अखिलेश के उपन्यास ‘निर्वासन’ पर प्रभात रंजन की राय है कि वह अपठनीय है और कि चुके हुए लेखक हैं अखिलेश। वह लिखते हैं, ‘ प्रकाशक द्वारा लखटकिया पुरस्कार के ठप्पे के बावजूद अखिलेश का उपन्यास ‘निर्वासन’ प्रभावित नहीं कर पाया। कई बार पढ़ने की कोशिश की लेकिन पूरा नहीं कर पाया। महज विचार के आधार पर किसी उपन्यास को अच्छा नहीं कहा जा सकता है। साहित्य भाषा के कलात्मक प्रयोग की विधा है। ‘निर्वासन’ की भाषा उखड़ी-उखड़ी है। ‘पोलिटिकली करेक्ट’ लिखना हमेशा ‘साहित्यिक करेक्ट’ लिखना नहीं होता है। सॉरी अखिलेश! एक जमाने में आप को पढ़ कर लिखना सीखा। लेकिन आज यही कहता हूँ- आप चुक गए हैं! (और हाँ! एक बात और, 349 पृष्ठों के इस उपन्यास की कीमत 600 रुपये? क्या यह किताब सिर्फ पुस्तकालयों के गोदामों के लिए ही है, पाठकों के लिए नहीं)।
लेकिन इसी उपन्यास पर वीरेंद्र यादव की राय दूसरी है और वह प्रशंसा का पुंल बांधने में सारा रिकार्ड तोड़ बैठे हैं। वह लिखते हैं, ‘अपनी समग्रता में ‘निर्वासन’ अपने समय के सम्पूर्ण यथार्थ का उपन्यास है। हाल के वर्षों में हिंदी के अधिकांश उपन्यास इन अर्थों में सीमित यथार्थ के उपन्यास रहे हैं कि इनमें किसी एक कालावधि, विशेष मुद्दे, प्रवृत्ति या विमर्श की केन्द्रीयता रही है। लेकिन ‘निर्वासन’ एक साथ कुलीन पितृसत्ता, वर्णाश्रमी वर्चस्व और उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रत्याख्यान है। अखिलेश का यह उपन्यास दलित हरहू राम से लेकर अमरीका पांडे और गांव गोसाईंगंज से लेकर महानगरीय यथार्थ का जिस तरह से विस्तार लिए हुए है वह एक साथ स्थानिक और वैश्विक है। अच्छा यह है कि बेदखलियों की यह कथा रोजमर्रा के अनुभवों, अपने इर्दगिर्द मौजूद जीते जागते लोगों, घर-परिवार के घात-प्रतिघातों और बदलते समय के पदचापों को सुनते हुए जिस तरह से रची-बुनी गयी है वह अलग और नयी है। अर्थहीनता को अर्थ देते, निस्सार को सारवान बनाते, उपस्थित में अनुपस्थित को लक्ष्य करते और भोगवाद का प्रतिपक्ष पेश करते हुए अखिलेश का यह औपन्यासिक हस्तक्षेप लेखक की सामाजिक भूमिका का भी निर्वहन है। कहना न होगा कि ‘निर्वासन’ इस दौर के उपन्यासों में एक महत्वपूर्ण और स्वागतयोग्य उपलब्द्धि है।
मैत्रेयी पुष्पा की राय और है । वह कहती हैं, ‘इन दिनों समीक्षकों की योग्यता क्या है, दोस्ती और दुश्मनी की दलबंदी। पाठकों में यह दुर्गुण नहीं होता। दोस्त समीक्षक पीठ ठोकें और पाठक अपना माथा पीटें तो हमारी रचना की जगह कूड़ेदान में होनी चाहिए।’
बड़ी दुविधा है भाई!
उधर मृदुला गर्ग वर्सेज चित्रा मुदगल, ममता कालिया, राजी सेठ वगैरह अलग चल रहा है। मृदुला गर्ग और चित्रा मुदगल आपस में समधन का रिश्ता भी रखती हैं। लेकिन अपनी महत्वाकांक्षा के वशीभूत कैसे गाएं गाना सामने समधन है का लाज और संकोच भी तज दिया है दोनों ने। हिंदी जगत में आज कल रचना की कम सर फुटव्वल की खबर ज़्यादा है। आग्रह, पूर्वाग्रह और दुराग्रह की खेती कुछ ज़्यादा ही फूल- फल रही है।
वैसे रही बात अखिलेश के उपन्यास ‘निर्वासन’ की तो मैं ने यह उपन्यास अभी पढ़ा नहीं है। पढ़ने की हिम्मत भी नहीं है। क्यों कि सारे जादू टोटके मिला कर अखिलेश एक सफल संपादक तो ज़रूर कहे जाने लगे हैं, हालांकि उन के संपादक की इस सफलता के नीचे के कालीन में बहुत कुछ ऐसा-वैसा भी दबा पड़ा है, तो भी तमाम इस सब के वह संपादक तो सफल सिद्ध हुए ही हैं इस में कोई शक नहीं है। कुछ अच्छी रचनाएं और संस्मरण तदभव में पढ़ने को मिले हैं। मन को मोहित कर लेने वाले। कई बार उन से मिलने पर इसी बिना पर मैं उन्हें संपादक जी ही कह कर संबोधित भी करता हूं। पर अपने इसी सफल संपादक को साध कर वह अपने को बड़ा लेखक स्थापित करवाने में पूरे मनोयोग से लगे हैं। साम, दाम, दंड, भेद, लाइजनिंग, वायजनिंग सब आजमा डाल रहे हैं। लेकिन अच्छा संपादक, अच्छा लेखक भी साबित हो यह ज़रूरी नहीं है। बहुत कम लोग धर्मवीर भारती जैसा सौभाग्य ले कर आते हैं। कि संपादक भी अच्छे और रचनाकार तो खैर कहने ही क्या! लेकिन भारती जी के लिए भी बार-बार कहा गया कि उन का संपादक उन के लेखक को खा गया। कई और संपादक रचनाकारों के लिए भी यह बात बार-बार कही गई है।
बहरहाल अखिलेश को बतौर लेखक स्वीकारने में मुझे शुरू से हिच रही है। बहुत ही नकली, खोखली और अपठनीय कथा के मालिक हैं वह। लगभग अतार्किक कथाएं लिखते हैं वह। उन की एक कहानी है शापग्रस्त। इसी नाम से संग्रह भी। इसी बिना पर उन की कहानियों को ‘अखिलेशग्रस्त’ कहता रहा हूं। अब कि जैसे ग्रहण कहानी में उन का चरित्र पेटहगना इतना नकली है कि पूछिए मत! उस का काल, पात्र, स्थान सब नकली। सुना है कि इस उपन्यास ‘निर्वासन’ में भी एक पादने वाला चरित्र है जो एक कोषागार के सामने से गुज़रते हुए इतना जोर से पाद देता है तो उस के खिलाफ बम फोड़ने का मुकदमा दर्ज हो जाता है आदि-आदि। ऐसे नकली दृश्य और नकली चरित्र अखिलेश ही रच सकते हैं। संपादक जो हैं।
यानी सम पादक!
इस उपन्यास में एक कामना नाम की एक स्त्री चरित्र भी सुना है। दिलचस्प यह की वह पुरुषों के कपडे के नीचे भी सब कुछ देख लेती है। ऐसी नकली स्थितयां वीरेंद्र यादव को हजम हो गई हैं तो इस लिए कि वह अखिलेश के मित्र हैं। मित्रता का निर्वाह है यह। काकस मंडली का आखिर निर्वाह भी तो ज़रूरी है।
तो भी अखिलेश के उपन्यास ‘निर्वासन’ पर समारोह पूर्वक चर्चा होने जा रही है। उन्हें बधाई! पर जाने क्यों एक मासूम सा सवाल भी मन में उठ रहा है कि ऐसी खराब रचनाओं की इतनी चर्चा आखिर कैसे हो जाती है? समीक्षा भी, गोष्ठी भी। यह भी, वह भी। पुरस्कार भी। अभी बीते दिनों एक और अपठनीय लघु उपन्यास पर चर्चा समारोह पूर्वक हुई थी। बस बैनर बदल गया था लेकिन लोग लगभग यही थे, जो इस समारोह में होंगे। लेखक रवींद्र वर्मा थे। उन की रचना का नाम याद नहीं आ रहा। वैसे भी लखनऊ में खराब रचनाओं पर शानदार गोष्ठी आयोजित करने की लगभग परंपरा सी हो गई है। बार-बार। लगातार। रचना नहीं, लोग बोलते हैं, समीक्षा बोलती है। बात बोलेगी/ हम नहीं/ भेद खोलेगी आप ही! वाली शमशेर की बात लोग भूल से गए हैं। तो मैत्रेयी पुष्पा जो कह रही हैं तो क्या अनायास ही कह रही हैं? कि, ‘इन दिनों समीक्षकों की योग्यता क्या है, दोस्ती और दुश्मनी की दलबंदी। पाठकों में यह दुर्गुण नहीं होता। दोस्त समीक्षक पीठ ठोकें और पाठक अपना माथा पीटें तो हमारी रचना की जगह कूड़ेदान में होनी चाहिए।’
माफ़ कीजिए मैत्रेयी जी, मैं अपना माथा नहीं पीटने वाला। खराब रचनाओं पर मैं वक्त नहीं खराब करता। इस के लिए लखनऊ में हमारे अग्रज वीरेंद्र यादव सर्वदा तैयार रहते हैं। वह न सिर्फ पढ़ते हैं, तारीफ़ करते हैं खराब रचनाओं की बल्कि उन्हें ‘अच्छी रचना’ की सनद भी देते रहते हैं। इस में महारथ हासिल है उन्हें। अपनी विद्वता का, अपने अच्छे अध्ययन का निचोड़ भी इन खराब रचनाओं को पूज्य बनाने में वह खर्च करते रहते हैं। अभी बहुत दिन नहीं बीता है कि जब पूरी तरह सिद्ध हो ही गया कि महुआ माजी का उपन्यास मैं बोरिशा इल्ला चोरी का उपन्यास है, लेकिन उस मुश्किल समय में भी उन्होंने महुआ माजी का साथ दिया था और इस चोरी के उपन्यास को भी वह महत्वपूर्ण बताते नहीं अघा रहे थे वह। यहां यह ज़िक्र भी ज़रूरी है कि इस उपन्यास का वर्ल्ब भी वीरेंद्र यादव ने लिखा था। विद्वान आदमी हैं। अच्छे को खराब और खराब को अच्छा बनाने का कौशल भी वह खूब जानते हैं। विभूति नारायन राय के एक निहायत रद्दी उपन्यास तबादला को भी वह एक बार महान सिद्ध कर चुके हैं। फेहरिस्त लंबी है। और एक बार जब कह दिया कि महत्वपूर्ण उपन्यास है तो कह दिया सो कह दिया पर अड़ जाना भी आता ही है उन्हें। आग्रह, दुराग्रह और पूर्वाग्रह क्या ऐसे ही खेतों से निकलते हैं? ऐसे ही उपजते हैं? और फैल जाते हैं हुआं -हुआं करते हुए। तो कुछ लोग डर जाते हैं इसी हुआं-हुआं में! और मारे फैशन के वह भी हुआं-हुआं करने लग जाते हैं। इस फेर में कि कहीं वह लोग अनपढ़ न मान लिए जाएं। नहीं देख रहा हूं कि ऐसी गोष्ठियों में कई स्वनाम धन्य तो अध्यक्षता करते हुए भी बड़े गुरुर और हर्ष से बताते हैं कि इस किताब को मैं पढ़ नहीं पाया हूं। तो हे विद्वान महोदय डाक्टर ने कहा था कि आप इस कार्यक्रम की अध्यक्षता भी कीजिए? मंचायमान होइए ही? और आयोजकों की अकल पर तो खैर ताला लगा ही होता है सर्वदा। इस लिए भी कि वह यश:प्रार्थी तो डिक्टेशन के आकांक्षी होते ही हैं।
आलम यह है कि कई सारे अफसर, कई सारे संपादक, कई सारी सुंदरियां, कई सारे लायजनर अपने को महान रचनाकार सिद्ध करने-करवाने में सक्रिय हैं इन दिनों। पुस्कारों की वैतरणी भी इन्हीं की है और महानता के सारे मानक भी इन्हीं के हैं। और कि कई सारे आलोचक-प्रवर इन्हें महान रचनाकार और कि इन्हें देवता बनाने के कारखाने खोल बैठे हैं। पुरस्कार की वैतरणी पार करवा ही रहे हैं। हालांकि नामवर सिंह कहते हैं कि, ‘आलोचक किसी लेखक को बड़ा नहीं बनाता, उस के बड़प्पन को स्वीकार करता, करवाता है।’ एक बार नामवर जी बातचीत में मुझे बताने लगे कि, ‘प्रेमचंद के ज़माने में भी रामचंद्र शुक्ल थे और शुक्ल ने उन को स्वीकार किया था। पर तब एक आलोचक थे अवध उपाध्याय। अवध उपाध्याय को लोग भूल गए हैं। पर इन्हीं अवध उपाध्याय ने प्रेमचंद के उपन्यास ‘प्रेमाश्रम’ को टॉलस्टाय के एक उपन्यास का अनुवाद तथा ‘रंगभूमि’ को मैकरे का अनुवाद कहा था। पर देखिए कि प्रेमचंद को आज लोग जानते हैं, लेकिन अवध उपाध्याय को कोई नहीं जानता।’
दुर्भाग्य से इन दिनों भी कई-कई अवध उपध्याय बहुत सक्रिय हैं। इन अवध उपाध्यायों का कुछ कर लेंगे आप? कर सकते हों तो कर लीजिए! हम तो नमस्कार भी नहीं करते!
लेखक दयानंद पांडेय वरिष्ठ पत्रकार और उपन्यासकार हैं. उनसे संपर्क 09415130127, 09335233424 और [email protected] के जरिए किया जा सकता है। यह लेख उनके ब्लॉग सरोकारनामा से साभार लिया गया है।