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सुख-दुख

मीडिया की हालत तो असली आपातकाल से भी ज़्यादा ख़राब नज़र आ रही है : श्रवण गर्ग

श्रवण गर्ग

बुखार और आपातकाल सूचना देकर नहीं आते, लक्षणों से ही समझना पड़ेगा…. कुछ लोगों को ऐसा क्यों महसूस हो रहा है कि देश में आपातकाल लगा हुआ है और इस बार क़ैद में कोई विपक्ष नहीं बल्कि पूरी आबादी है? घोषित तौर पर तो ऐसा कुछ भी नहीं है। न हो ही सकता है। उसका एक बड़ा कारण यह है कि पैंतालीस साल पहले जो कुछ हुआ था उसका विरोध करने वाले जो लोग तब विपक्ष में थे उनमें अधिकांश इस समय सत्ता में हैं। वे निश्चित ही ऐसा कुछ नहीं करना चाहेंगे। हालाँकि इस समय विपक्ष के नाम पर देश में केवल एक परिवार ही है। इसके बावजूद भी आपातकाल जैसा क्यों महसूस होना चाहिए! कई बार कुछ ज़्यादा संवेदनशील शरीरों को अचानक से लगने लगता है कि उन्हें बुखार है।घरवाले समझाते हैं कि हाथ तो ठंडे हैं फिर भी यक़ीन नहीं होता। थर्मामीटर लगाकर बार-बार देखते रहते हैं। आपातकाल को लेकर इस समय कुछ वैसी ही स्थिति है।

देश अपने ही कारणों से ठंडा पड़ा हुआ हो सकता है पर कुछ लोगों को महसूस हो रहा है कि आपातकाल लगा हुआ है क्योंकि उन्हें लक्षण वैसे ही दिखाई पड़ रहे हैं। लोगों ने बोलना,आपस में बात करना, बहस करना,नाराज़ होना सबकुछ बंद कर दिया है।किसी अज्ञात भय से डरे हुए नज़र आते हैं।मास्क पहने रहने की अनिवार्यता ने भी कुछ न बोलने का एक बड़ा बहाना पैदा कर दिया है।संसद-विधानसभा चाहे नहीं चल रही हो पर राज्यों में सरकारें गिराई जा रही हों ,पेट्रोल-डीज़ल के दाम हर रोज़ बढ़ रहे हों, अस्पतालों में इलाज नहीं हो रहा हो, किसी भी तरह की असहमति व्यक्त करने वाले बंद किए जा रहे हों और उनकी कहीं सुनवाई भी नहीं हो रही हो—जनता इस सब के प्रति तटस्थ हो गई है।वह तो इस समय अपनी ‘प्रतिरोधक’ क्षमता बढ़ाने में लगी है जो कि आगे सभी तरह के संकटों में काम आ सके।

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अपवादों को छोड़ दें तो मीडिया की हालत तो असली आपातकाल से भी ज़्यादा ख़राब नज़र आ रही है ।वह इस मायने में कि आपातकाल में तो सूचना और प्रसारण मंत्री विद्या चरण शुक्ल का मीडिया पर आतंक था पर वर्तमान में तो वैसी कोई स्थिति नहीं है।जैसे-जैसे कोरोना के ‘पॉज़िटिव’मरीज़ बढ़ते जा रहे हैं वैसे-वैसे मीडिया का एक बड़ा वर्ग और ज़्यादा ‘पॉज़िटिव’ होता जा रहा है।आपातकाल के बाद आडवाणी जी ने मीडिया की भूमिका को लेकर टिप्पणी की थी कि :’आपसे तो सिर्फ़ झुकने के लिए कहा गया था ,आप तो रेंगने लगे।’ आडवाणी जी तो स्वयं ही इस समय मौन हैं,उनसे आज के मीडिया की भूमिका को लेकर कोई भी प्रतिक्रिया कैसे माँगी जा सकती है ?

हम ऐसा मानकर भी अगर चलें कि देश के शरीर में बुखार जैसा कुछ नहीं है केवल उसका भ्रम है तब भी कहीं तो कुछ ऐसा हो रहा होगा जो हमारे लिए कुछ बोलने और नाराज़ होने की ज़रूरत पैदा करता होगा ! उदाहरण के लिए करोड़ों प्रवासी मज़दूरों की पीड़ाओं को ही ले लें ! उसे लेकर व्यवस्था के प्रति जनता का गुमसुम हो जाना क्या दर्शाता है ? किसकी ज़िम्मेदारी थी उनकी मदद करना ? कभी ज़ोर से पूछा गया क्या ? सोनू सूद की जय-जयकार में ही जो कुछ व्यवस्था में चल रहा है उसके प्रति प्रसन्नता ढूँढ ली गई ?

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सर्वोदय आंदोलन के एक बड़े नेता से जब पूछा कि वे लोग जो जे पी के आंदोलन में सक्रिय थे और आपातकाल के दौरान जेलों में भी बंद रहे इस समय प्रतिमाओं की तरह मौन क्यों हैं ? क्या इस समय वैसा ही ‘अनुशासन पर्व’ मन रहा है जैसी कि व्याख्या गांधी जी के प्रथम सत्याग्रही विनोबा भावेजी ने आपातकाल के समर्थन में 1975 में की थी ? वे बोले : ‘कोई कुछ भी बोलना नहीं चाहता।या तो भय है या फिर अधिकांश संस्थाएँ सरकारी बैसाखियों के सहारे ही चल रही हैं।’ किसी समय के ‘कार्यकर्ता’ इस समय ‘कर्मचारी’ हो गए हैं।सत्तर के दशक के अंत में जब कांग्रेस में विभाजन का घमासान मचा हुआ था ,मैंने विनोबा जी के पवनार आश्रम (वर्धा) में उनसे पूछा था देश में इतना सब चल रहा है ‘बाबा’ कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं देते ? उन्होंने उत्तर में कहा था :’ क्या चल रहा है ? क्या सूरज ने निकलना बंद कर दिया है या किसान ने खेतों पर जाना बंद कर दिया ? जिस दिन यह सब होगा बाबा भी प्रतिक्रिया दे देंगे।’

आपातकाल के दिनों और उसके ख़िलाफ़ किए गए संघर्ष का स्मरण करते रहना और उस समय के लोगों की याद दिलाते रहना इसलिए ज़्यादा ज़रूरी हो गया है कि इस समय दौर स्थापित इतिहासों को बदलकर नए सिरे से लिखे जाने का चल रहा है।आपातकाल के जमाने की कहानियों को किसी भी पाठ्यपुस्तक में नहीं बताया जाएगा।गांधी की प्रतिमाएँ इसलिए लगाई जाती रहेंगी क्योंकि दुनिया में हमारी पहचान ही उन्हीं की छवि से है।आज की सत्ता के लिए गांधी का नाम एक राजनीतिक मजबूरी है ,कोई नैतिक ज़रूरत नहीं।गांधी के आश्रम भी इसीलिए ज़रूरी हैं कि हम पिछले सात दशकों में ऐसे और कोई तीर्थस्थल नहीं स्थापित कर पाए।डर इस बात का नहीं है कि हमें बुखार नहीं है फिर भी बुखार जैसा लग रहा है।डर इस बात का ज़्यादा है कि सही में तेज बुखार होने पर भी हम कहीं बर्फ़ की पट्टियाँ रख-रखकर ही उसे दबाने में नहीं जुट जाएँ।जब बहुत सारे लोग ऐसा करने लगेंगे तब मान लेना पड़ेगा कि आपातकाल तो पहले से ही लगा हुआ था ।बुखार और आपातकाल दोनों ही सूचना देकर नहीं आते।लक्षणों से ही समझना पड़ता है।वैसे भी अब किसी आपातकाल की औपचारिक घोषणा नहीं होने वाली है।सरकार भी अच्छे से जान गई है कि दुनिया के इस सबसे लम्बे तीन महीने के लॉक डाउन के दौरान एक सौ तीस करोड़ नागरिक स्वयं ही देश की ज़रूरतों के प्रति कितने समझदार और अपने कष्टों को लेकर कितने आत्मनिर्भर हो गए हैं!

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आपातकाल नहीं चाहिए तो फिर कुछ बोलते रहना बेहद ज़रूरी है!

कुछ पर्यटक स्थलों पर ‘ईको पाइंट्स’ होते हैं जैसी कि मध्य प्रदेश में प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान माण्डू और सतपुड़ा की रानी के नाम से प्रसिद्ध पचमढ़ी के बारे में लोगों को जानकारी है।पर्यटक इन स्थानों पर जाते हैं और ईको पाइंट पर गाइड द्वारा उन्हें कुछ ज़ोर से बोलने को कहा जाता है।कई बार लोग झिझक जाते हैं कि वे क्या बोलें ! कई बार ज़ोर से बोल नहीं पाते या फिर जो कुछ भी बोलना चाहते हैं ,नहीं बोलते।आसपास खड़े लोग क्या सोचेंगे ,ऐसा विचार मन में आता है।जो हिम्मत कर लेते हैं उन्हें बोले जाने वाला शब्द दूर कहीं चट्टान से टकराकर वापस सुनाई देता है।पर जो सुनाई देता है वह बोले जाने वाले शब्द का अंतिम सिरा ही होता है।शब्द अपने आने-जाने की यात्रा में खंडित हो जाता है।ईको पाइंट पर बोले जाने वाले शब्द के साथ भी वैसा ही होता है जैसा कि जनता द्वारा सरकारों को दिए जाने वाले टैक्स या समर्थन को लेकर होता है।जनता टैक्स तो पूरा देती है पर उसका दिया हुआ रुपया जब ऊपर टकराकर मदद के रूप में उसी के पास वापस लौटता है तो बारह पैसे रह जाता है।ऐसा तब राजीव गांधी ने कहा था।

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बहरहाल, ईको पाइंट पर पहुँचकर कुछ लोग अपने मन में दबा हुआ कोई शब्द बोल ही देते हैं और बाक़ी सब उसके टकराकर लौटने पर कान लगाए रहते हैं।जैसा कि आमतौर पर सड़कों-बाज़ारों में भी होता है। बोलनेवाला यही समझता है कि बोला हुआ शब्द केवल सामने कहीं बहुत दूर स्थित चट्टान या बिंदु को ही सुनाई पड़ने वाला है और वहीं से टकराकर वापस भी लौट रहा है ।यह पूरा सत्य नहीं है।ईको पाइंट के सामने खड़े होकर साहस के साथ बोला गया शब्द उस कथित चट्टान या बिंदु तक सीधे ही नहीं पहुँच जाता।वह अपनी यात्रा के दौरान एक बड़ी अंधेरी खाई ,छोटी-बड़ी चट्टानों, अनेक ज्ञात-अज्ञात जल स्रोतों,झाड़ियों और वृक्षों ,पशु-पक्षियों यानी कि ब्रह्मांड के हर तरह से परिपूर्ण एक छोटे से अंश को गुंजायमान करता है।ऐसा ही वापस लौटने वाले शब्द के साथ भी होता है।

आज तमाम नागरिक अपने-अपने शासकों ,प्रशासकों और सत्ताओं के ईको पाइंट्स के सामने खड़े हुए हैं।गाइड्स उन्हें बता रहे हैं कि ज़ोर से आवाज़ लगाइए ,आपकी बात मानवीय चट्टानों तक पहुँचेगी भी और लौटकर आएगी भी ,यह बताने के लिए कि बोला हुआ ठीक जगह पहुँच गया है।पर बहुत कम लोग इस तरह के ईको पाइंट्स के सामने खड़े होकर अपने ‘मन की बात’ बोलने की हिम्मत दिखा पाते हैं ।अधिकांश तो तमाशबीनों की तरह चुपचाप खड़े रहकर सबकुछ देखते और सुनते ही रहते हैं।वे न तो बोले जाने वाले या फिर टकराकर लौटने वाले शब्द के प्रति अपनी कोई प्रतिक्रिया ही व्यक्त करते हैं।वे मानकर ही चलते हैं कि बोला हुआ शब्द गूँगी और निर्मम चट्टानों तक कभी पहुँचेगा ही नहीं।पहुँच भी गया तो क्षत-विक्षत हालत में ही वापस लौटेगा।यह अर्ध सत्य है।

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सच तो यह है कि साहस करके कुछ भी बोलते रहना अब बहुत ही ज़रूरी हो गया है।अगर ऐसा नहीं किया गया तो हम भी चट्टानों की तरह ही क्रूर, निर्मम और बहरे हो जाएँगे।तब हमें भी किसी दूसरे या अपने का ही बोला हुआ कभी सुनाई नहीं पड़ेगा।बोला जाना इसलिए ज़रूरी है कि ईको पाइंट्स और हमारी प्रार्थनाओं के शब्दों को अपनी प्रतिक्रिया के साथ वापस लौटाने वाली चट्टानों के बीच एक बहुत बड़ा सजीव संसार भी उपस्थित है।यह संसार हर दम प्रतीक्षा में रहता है कि कोई कुछ तो बोले।इस संसार में एक बहुत बड़ी आबादी बसती है जिसमें कई वे असहाय लोग भी होते हैं जिन्हें कि पता ही नहीं है कि कभी कुछ बोला भी जा सकता है ,चट्टानों को भी सुनाया जा सकता है, बोले गए शब्दों की प्रतिध्वनि से संगीत का रोमांच भी उत्पन्न हो सकता है।वापस लौटने वाला शब्द चाहे जितना भी खंडित हो जाए, यह भी कम नहीं कि वह कहीं जाकर टकरा तो रहा है, वहाँ कोई कम्पन तो पैदा कर रहा है। अगर हम स्वयं ही एक चट्टान बन गए हैं तो फिर शुरुआत कभी-कभी खुद के सामने ही बोलकर भी कर सकते हैं।हमें इस बात की तैयारी भी रखनी होगी कि जब हम बोलने की कोशिश करेंगे,हमें बीच में रोका भी जाएगा।याद किया जा सकता है कि गुजरे दौर के मशहूर अभिनेता अमोल पालेकर जब पिछले साल फ़रवरी में मुंबई में एक कार्यक्रम में अभिव्यक्ति की आज़ादी को दबाने की कोशिशों की आलोचना कर रहे थे तो किस तरह से उन्हें बीच में ही रोक दिया गया था और उन्हें अपना बोलना बंद करना पड़ा था।आपातकाल की शुरुआत ऐसे ही होती है।उसे रोकने के लिए बोलते रहना ज़रूरी है।

श्रवण गर्ग देश के वरिष्ठ पत्रकार हैं। कई बड़े अखबारों के प्रधान संपादक रह चुके हैं।

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