कविता मैंने कभी लिखी नहीं . पता नहीं कुछ मिनटों पहले मन की बेचैनियों से कुछ लाइनें निकली हैं .. ये जीवन की पहली अ-कविता है जो चंद क्षणों में मन से मोबाइल पर उतर कर यूँ आकार लेती गई….
हर शहर में कातिल अब भी अड़ा है…
अजीत अंजुम
………..
हर शहर में कातिल अब भी अड़ा है
लाठी-बल्लम लिए चौराहे पर खड़ा है
रकबर भी मरेगा, अकबर भी मरेगा
सलीम भी मरेगा, सुल्तान भी मरेगा
भीड़ के हाथों इंसान ही मरेगा
अखलाक भी मरा है
पहलू भी मरा है
जुनैद भी मरा है
अलीमुद्दीन भी मरा है
फिर भी देखो तो सही
हर शहर में कातिल अब भी अड़ा है
लाठी-बल्लम लिए चौराहे पर खड़ा है
ये झंडे, ये पताका, ये नारे
ये जय श्रीराम के जयकारे
इंसानों को सरे आम कोंचते ये हत्यारे
किस ‘धर्म’ के बने हो तुम हरकारे
हिन्दू हो तुम भी
हिन्दू हैं हम भी
ये ‘धर्म’ मेरा तो नहीं
लेते हो नाम राम का
करते हो काम शैतान का
खुश हो लो आज
कि संसद से सड़क तक भीड़ हो तुम
इंसानों की टूटती सांसों पर
तांडव कर लो आज
कि लिंचिस्तान बनते हिन्दुस्तान की बदरंग तस्वीर हो तुम
हर शहर में कातिल अब भी अड़ा है
लाठी-बल्लम लिए चौराहे पर खड़ा है
डरो मत तुम आज
कि सत्ता की मीनारों पर बैठे हैं तुम्हारे सरपरस्त
खुल कर खेलो आज
कि हुक्मरानों की ढील ने बना दिया है तुम्हे मदमस्त
सोचना कभी
सोने से पहले
उठने के बाद
पूजा से पहले
खाने के बाद
घर से निकलने के पहले
या कि
किसी रकबर के खून के छींटे लिए
अपने घर में दाखिल होने के बाद
ये लाठी , ये फरसे , ये भाले
इंसानों को बनाते ‘अधर्म’ के निवाले
‘राम’ ने ये सब तो नहीं किया था तुम्हारे हवाले
हर शहर में कातिल अब भी अड़ा है
लाठी-बल्लम लिए चौराहे पर खड़ा है….