शिवसेना सांसद ही शिवसेना संस्थापक पर फिल्म लिखेगा तो निष्पक्षता की उम्मीद क्यों रखें!

Nitin Thakur : शिवसेना का सांसद ही शिवसेना के संस्थापक पर फिल्म लिखेगा तो उससे आप कितना निष्पक्ष रहने की उम्मीद करेंगे? तो बस, संजय राउत ने बाल ठाकरे के नाम पर जो एक ‘पृथ्वीराज रासो’ रच दिया है उसी का नाम फिल्म ‘ठाकरे’ है, मगर फिल्म बनानेवालों से एक गफलत हो गई। पूरी फिल्म …

प्रधानमत्री नरेंद्र मोदी पर गुजराती में बन रही है फिल्म ‘हू नरेंद्र मोदी बनवा मांगू छू’

बॉलीवुड निर्देशक अनिल अनिल नरयानी का कहना है कि प्रधानमत्री नरेंद्र मोदी पर आधारित उनकी आने वाली गुजराती फिल्म ”हूं नरेन्द्र मोदी बनवा मांग छू” बच्चों के लिये बेहद प्रेरणाश्रोत होगी। अनिल नरयाणी इन दिनों फिल्म ”हू नरेंद्र मोदी बनवा मांगू छू” बना रहे हैं। अनिल नरयानी ने फिल्म की चर्चा करते हुये कहा, “‘हू नरेंद्र मोदी बनवा मांगू छू’ हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बचपन की कहानी पर आधारित है।

अविनाश दास की ‘अनारकली ऑफ आरा’ : पहले दिन गिनती के दर्शक पहुंचे

ये है भोपाल से पत्रकार अमित पाठे का रिव्यू….

रिलीज़ के पहले दिन स्क्रीन ऑडिटोरियम में दर्शक कोई 15-20 ही थे

Amit Pathe : “ये रंडी की ‘ना’ है भिसी (वीसी) साब.” ये वो महत्वपूर्ण डायलॉग है जिसपे फिल्म अनारकली ऑफ आरा पूरी होती है। ये वो ‘ना’ है जो हमने ‘पिंक’ मूवी में मेट्रो सिटी की वर्किंग गर्ल्स का ‘ना’ देखा था। अस्मिता और इज्जत बचाने के लिए नारी का मर्द को कहा जाने ‘ना’। आरा की अनारकली का ‘ना’ भी वैसा ही है। लेकिन बस वो बिहार के आरा की है, ऑर्केस्ट्रा में नाचती-गाती है।

धंधेबाज शाहरुख खान की मजबूरी समझिए….

Chandan Pandey : शाहरुख़ खान की शिकायत बेवजह हो रही है। मैं जिस गली में रहता हूँ उसमें अगर कोई गुंडा आ जाए और नए नियम बना दे तो शुरुआती विरोध के बाद मैं भी उसकी जी हुजूरी  में जाऊँगा ही जाऊँगा। गुंडों से डरना चाहिए। गुंडों के साथ सत्ता हमेशा रहती है। आप एक बार को गुंडे को हरा भी दें तो उसके साथ जो सत्ता है, जैसे भक्त पब्लिक, पुलिस, नेता-पनेता, वो आपको तड़पा देंगे, तड़पा तड़पा कर सजा देंगे। शाहरुख की गलती रत्ती भर भी नहीं है।

रजनीकांत की ‘कबाली’ और इरफान खान की ‘मदारी’ देखने लायक है या नहीं, दो पत्रकारों की ये राय पढ़िए

Om Thanvi : ‘कबाली’ देख कर आए हैं। मैं समीक्षा नहीं कर रहा। पर इतना कहूँगा कि निहायत बेतुकी, बेसिरपैर फ़िल्म है। हिंदी में यह चलेगी, मुझे शक़ है। रजनीकांत भले आदमी हैं। दक्षिण – ख़ासकर तमिलनाडु – के दर्शकों के लिए देवता हैं। लेकिन अभिनय की वजह से उतने नहीं, जितने अपनी स्टाइल-अदाओं के कारण। हिंदी में भी ऐसे बहुत-से सुपरस्टार स्टाइल-अदाओं से चले हैं। पर उन फ़िल्मों की सफलता में कथा-सम्वाद, गीत-संगीत, सहयोगी अभिनेता-अभिनेत्रियाँ साथ देते रहे।

‘उड़ता पंजाब’ में किरदारों और गल्‍प के नकलीपन ने गंदगी मचाई, ‘धनक’ एक अफ़सोस बन कर रह गई

Abhishek Srivastava : कोई ज़रूरी नहीं कि हर फिल्‍म यथार्थवादी हो, बल्कि मैं तो कहता हूं कि कोई भी फिक्‍शन यथार्थवादी क्‍यों हो। गल्‍प, गल्‍प है। बस, गल्‍प को बरतने की तमीज़ हो तो बेहतर है वरना गंदगी मच जाती है। कभी-कभार यह तमीज़ होते हुए भी जब रचनात्‍मक उड़ान पर बंदिश लगाई जाती है तो रचना अफ़सोस बनकर रह जाती है। Udta Punjab में किरदारों और गल्‍प के नकलीपन ने गंदगी मचाई है, तो नागेश कुकनूर खुलकर नहीं खेल पाए हैं इसलिए Dhanak एक अफ़सोस बन कर रह गई है।

‘सरबजीत’: एक अच्छे विषय पर बुरी फिल्म

Sushil Upadhyay : ज्यादातर अखबारों ने फिल्म ‘सरबजीत’ को पांच में से तीन स्टार दिए हैं। कल मेरे पास खाली वक्त था, फिल्म देख आया। इस फिल्म के बारे में कुछ बातों को लेकर जजमेंटल होने का मन कर रहा है। आखिर इस फिल्म को क्यों देखा जाए? खराब पंजाबी के लिए! बुरी उर्दू जबान के लिए! जो लोग पंजाबी नहीं जानते, उन्हें भी पता है कि ‘न’ को ‘ण’ में तब्दील करने से पंजाबी नहीं बन जाती। पाकिस्ताण, हिन्दुस्ताण, हमणे….जैसे शब्दों को बोलते हुए ऐश्वर्या राय निहायत नकली लगती हैं। उनकी तुलना में रणदीप और ऋचा के संवाद ज्यादा सधे हुए और भाषा का टोन पंजाबियों वाला हैं। ऐश्वर्या के ज्यादातर संवाद उपदेश की तरह लगते हैं। वे सरबजीत की बहन दलबीर के तौर पर किसी भी रूप में प्रभावी नहीं हैं।

‘लाल रंग’ में हुड्डा का अभिनय अपनी मिट्टी और भाषा में खिलकर जवान हो गया है

Abhishek Shrivastava : पहली झलक Randeep Hooda की मुझे आज तक याद है. रीगल में ‘D’ लगी थी. अपनी-अपनी बिसलेरी लेकर मैं और Vyalok शाम 7 बजे के शो में घुसे. संजोग से मैंने उसी वक्‍त ‘सीनियर इंडिया’ पत्रिका ज्वाइन की थी. ‘D’ का विशेष आग्रह इसलिए भी था क्‍योंकि Alok जी ने पहला अंक धमाकेदार निकालने को कहा था। प्‍लान था कि छोटा राजन का इंटरव्‍यू किया जाए। ‘D’ की रिलीज़ का संदर्भ लेते हुए स्‍टोरी और इंटरव्‍यू जाना था। पहले अंक के आवरण पर छोटा राजन की आदमकद तस्‍वीर के साथ एक्‍सक्‍लूसिव इंटरव्‍यू छपा, लेकिन मेरे लिए खबर ये नहीं थी।

रवीश कुमार को कैसी लगी फिल्म ‘वज़ीर’, पढ़िए…

क्रूर क्रूरतम होता जा रहा है । कमज़ोर को ही चुनौती है कि वो साहस दिखाये । क्रूरता को झेलते हुए मुस्कुराये । सत्ता और उसके नियम क्रूरता के प्रसार के लिए हैं । कमज़ोर सिर्फ उनकी चालों से शह की उम्मीद में मात खाता जा रहा है । हम जड़ होते जा रहे हैं । यथार्थ को समझते समझते हमने यथार्थ की वर्चुअल रियालिटी बना डाली है । दुनिया अगर ख़ुशगवार है तो वह सिर्फ विज्ञापनों में है । क्रूरता रोज बढ़ती जा रही है । उसका एक एकांत होता है । जहाँ कुछ लोग उसकी भेंट चढ़ते रहते हैं । हम इस दुनिया से क्रूरता कम नहीं कर सके।

फिल्मों ने किया देश को एकजुट : लेख टंडन

मुम्बई। भारतीय सिनेमा ने देश को एकजुट करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। पहले फ़िल्मों में एक बड़ा उद्देश्य होता था, लेकिन अब उददेश्य को लेकर नहीं, व्यावसायिक दृष्टि से फिल्में बनाई जा रही हैं, इससे आम आदमी सिनेमा से दूर होता जा रहा है। यह बात प्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक एवं पटकथा लेखक श्री लेख टंडन ने “भारतीय सिनेमा और सामाजिक यथार्थ” विषय पर आयोजित दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के दूसरे दिन अपने संबोधन में कहीं। मणिबेन नानावटी महिला महाविद्यालय और भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन 5-6 जनवरी को महाविद्यालय के सभागार में किया गया। अपने संबोधन में निर्देशक लेख टंडन ने कहा कि फिल्में समाज पर अपना गहरा प्रभाव छोडती हैं। भारत एक महान देश है जहां व्यक्ति को अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता है। अब यह तो फिल्मकार या साहित्यकार पर निर्भर है कि वह इस स्वतंत्रता का प्रयोग कैसे करता है।

‘हिंदी समय’ का इस बार का अंक सिनेमा पर केंद्रित

मित्रवर, सिनेमा एक ऐसी कला है जिसमें सारी कलाएँ आकर गलबहियाँ करती हैं। साहित्य, संगीत, चित्रकला, नृत्य, फोटोग्राफी सभी कलाएँ यहाँ मिल-जुलकर काम करती हैं। यही नहीं, सिनेमा में तकनीकि भी आकर कला के साथ ताल से ताल मिलाती नजर आती है। किसी एक फिल्म में दिखने वाले और न दिखने वाले हजारों लोगों की मेहनत शामिल होती है। ऐसी सामूहिकता किसी भी अन्य कला विधा में संभव नहीं। इसलिए यह अनायास नहीं है फिल्मों का जादू हम सब के सिर चढ़ कर बोलता है। हमने हिंदी समय (http://www.hindisamay.com) का इस बार का अंक सिनेमा पर केंद्रित किया है। हमें उम्मीद है कि हमारी यह विनम्र कोशिश आपको अपनी सी लगेगी।

आम आदमी का आक्रोश फूटा ‘सरकारी दफ्तर’ में

आम दिनों की तरह ‘सरकारी दफ्तर’ में गहमा-गहमी का माहौल था। बाबू अपने ढर्रे पर काम कर रहे थे। तभी परेशानहाल एक आम आदमी आया। सरकारी दफ्तर का चक्कर काटते परेशान हो चुके इस आम आदमी आक्रोश अचानक फूट पड़ा। आम आदमी के इस तेवर को देखकर सरकारी दफ्तर के तमाम लोग भी सन्न रह गए। दरअसल यह एक छोटा सा दृश्य था छत्तीसगढ़ भिलाई में पले-बढ़े युवा निर्देशक केडी सत्यम की हिंदी फिल्म ‘मुंबई डायरी’ का।