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शिवसेना सांसद ही शिवसेना संस्थापक पर फिल्म लिखेगा तो निष्पक्षता की उम्मीद क्यों रखें!

Nitin Thakur : शिवसेना का सांसद ही शिवसेना के संस्थापक पर फिल्म लिखेगा तो उससे आप कितना निष्पक्ष रहने की उम्मीद करेंगे? तो बस, संजय राउत ने बाल ठाकरे के नाम पर जो एक ‘पृथ्वीराज रासो’ रच दिया है उसी का नाम फिल्म ‘ठाकरे’ है, मगर फिल्म बनानेवालों से एक गफलत हो गई। पूरी फिल्म में ठाकरे के जीवन वृत्त से जो संदेश प्रसारित होता है वो उन्हें उत्तर-दक्षिण भारतीय विरोधी, गैर-मराठी भाषा विरोधी और मुसलमान विरोधी दिखाता है पर जब ठाकरे का किरदार एक उत्तर भारतीय अभिनेता निभाए, जो मुसलमान हो और आपको उसके संवाद भी हिंदी में लिखने पड़े हों तो ये बाज़ार और कला के बहुसंस्कृतिवाद की क्षेत्रवादी-संप्रदायवादी राजनीति पर साफ जीत है।

बाल ठाकरे की विरासत संभालनेवाले समझ ही नहीं पाए कि वो अपने ही पितृपुरुष की एकतरफा राजनीति का आज के बदले हालात में क्रियाकर्म होते दिखा रहे हैं। महाराष्ट्र तक सीमित रहनेवाली शिवसेना को आज विस्तार के लिए देशभर में शाखाएं खोलनी पड़ रही हैं, उसके नेताओं को हिंदी में बोलना ही पड़ता है, वोट के राजनीतिशास्त्र में उन्हें भी मुस्लिम नेताओं को अपने संगठन में जगह देनी पड़ी है, तीसरी पीढ़ी के आदित्य ठाकरे गैर मराठियों को भगाने के बारे में एक बयान देने से भी बचते फिरते हैं, क्योंकि उनके सामने कुछ साल पहले ऐसी ही गुंडई करके फेल हुए उनके चाचा राज ठाकरे का उदाहरण है जो कई मायनों में आदित्य के पिता की तुलना में बाल ठाकरे स्टाइल राजनीति के ज़्यादा बड़े दावेदार हैं।

फिल्म में बहुत सारे तथ्यों को सुविधानुसार दरकिनार किया गया है जिन्हें रचनात्मक छूट के नाम पर जस्टिफाई नहीं किया जा सकता। मसलन फ्री प्रेस जर्नल अखबार से कार्टूनिस्ट के तौर पर जब वो इस्तीफा देते हैं तो उन्हें बड़े नायक की तरह फिल्माया गया है, जबकि उस वक्त चार-पांच लोग एक साथ नौकरी छोड़कर गए थे जिनमें एक जॉर्ज फर्नांडीज़ भी थे। सबने मिलकर एक अखबार भी चलाने का असफल प्रयास किया था।

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फिल्म नहीं बताती कि कैसे बॉम्बे के मेयर डॉ हेमचंद्र गुप्ते जो बाल ठाकरे के बेहद खास आदमी थे 1976 में पार्टी को छोड़ गए। उन्होंने ठाकरे एंड पार्टी पर हिंसा, पैसे पर ज़्यादा ज़ोर देने और इंदिरा की इमरजेंसी का समर्थन करने का इल्ज़ाम लगाया था। ये सब जानते हैं कि गिरफ्तारी से बचने के लिए बाल ठाकरे ने आपातकाल का समर्थन किया था जबकि कांग्रेस के दूसरे प्रतिद्वंद्वी वापमंथी और संघी जेल जा रहे थे। फिल्म ने ठाकरे के आपातकाल समर्थन को भी अजीब से ढंग में जस्टिफाई किया। राजनीति समझने वालों को मालूम है कि कांग्रेस के सामने बाल ठाकरे ने खुद को ऐसे व्यक्ति के तौर पर पेश किया जो इंदिरा के प्रतिद्वंद्वियों से निबट लेगा।

फिल्म में ये भी नहीं दिखाया गया कि ठाकरे मंडल कमीशन के विरोधी थे और इसी के चलते उनके पुराने साथी छगन भुजबल भी शिवसेना छोड़ गए। नब्बे के दशक में जब उन्हें अपनी पार्टी के फलक का विस्तार करना था तो उन्होंने हिंदुत्व का लबादा ओढ़ लिया। वैसे भी क्षेत्रवाद के कट्टरपन के बाद उन्हें धार्मिक कट्टरपंथ की तरफ बढ़ना ही था। यूं भी मुंबई में प्रभुत्व की लड़ाई के दौरान उनकी राय मुसलमानों को लेकर अच्छी बननी भी नहीं थी। बाबरी विध्वंस के बाद मुंबई में दंगे भड़कने में भी उनका नाम आया। साल 1999 में वो इस मुल्क के पहले नागरिक बने जिन्हें वोट देने या चुनाव लड़ने के अधिकार से छह साल के लिए वंचित कर दिया गया। किसी लोकतंत्र में इससे बडी कोई सजा हो भी नहीं सकती थी पर वो लोकतंत्र को मानते कहां थे। फिल्म में भी नवाज़ुद्दीन के मुंह से ये बात साफ कहलवाई गई है और ज़ाहिराना तौर पर तो उनके विचार हमारी पीढ़ी जानती ही है।

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उनके कुछ महान विचार पढ़िए-

एशिया वीक से ठाकरे ने कहा था कि मैं हिटलर का बहुत बड़ा प्रशंसक हूं और मुझे ऐसा कहने में कोई शर्म नहीं। मैं नहीं कहता कि मैं उसके सारे तरीकों का हिमायती हूं लेकिन वो शानदार संगठनकर्ता और वक्त था और मुझे लगता है कि उसमें और मुझमें बहुत सी चीज़ें एक जैसी हैं। भारत को एक तानाशाह चाहिए।

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1993 में एक इंटरव्यू में बोले- इसमें कुछ गलत नहीं अगर मुसलमानों से वैसे ही बर्ताव किया जाए जैसे जर्मनी में नाज़ी यहूदियों के साथ करते थे।

1992 में कहा- अगर आप मीन काम्फ (हिटलर की आत्मकथा) उठाएं और यहूदी शब्द की जगह मुसलमान रख दें तो समझ जाइए वो क्या है जिसमें मैं भरोसा करता हूं।

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2007 में बोले- हिटलर ने कई क्रूर हरकतें की हैं लेकिन वो कलाकार था और मैं इस बात के लिए उसका प्रशंसक हूं। उसमें पूरे देश को लेकर चलने की ताकत थी, भीड़ उसके साथ थी। आपको समझना पड़ेगा कि उसमें क्या जादू था। वो चमत्कारिक था हालांकि यहूदियों की हत्या गलत है, लेकिन अच्छी बात ये है कि वो कलाकार था। उसमें कुछ अच्छी बातें थीं और कुछ बुरी, मुझमें भी कुछ गुण हैं और कुछ दोष।

चलते-चलते एक बात बता दूं कि कार्टूनिस्ट के तौर पर जिस डेविड लो से वो सबसे ज़्यादा प्रभावित थे वो खुद पूरी ज़िंदगी नाज़ी और फासिस्ट राजनीति पर व्यंग्य चित्र बनाते हुए मर गया था जबकि बाल ठाकरे हिटलर प्रेमी थे।

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बाल ठाकरे आतंकवाद के खिलाफ हिंदुओं को सुसाइड बॉम्बर बनने के लिए आह्वान करनेवालों में भी रहे, ये और बात है कि उन्होंने अपने बेटे,पोतों, नातियों से इसकी शुरूआत करके उदाहरण पेश नहीं किया। मुसलमानों को तो 2007 में उन्होंने हरा ज़हर कहा ही थी जिसके बाद उन्हें गिरफ्तारी से बचने के लिए जमानत लेनी पड़ गई। फिल्म ही दिखाती है कि मुसलमानों को लेकर उनकी नफरत कितनी गहरी रही।

इंडिया टुडे से बाल ठाकरे ने कहा था कि मुसलमान कैंसर की तरह फैल रहे हैं और उनका इलाज भी कैंसर की ही तरह करना चाहिए। देश को मुसलमानों से बचाना चाहिए और पुलिस को उनकी (हिंदू महासंघ) मदद करनी चाहिए, ठीक वैसे ही जैसे पंजाब की पुलिस खालिस्तानियों से हमदर्दी रखती थी।
अब ये बात और है कि वो कभी-कभी अपने ही विचार से भटक जाते थे, मसलन 1998 में वो कह देते हैं कि हमें मुसलमानों से ऐसा बर्ताव करना चाहिए जैसे वो हम में से ही एक हैं। 2006 के मुंबई ट्रेन ब्लास्ट के बाद मुंबई के मुसलमानों के रिस्पॉन्स को देखकर भी वो उनकी तारीफ किए बिना नहीं रहे।

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वैसे।अगर फिल्म पर अपनी राय दूं तो एकदम एकतरफा फिल्म है जिसे देखकर लगता है मानो बाल ठाकरे ने कोई अश्वमेध का घोड़ा छोड़ा था और वो घोड़ा बिना रुके थके मुंबई विधानसभा में सीएम की कुरसी के पास जाकर आराम से खड़ा हो गया। एक आंदोलन के दौरान हिंसा में ठाकरे को हुई जेल को बहुत बड़े संघर्ष की तरह दिखाया गया है जबकि ठाकरे के खिलाफ कितने ही मुकदमे दर्ज हुए पर उन्हें कभी आगे नहीं बढ़ाया गया। फिल्म में भी मुंबई पुलिस वालों को ठाकरे के प्रति हमदर्दी जताते धड़ल्ले से दिखाया गया है।

हां, फिल्म में एक जगह बाल ठाकरे इंदिरा गांधी के सामने कहते हैं कि मैं जय हिंद, जय महाराष्ट्र बोलता हूं तो पहले हिंद आता है। इस संवाद से संदेश जाता है मानो बाल ठाकरे के लिए देश पहले है लेकिन फिर मुझे 2009 याद आता है जब उन्होंने सचिन तेंदुल्कर की आलोचना इसलिए की थी क्योंकि उन्होंने कहा था वो महाराष्ट्रियन से पहले भारतीय हैं!!

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लेखक नितिन ठाकुर सोशल मीडिया के चर्चित लेखक हैं और आजतक न्यूज चैनल में कार्य कर चुके हैं.

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