Mayank Saxena : साल 2008 की बात है, मीडिया में काम करने वालों और नए आने वालों के बीच एक नाम की बहुत चर्चा थी…नाम था Voice of India…यह एक नया आने वाला चैनल था, जो एक साथ कई सारे चैनल और एक मीडिया इंस्टीट्यूट ले कर आ रहा था। भोकाल ऐसा था कि बड़े-बड़े अखबारों में इश्तिहार छप रहे थे और कोई मित्तल बंधु थे, जो इसके कर्ता धर्ता थे। मीडिया पढ़ा कर इंस्टेंट पत्रकार बनाने वाले संस्थान के साथ राष्ट्रीय और क्षेत्रीय चैनल लांच होने थे और लोगो में शेर बना था। संस्थान के साथ मीडिया के तमाम नए पुराने बड़े चेहरे पहले ही जुड़ चुके थे, जिनमें आज तक के पूर्व कर्ता-धर्ताओं में से एक राम कृपाल सिंह (नवभारत टाइम्स वाले) के अलावा मुकेश कुमार, किशोर मालवीय, सुमैरा, अतुल अग्रवाल जैसे तमाम नाम शामिल थे। ज़ाहिर है कि इस चैनल से न केवल बड़े-बड़े संस्थान भी संशय में आ गए थे बल्कि मीडिया समुदाय के लिए ये एक अनोखी सी चीज़ थी।
बताया गया कि संस्थान के पास भारत का सबसे बड़ा इन्फ्रास्ट्रक्चर है और सबसे आधुनिक तकनीक, सबसे अद्भुत सेट औऱ सबसे बड़ा दफ्तर…फिर भर्तियों का दौर शुरु हुआ औऱ वो अपने आप में एक कहानी है…लोगों को पिछली सैलरी से तीन गुना वेतन पर नौकरियां दी गई। मैं उस वक़्त ज़ी न्यूज़ में था और हर रोज़ आस-पास का कोई एक शख्स नौकरी छोड़ कर जा रहा था…अपने पास भी मौका आया लेकिन न जाने क्यों…शायद किसी अनजान भय से सोचा कि कुछ दिन औऱ ज़ी की नौकरी कर लेते हैं।
ख़ैर छः महीने में ही ताश का महल बिखर गया। चैनल की लांचिंग से पहले ही रामकृपाल जी संस्थान छोड़ गए…फिर एक ऐसा चैनल लांच हुआ, जो लांच होने के पहले ही बंद होने की तरफ जा चुका था…अंततः न केवल वीओआई का पतन हुआ, उनके 90 फीसदी प्रोजेक्ट लांच ही नहीं हो पाए…और फिर शुरु हुआ, जमी जमाई नौकरी छोड़ कर, वहां गए मीडियाकर्मियों की बर्बादी का दौर… मीडियाकर्मियों की कई महीने की सैलरी बकाया थी और वे सड़क पर उतर रहे थे…तो कभी दफ्तर का घेराव कर रहे थे…और फिर मामला अदालतों तक गया। पता नहीं कितने लोगों को बकाया वेतन मिला लेकिन कई क़ाबिल लोगों को उस के बाद किसी अच्छे संस्थान में नौकरी नहीं मिली। हां, शीर्ष पदों पर गए लोग, हमेशा की तरह काम पाते रहे औऱ तमाम औऱ संस्थानों में दोबारा पहुंच गए।
इसके बाद इंडिया न्यूज़ की लांचिंग के बाद कमोबेश यही स्थिति बनी। फिर लाइव इंडिया…और फिर सीएनईबी के बंद होने के बीच में एस1, जनसंदेश, जनता टीवी औऱ ख़बर भारती जैसी ख़बरें पता नहीं हमारे कानों तक भी पहुंची कि नहीं…लेकिन अब देखिए न ये रोज़ का खेल हो चुका है। हाल ही में जिया न्यूज़ का प्रकरण हमारे सामने है और दूसरों के अधिकारों के पहरुआ बनने वाले पत्रकार फिर सड़क पर हैं…अपने लिए बेहद लाचार और कुछ भी करने में अक्षम। लेकिन जिया न्यूज़ पिछले एक साल का अकेला जिया न्यूज़ नहीं है। साल 2014 में ही पहले एक बिल्डर का श्री न्यूज़ और फिर न जाने किस का भास्कर न्यूज़ भी इसी हालत में आ चुका है कि प्रबंधन कर्मचारियों की सैलरी नहीं दे रहा है और कर्मचारी श्रम अदालत से लेकर मीडिया पोर्टलों तक के चक्कर लगा रहे हैं।
लेकिन ज़रा ग़ौर कीजिए, इनमें से किसी भी चैनल के सम्पादक या शीर्ष अधिकारियों के लिए भुखमरी की नौबत नहीं आई, बल्कि ज़्यादातर को सैलरी भी मिलती ही रही। इनको चलाने वाली कम्पनियां कभी बंद नहीं हुई बल्कि चैनल भी चलते रहे। फिर आखिर कर्मचारियों को सैलरी क्यों नहीं मिली?
कभी इन कर्मचारियों से बात करिए, सामने आ जाएगा वो सच, जिसमें टीवी मीडिया की दुनिया का एक बड़ा सच दिखेगा…सच कि किस तरह से ज़्यादातर बड़े पदों पर बैठे लोगों का लिजलिजापन, कर्मचारियों की पारिवारिक मजबूरियों के साथ मिल कर मालिकों को मज़बूत करता है। ये सारे चैनल किस उद्देश्य से खोले गए, इस बारे में अलग-अलग राय होगी…लेकिन एक सच ये भी है कि गली-गली में कुकुरमुत्तों की तरह उग आए पत्रकारिता पढ़ाने वाले संस्थानों से निकल रही भीड़ आखिर समायोजित भी कहां होगी?
इन संस्थानों में ऐसे लोग भी मिलेंगे, जिन्होंने प्रबंधन से 5-10 करोड़ में चैनल खोलने और चलाने का भी दावा कर डाला था…सम्पादकीय पदों पर तकनीकी योग्यता वाले लोगों की कुर्सी आम बात है। इन सारे चैनल्स की एक औऱ खास बात है कि इन में चैनल हेड या लांचिग करवाने वाले अमूमन टीवी की टेक्निकल टीम के लोग थे…इसकी तस्दीक हर जगह से की जा सकती है…तो आखिर ये गोरखधंधा क्या है? बहुत से आकलन हो सकते हैं…मेरा एक आकलन है कि पिछले 5 साल में टीवी चैनल की लांचिग करवाने के नाम पर कई लोगों ने मोटी कमाई की है…और उस में से ज़्यादातर लोग पत्रकार नहीं थे…
पत्रकारों की व्यथा ये है कि तमाम बड़े नाम, जब उनके बॉस बनते हैं तो उनको उनकी हकीकत समझ में आती है…लेकिन हम चूंकि अब सिर्फ नौकरी करने आते हैं तो अपनी आवाज़ भी ख़ुद नहीं उठाते हैं…हम चाहते हैं कि हमारे हक के लिए भी कोई औऱ लड़े… जिया न्यूज़ की इस हड़ताली टीम से पहले, श्री न्यूज़ और भास्कर ही नहीं…लाइव इंडिया…वीओआई में भी कुछ लोग थे…लेकिन कुछ लोग थे…जब वे कुछ मुट्ठी भर लोग लड़ते रहे, तो ये ही कर्मचारी उनके हक़ में साथ नहीं खड़े हुए…लेकिन बाद में जब इन पर भी वही बीती तो….जिया न्यूज़ में कुछ ही महीने पहले एक टीम ऐसी ही एक लड़ाई लड़ रही थी…अभी की हड़ताली टीम उस वक्त उस टीम के खिलाफ प्रबंधन के इशारों पर काम करती रही…लेकिन अंत मार्टिन नीलोमर की कविता सा ही होना था…क्योंकि जब आप ख़ुद का बचाते हुए, बाकी को शहीद होते देखते रह जाते हैं.,..तो आपको बचाने के लिए अंत में कोई बचा नहीं होता है…
अब देर ही सही जिया न्यूज़ में भी ये बड़ी हड़ताल हुई है…प्रबंधन एक पत्रिका के भव्य लांच की तैयारी में लगा है…और स्वघोषित ईमानदार पत्रकार सम्पादक प्रबंधन के साथ बुढ़ापा काटने की तैयारी में हैं…ऐसे में अब सही समय है कि इस तरह के मीडिया संस्थानों के खिलाफ आवाज़ उठाई जाए…ह़ड़ताली कर्मचारियों का समर्थन किया जाए…और आगे से समझा जाए कि लड़ाई में साथ देने के अलावा कोई विकल्प नहीं है…मुट्ठी भर को मुट्ठियों में बदलना होगा…अब ही सही समय है, जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कर्मचारियों के एक संगठन के लिए गंभीर होना होगा…पर सवाल ये है कि भविष्य की साझा लड़ाईयों के लिए इस संगठन के लिए कोई कवायद होगी…या फिर जिया न्यूज़ के ये हड़ताली, सैलरी मिल जाते ही…सब भूल कर किसी और लाला की दुकान पर मालिक की आरती उतारने लगेंगे? इस उम्मीद के साथ कि कम से कम कुलदीप नैय्यर, Punya Prasun Bajpai और राहुल देव इस कार्यक्रम का बहिष्कार करेंगे… लेकिन क्या जिया न्यूज़ के कर्मचारी तीन मूर्ति के बाहर प्रदर्शन करेंगे???
पत्रकार और एक्टिविस्ट मयंक सक्सेना के फेसबुक वॉल से.