Vikas Mishra : कुछ लोग स्वभाव से परसंतापी होते हैं। परसंतापी मतलब वो जिन्हें दूसरों को पीड़ा पहुंचाकर बहुत मजा आता है। वो दूसरों को खुश देखकर कभी खुश नहीं होते, हां किसी को रुलाकर उन्हें अपरंपार खुशी मिलती है। ऐसे लोग हमारे आसपास भी हैं, आपके आसपास भी हैं। प्राइमरी स्कूल में एक ओपी मास्टरसाहब हुआ करते थे। जो भी बच्चा उन्हें हंसता हुआ मिलता था, उसे वो बुरी तरह पीटते थे। जब वो रोने लगता था, तो उसे छोड़ देते। मीडिया के कई धुरंधरों को मैं जानता हूं, जो बाहर अपनी छवि सभ्यता और संस्कृति के अग्रदूत की रखते हैं, लेकिन न्यूजरूम में बिना बात किसी की सरेआम इज्जत उतार लेने में उन्हें अपार आनंद मिलता है।
एक न्यूज चैनल हेड का प्रिय शगल था कि वो अपने केबिन में एक या दो जूनियर लड़कियों को बिठाए रहते थे। खुद कुर्सी पर और लड़की उनकी टेबल पर या बगल की कुर्सी पर होती थी। इसी बीच वो किसी दूसरे जूनियर स्टाफ को बुलाते थे, उसे बुरी तरह डांटते थे। एक तो डांट, दूसरे लड़कियों के सामने डांट। इस दोहरी मार से जब वो रुआंसा हो जाता था, तब उन सज्जन के चेहरे पर असीम सुख दिखाई देता था। हालांकि वो सज्जन कहीं भी टिके नहीं.. हां कभी खाली भी नहीं बैठे।
एक चैनल हेड तो कमाल के थे। अचानक उनके केबिन से चीखने की आवाज आती थी। किसी के सात पुश्तों को न्योत रहे होते थे। अंग्रेजी में एक से एक नई गालियां देते थे। बड़े समदर्शी भी थे। स्त्री-पुरुष का भेद नहीं करते थे। जैसी क्लास लड़कों की लगाते थे, वैसी ही लड़कियों की भी। बाद में जब वो केबिन से बाहर निकलते थे उनका चेहरा किसी संत की तरह शांत हो जाता था। आजकल वो मीडिया से दूर हैं, कुछ बिजनेस वगैरह कर रहे हैं। हमारे रिश्ते के एक मामाजी हैं, उन्हें छोटे बच्चों के गाल काटकर रुलाने में अनोखी खुशी मिलती है। मेरा बेटा साल भर का था, दोनों गाल काटकर उन्होंने निशान छोड़ दिए, फिर रोते हुए बच्चे के हाथ में दस रुपये का नोट पकड़ाकर हंसते हुए कहा-अरे बड़ा बहादुर बच्चा है। मैं गुस्से में था, लेकिन गुस्सा दबाकर मुस्कुराते हुए पूछा-मामा.. लड़के का गाल काटने के दस रुपये देते हो, जवान महिला के गाल का कितना दोगे। सही रेट लगाओ तो मैं अपनी बीवी को बुला दूं। मामाजी झेंप गए, भड़के भी।
एक महिला मेरी रिश्तेदार हैं। उनकी गजब आदत है, अपने भतीजे, भतीजी, भानजी, या दूसरे रिश्तेदारों के बेटे-बेटियों के साथ वो बहुत बुरा व्यवहार करती हैं। लात मारकर तो जगाती हैं। बस चले तो चौबीस घंटे काम करवा लें। लेकिन जब अपने पैदा किए बच्चों की बात आती है तो अगर छींक भी आ गई तो उन्हें दौरा पड़ जाता है। जमीन आसमान एक कर देती हैं। जब उनका बेटा-बेटी कहीं जाते हैं तो वहां के मेजबान को हिदायत भी जाती है कि उन्हें दूध-मलाई और घी कैसे खिलाना है, रात में च्यवनप्राश जरूर देना है।
मैं अपने एक जिगरी दोस्त के घर गया था। रईस और इज्जतदार परिवार था। शाम को अचानक एक कमरे से चीखने और थोड़ी देर बाद घुटी घुटी सी आवाज आई। मैंने दरवाजे पर धक्का दिया, दरवाजा खुला था। वहां मेरे दोस्त के भाई साहब कुर्सी पर इत्मिनान से बैठे थे। आठ लोग एक आदमी को डंडे से पीट रहे थे। उसके मुंह पर कपड़ा बंधा हुआ था। मैंने चीखते हुए कहा-ये क्या हो रहा है, भाई साहब हंसते हुए बोले-इलाज। मैंने अपने दोस्त को खोजा, बोला कि वो इसे रुकवाए। उसने लापरवाही से कहा-तुम्हें क्या परेशानी है, ये तो यहां आए दिन होता है।
मैंने ऐसी सासों को देखा है, जिन्हें हमेशा रोती हुई बहुएं ही रास आती हैं। ऐसे बॉसेज देखे हैं, जब तक वो अपने दो चार अधीनस्थों को रुला न ले, उसे चैन ही नहीं आता। मुझे हैरानी होती है कि आखिर कैसे उन्हें इस काम में मजा आता है।
कई बार मुझे लगता है कि ये एक बीमारी है। ऐसी बीमारी जो दिमाग से ही कहीं संचालित होती है। क्योंकि परपीड़क कभी उससे पंगा नहीं लेता, जो उस पर भारी पड़ जाए। जिससे उलझने में लेने के देने पड़ जाएं। उन्हें तो वो मित्र बनाकर चलता है। बस कमजोरों पर ही जोर आजमाइश करता है।
परपीड़कों, सैडेस्टिक अप्रोच वालों के लिए ही शास्त्रों में कहा गया है- अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्। परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम्। (अठारह पुराणों में व्यास जी ने बस दो ही बात कही है, परोपकार ही पुण्य है और दूसरों को पीड़ा पहुंचाना ही पाप है।)
आचार्य तुलसीदास ने अवधी में समझाया है- परहित सरिस धरम नहीं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाही।
आजतक न्यूज चैनल में वरिष्ठ पद पर कार्यरत पत्रकार विकास मिश्र के फेसबुक वॉल से.