआ है) जो अनवरत सांप्रदायिक प्रचार करता है, नाबालिग़ लड़की से बलात्कार करने के आरोप में बंद आसाराम का खुला समर्थन करता है । भाषा / कंटेंट के मामले में गटर पत्रकारिता का नमूना है से बाल भर भी आपत्ति न है न हुई न होगी उनके तरकश में NDTV इंडिया के खिलाफ भाखने को बहुत कुछ है! जिन्हें Znews के संपादक / प्रबन्धक / मालिक को वीडियोटेप पर नवीन जिन्दल से सौ करोड़ का ब्लैकमेल करते देखने से रत्ती भर भी फ़र्क़ न पड़ा वे पत्रकारिता की शुचिता की तलाश में NDTV इंडिया की कमियाँ गिना रहे हैं! जिन्हें संपूर्ण मीडिया के नरेंद्र मोदी अमित शाह अरुण जेटली मुकेश अंबानी गौतम अडानी से संबंधित हर ऐसे समाचार जिसमें आलोचना हो पर अघोषित प्रतिबंध से हर्फ़ भर भी दिक़्क़त नहीं है उन्हे NDTV इंडिया के अस्तित्व से ही बड़ी दिक़्क़त है! इन सब को पहचानिये! इनकी जात पहचानिये! ये एक रंग के हैं, इनका रंग पहचानिये!
Anil Jain : अघोषित आपातकाल की मुखर होती पदचाप! इतिहास के अच्छे-बुरे दिनों या घटनाक्रमों को वर्तमान और भविष्य के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। आपातकाल लगाते वक्त तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को अपनी ‘लोकप्रियता’ और ‘राजनीतिक कौशल’ का वैसा ही गुमान था जैसा आज भी कुछ लोगों को है। आपातकाल कोई आकस्मिक घटना नहीं बल्कि सत्ता के अतिकेंद्रीकरण, निरंकुशता, व्यक्ति-पूजा और चाटुकारिता की निरंतर बढ़ती गई प्रवृत्ति का ही परिणाम थी। आज फिर वैसा ही नजारा दिख रहा है। यह जरुरी नहीं कि लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों का अपहरण हर बार बाकायदा घोषित करके ही किया जाए। वह लोकतांत्रिक आवरण और कायदे-कानूनों की आड में भी हो सकता है। शासक वर्ग की कोशिशें इस दिशा में जारी हैं। सरकार की कार्यशैली पर सवाल उठाने वालों को देशद्रोही करार देना, भोपाल की संदिग्ध मुठभेड, दिल्ली में कांग्रेस उपाघ्यक्ष और मुख्यमंत्री-उपमुख्यमंत्री को बार-बार हिरासत में लेना और एनडीटीवी-इंडिया पर एक दिन का प्रतिबंध- यह सब क्या है?
Amitaabh Srivastava : एनडीटीवी इंडिया पर सरकारी पाबन्दी की कार्रवाई घोर निंदनीय है. ये सरकार के खतरनाक मंसूबों की एक झलक है. हर पत्रकार को , संपादक को, पत्रकार संस्था को निजी और सामूहिक स्तर पर इसका विरोध करना चाहिए भले ही चैनल से आपको ढेरों शिकायतें हो. एडिटर्स गिल्ड के अलावा बीईए और बाकी संस्थाओं, संगठनों को भी इस पर सख्त रुख अपनाना चाहिए. इमरजेंसी की आड़ में कांग्रेस को कोसने वाली सरकार हकीकत में आज़ाद प्रेस की अवधारणा से कितनी नफरत करती है . ये उसकी मिसाल है. ये इमरजेंसी नहीं तो और क्या है. शर्मनाक.
वरिष्ठ पत्रकार शीतल पी. सिंह, अनिल जैन और अमिताभ श्रीवास्तव की एफबी वॉल से.