यशवंत सिंह
चितरंजन भइया सिर्फ मेरे लिए ही नहीं, हजारों हजार लोगों के लिए प्रेरक थे। ऐसा विनम्र, बेबाक, जीवट और योद्धा व्यक्तित्व जीवन में मैंने कम ही देखा। सही कहूं तो एकतरह से आम लोगों के भगवान थे, गरीबों वंचितों शोषितों के मसीहा थे। मेरे जीवन पर उनकी अमिट छाप रही है।
एक दफे वे लखनऊ में हजरतगंज गांधी प्रतिमा के नीचे कुछ जनपक्षधर मुद्दों को लेकर आमरण अनशन पर थे। भीषण ठंढ का वक़्त था। दिन भर खूब भीड़ जमा रहती। भाषण माइक सब चलता बजता रहता। रात को चितरंजन भाई के पास बस गिने चुने एक दो लोग सोने के लिए रहते।
तब अपन प्रचंड रूप से बिगड़ैल थे। बेरोजगार भी थे। रात होते ही चितरंजन भइया के पास जाकर सो जाता, बॉडीगार्ड की तरह। रात में जब कभी जगते वो तो मुझे अपने बगल में सिकुड़ कर सोते पाते। तब वो मुझे कायदे से कम्बल रजाई ओढ़ा देते। सुबह जब जंता आने लगती तो अपन चुपचाप निकल लेते। ये घटनाक्रम कई रात चलता रहा।
मेरे अवचेतन में उनकी सुरक्षा को लेकर एक चिंता भाव था जिसे खुद रात में मौजूद रहकर अपने आप को आश्वस्त करता। अपन को रात काटनी होती। चाहें लखनऊ विश्वविद्यालय के नरेंद्र देव हॉस्टल में सोकर काटते या गांधी प्रतिमा के नीचे, क्या फरक पड़ना था। पर चितरंजन भइया का जीवन बहुमूल्य था। उनकी चिंता मुझे थी।
चितरंजन भइया ये किस्सा बेहद हुलस के साथ कई जगहों पर कई लोगों से शेयर किए थे। मेरी तारीफ में। मैं झेंप जाता और सोचता कि भइया मेरे छोटे से काम को कितना बड़ा बनाकर बताते हैं और मुझे महानता बोध से भर देते हैं। छोटी छोटी चीजों में खुशियां तलाशने खुशियां बतियाने छोटी छोटी घटनाओं से प्रेरित कर देने वाले वो अदभुत जादूगर वक्ता थे।
चितरंजन जी जनता के आदमी थे। उनने अपने लिए कभी नहीं जिया। पूरा जीवन दूसरों को न्याय, सम्मान, अधिकार दिलाने के लिए लड़े। वे मेरे लिए ही नहीं बल्कि पिछले कई दशकों के करोड़ों करोड़ लोगों के लिए बहुमूल्य थे। उनके दिलों में थे। ऐसे लोग मरा नहीं करते। ये थोड़े थोड़े हिस्से में हमारे आपके भीतर समा जाते हैं, सदा के लिए!
आपको आखिरी लाल सलाम कामरेड!
भड़ास एडिटर यशवंत सिंह की एफबी वॉल से.
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