फेसबुक पर मैं जैसा दिखता हूं, वैसा हूं नहीं। मैं बड़ा चापलूस टाइप का व्यक्ति हुआ करता था। अनायास ही किसी मतलब के व्यक्ति की तारीफ कर देना मेरी आदत में शुमार था। लेकिन मेरी इस चापलूसी से मुझे कोई लाभ नहीं मिला। कारण। चापलूसी की कला इतनी विकसित हो चुकी थी कि वहां मेरे लिए कोई स्पेस नहीं रह गया था।
आज मैं जहां हूं, वह फ्लाप चापलूसों का अड्डा है। यहां खारिज कर दिए गए चापलूस हैं, जिन्होंने आलोचना का दामन थाम रखा है। वैसे आलोचना भी एक प्रकार की चापलूसी है। जैसे, यदि मैं सपा की आलोचना कर रहा हूं तो जाने-अनजाने भाजपा, बसपा और कांग्रेस की चापलूसी कर रहा हूं। यदि मैं भाजपा या मोदी की आलोचना कर रहा हूं तो जाने-अनजाने सपा की चापलूसी कर रहा हूं। ऐसे बहुत सारे चापलूस हमारे इर्द-गिर्द हैं, जिन्हें आप आसानी से पहचान सकते हैं। मेरा झगड़ा प्राय: चापलूसों से ही हुआ है, क्योंकि वे मुझे अपना प्रतिद्वंद्वी मानते रहे हैं।
आजकल कुछ लोग दैनिक जागरण की चापलूसी करने के लिए मेरी आलोचना कर देते हैं, क्योंकि मैं कदम-कदम पर दैनिक जागरण की आलोचना करता रहता हूं। चापलूसी शब्द को जब निगेटिब शब्द बना दिया गया तो चापलूसी का आलोचना के रूप में अवतार हुआ। बड़ा गड्ड-मड्ड हो गया है सब। अब आपको संजय गुप्ता की चापलूसी का मौका नहीं मिल रहा है, तो चिंता की कोई बात नहीं। आप मजीठिया वेतनमान मांगने वालों की आलोचना कर दें। चापलूसी अपने आप हो जाएगी और आप चापलूस कहलाने से बच जाएंगे। आज चापलूसी करना इतना कठिन हो गया है कि बड़े-बड़े चापलूसों के तोते उड़ गए हैं। अब ऐसा समय आ गया है कि चापलूसी पर शोध किए जाने की जरूरत है। मैं तो यह कहता हूं कि चापलूसी को अकादमिक पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए। आलोचकों के बिना यह देश चल सकता है, लेकिन चापलूसों के बिना नहीं। मेरे जैसे लोग बिना उचित प्रशिक्षण के चापलूसी कर ही नहीं सकते।
श्रीकांत सिंह के एफबी वाल से