याकूब मेमन फांसी अध्याय की ”अप्रिय” कवरेज पर केंद्र सरकार से हिंदी के तीन समाचार चैनलों एबीपी, आजतक और एनडीटीवी को मिले नोटिस पर कुछ संपादकों-पत्रकारों की चिंताएं देखने में आ रही हैं। मैं इन चिंताओं को लेकर चिंतित हूं। हम सब लगातार देख रहे हैं कि समाचार चैनलों ने बीते एक साल में किस तरह सरकार का प्रवक्ता बनना स्वेच्छा से चुना है।
याकूब मेमन पर सभी चैनलों ने फांसी के पक्ष में एकतरफा प्रसारण किया। यह भरसक दिखाने की कोशिश की गई कि कैसे याकूब को बचाने के लिए न्यायपालिका रात भर अभूतपूर्व तरीके से सक्रिय रही। सभी चैनलों पर बाकायदे फांसी के लिए एक माहौल बनाया गया और बीच-बीच में हो रहे ”आतंकी” हमलों को ऐसे चलाया गया गोया फांसी का विरोध करने वालों के कारण ही ”आतंकियों” के हौसले बढ़ रहे हैं। फांसी के बाद इंडिया टुडे (जिस समूह का चैनल आजतक है) ने तो बाकायदे फांसी विशेषज्ञ बिरयानी ब्रांड अधिवक्ता उज्ज्वल निकम का एक विशेष कॉलम ही छाप दिया जिसका शीर्षक बड़ा भयावह था: “A Death most deserving”.
हमारी निगाह में तो ये चैनल राष्ट्रवाद के प्रवक्ता हैं, जबकि सरकार की निगाह में ये चैनल राष्ट्रवाद-विरोधी हैं। ऐसा क्यों? इस विडंबना को दो तरह से समझिए। पहला, यह नोटिस याकूब के मसले पर फांसी का विरोध करने वाले लोगों, संस्थानों और वैकल्पिक मंचों के पैर के नीचे की ज़मीन को खींच कर उन्हें मुख्यधारा के विमर्श से बहरिया रहा है और उस ज़मीन पर इन चैनलों को खड़ा करने की कोशिश कर रहा है। दूसरे, यह नोटिस एक हिदायत है कि मीडिया संस्थान खुद किसी सरकारी फैसले के खिलाफ़ तो न ही बोलें, ऐसा बोलने वालों को दिखाएं भी नहीं, भले ही वह मुकदमे में प्रतिवादी का वकील क्यों न हो। दरअसल, एक नोटिस से दो निशाने साधे गए हैं। आप इस मसले पर मुंह खोलने वाले कुछ बड़े नामों को ध्यान से देखिए, सबकी रोज़ी-रोटी इन चैनलों की पासपोर्ट साइज़ पंचायतों पर टिकी है। चैनलों का बचाव कर के वे तो बस नमक का हक़ अदा कर रहे हैं।
बचे हम, जो चैनलों के भी आलोचक हैं और सरकार के भी। हमारा क्या होगा? सत्ता जानती है कि वो जब चाहे हमें मसल देगी। घर से उठवा लेगी। ज़बान काट देगी। तेल छिड़क कर जलवा देगी। वो तो बस संकेत दे रही है कि देखो बेटा, हमने अंबानी के चैनल को जब नहीं बख्शा तो तुम किस खेत की मूली हो। चैनलों को भेजा गया नोटिस प्रकारांतर से स्वतंत्र आवाज़ वाले पत्रकारों और नागरिकों के लिए आखिरी हिदायत है। मुझे शक़ है कि जल्द ही मामला नोटिसों से आगे जाएगा और सबसे सॉफ्ट टारगेट को पकड़ा जाएगा। मुझे भरोसा है कि जो संपादक-पत्रकार आज सरकारी नोटिस पर चैनलों के साथ खड़े हैं, वे किसी स्वतंत्र आवाज़ पर दमन के मामले में बिलकुल चुप हो जाएंगे।
तीन समाचार चैनलों को केंद्र सरकार के नोटिस पर बीईए की भावना आहत हुई है। उसने बयान जारी कर के इसकी निंदा की है। बीईए यानी समाचार चैनलों के संपादकों का संगठन। याद करें कि इसी बीईए में कोयले से दगाये सुभाष चंद्रा के मैनेजर और हिसार सहवासी सुधीर चौधरी कोषाध्यक्ष हुआ करते थे। जब तुर्कमान गेट पर एक महिला शिक्षक को पीटने वाला मामला घटा था जिसके जिम्मेदार सुधीर चौधरी ही थे, तब उन्हें बीईए का कोषाध्यक्ष बनाए रखा गया था। कोयला घोटाला में रिश्वतखोरी का स्टिंग सामने आने के बाद इन्हें आइआइएमसी यानी भारतीय जनसंचार संस्थान के अलुमनाइ संघ का अध्यक्ष नामित किया गया। जब हल्ला मचा तो इन्हें चुना नहीं गया, लेकिन इनकी जगह कथित यौन दुराचार और यूएनआइ घोटाले में लिप्त मुकेश कौशिक को बैठा दिया गया।
तब तक हालांकि मीडिया के एक बड़े चेहरे पुण्य प्रसून वाजपेयी चौधरी का बचाव कर के अपनी नैतिक ज़मीन खो चुके थे। उन्होंने ज़ी न्यूज़ के प्राइम टाइम पर चौधरी की गिरफ्तारी को ”इमरजेंसी” बता दिया। यह बात अलग है कि इसके बाद वे आज तक चले गए।
आज केंद्र सरकार से नोटिस मिलने पर जब ऐसे चेहरे, ऐसे संगठन उसका विरोध करते हैं और इसे पत्रकारिता का आपातकाल बताते हैं, तो मुझे हंसी क्यों न आए? आप एक दलाल की गिरफ्तारी को भी इमरजेंसी बताएंगे, केंद्र के डंडे को भी। आप एक दलाल को कोषाध्यक्ष बनाएंगे और नोटिस का विरोध करेंगे। यह जानते हुए कि आने वाली सत्ता फासिस्ट है, आप उसे लाने के लिए जान लड़ा देंगे। इन बड़े लोगों के कितने मुंह हैं भाई? मुंह के अलावा ये लोग और कहां-कहां से बोलते हैं? ये लोग जैसा बोये हैं, वैसा ही काट रहे हैं। महाभोज आपने छका था, उलटी भी आप ही करिए। हमारा हाज़मा तो दरुस्त है।
लेखक-पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव के एफबी वाल से