अनुपम मिश्र, अहिंसावादी मोहनदास करम चंद गांधी के अनुयायी हैं. ऐसे गांधीवादी अनुपम मिश्र, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के अभिनंदन ग्रंथ में छपे एक चित्र के जरिए मांस-मछली को रसोई का यम-नियम घोषित कर रहे हैं… और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की 150वीं जयंती वर्ष पर प्रकाशित स्मारिका ‘आचार्य पथ’ के पहले पन्ने पर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के चित्र के स्थान पर उनकी आवक्ष प्रतिमा को मालार्पण करती सोनिया गांधी को प्रमुखता दी गयी है…
इन दोनों घटनाओँ से मेरा दिल और दिमाग विचलित हो उठा है…सोनिया गांधी जो रोमन लिपि में स्क्रिप्ट न मिलने पर आज भी हिंदी नहीं बोल पाती हैं…वो सोनिया गांधी ‘आचार्य पथ’ परिवार पर विशेष कृपा कर रही हैं…आचार्य की मूर्ति का अनावरण सोनिया गांधी से करवा कर गदगद हो रहा है ‘आचार्य पथ’ परिवार. दो साल पहले प्रकाशित स्मारिका ‘आचार्य पथ’ को दिल्ली में अब बांटा जा रहा है…इसीलिए ही तो निकृष्ट नेता-मुख्यमंत्रियों के पैरों में बुजुर्ग साहित्यकार गिर रहे हैं…पहले तो मगध में एक ही घनानंद था…आज के भारत में तो अनेक घनानंद अलग-अलग शक्ल में खड़े हैं…!!!
‘…नेता विशेष, व्यक्ति विशेष की गुलामियत से आज के साहित्यकार न जाने कब मुक्त होंगे’
अपनी पीड़ा को अपने शब्दों में व्यक्त कर रहा हूं. किसी को बुरा लगे तो लगता रहे. मेरी किसी से कोई रंजिश नहीं है. सार्वजनिक हो चुकी बातों पर मेरी प्रतिक्रिया भर है वो भी कुछ इस तरहः-
भाद्रपद शुक्ल पक्ष सप्तमी, संवत् २०७२ तदानुसार २० सितम्बर २०१५.
दीनदयाल उपाध्याय मार्ग स्थित प्रवासी भवन.
अवसर था आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को समर्पित पुनः प्रकाशित अभिनंदन ग्रंथ के लोकार्पण का. निमंत्रण राकेश सिंह ने दिया था.
मैनेजर पाण्डेय, अनुपम मिश्र और रामबहादुर राय जैसी हस्तियों से एक साथ, एक जगह मिलने का लोभ था.
वायरल से बदन तप रहा था और दर्द से कपाल तड़क रहा था…लेकिन हिंदी साहित्य के विद्वज्जन के बीच बैठने का लोभ प्रवासी भवन की ओर खींच रहा था. कहते हैं न कि भगवान सत्यनारायण की कथा कहने और सुनने वाले को एक समान पुण्य मिलता है. सो मैं भी कथा सुनकर पुण्य लूटने वाले और गंगाजी का दर्शन-आचमन कर स्वर्ग पाने का लोभ रखने वाले की हैसियत से प्रवासी भवन पहुँच गया. प्रवासी भवन से कुछ कदम पहले ही मेरी आकांक्षा को झटका लगा. मैंने देखा कि राकेश सिंह सामने से आ रहे हैं…!!
मैंने पूछा, क्या आयोजन पूरा हो गया ?
नहीं सर, चल रहा है- राकेश ने कहा.
तो फिर तुम कहां जा रहे हो ?
जीपीएफ में किसी से मिलना है, कुछ दस्तावेज़ लेने हैं, बस मिलकर आ रहा हूं- राकेश ने बहाना बनया.
मैं, उसके बहाने को समझ तो चुका था, लेकिन सोचा कि यह तो गंगा जी में डुबकी लगाकर अपना मकसद हल कर चुका है. मैं किनारे पहुंचकर क्यों लौट जाऊं ?
प्रवासी भवन का भूगर्भीय कक्ष खचाखच भरा हुआ था. सीढी और कक्ष के बीच की जगह में कई लोग खड़े थे. सिर पर टोपी से लेकर जूतों तक सफेद लकदक पोशाक में लहीम-सहीम इंसान आचार्य पथ के पन्ने पलट रहा था. मैनेजर पाण्डेय क्या बोल रहे हैं, समझ में नहीं आ रहा था. भीड़ में शायद किसी ने मेरी पीड़ा को भांपा और मुझे कैमरे के ठीक दांये खाली पड़ी कुर्सी लपक लेने का इशारा किया. इसी बीच एक सज्जन ने आचार्य पथ की एक प्रति भी मुझे देदी.
युग दृष्टा और युग सृष्टा के उपमानों के साथ मैनेजर पाण्डेय का सम्बोधन पूरा हुआ। अब बारी अनुपम मिश्र की थी. अनुपम मिश्र को मैं पहले भी कई ऐसे सार्वजनिक कार्यक्रमों में देख और सुन चुका हूं. लेकिन प्रवासी भवन के भूगर्भ में उनकी शैली साहित्यकार कम एक महत्वाकांक्षी राजनीतिक प्रेरक-चिंतक और आलोचक की जादा दिखी. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्मान में हो रहे आयोजन में उनकी इस शैली से मुझ जैसे लोगों को अजीब सा लगा. लगभग वैसा ही जैसे कलात्मक फिल्म की अभिनेत्री को, किसी दूसरी फिल्म में बिकनी पहने हुए देख कर लगता है.
अनुपम मिश्र ने अभिनंदन ग्रंथ में प्रकाशित दो चित्रों को आज के परिवेश से जोड़ा. एक चित्र में मछली बेचती आधे अधूरे कपड़ों में लिपटी लड़की और उससे मोलभाव में लिप्त टीका टम्बर लगाए जनेऊ पहने हुए ब्राह्मण का जिक्र किया और बोले एक वैष्णव जिसका चित्र में जनेऊ दिख रहा है… जनेऊ दिख रहा है… वो मछली खरीद रहा है…मांस-मछली हमारी रसोई में यम-नियम की तरह रही हैं…कोई उन लोगों को बताए जो मांस-मछली बेचने पर रोक लगा रहे हैं…हंगामा खडा़ कर रहे हैं…!!!
अनुपम मिश्र यह कहना चाहते थे कि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के अभिनंदन पत्र में कोई चित्र छापने से अहिंसक पंथियों के पर्व पर मांस-मछली न बेचने का आग्रह करने महापाप है ? या मछली खरीदते हुए ब्राह्मण का चित्र छपने का अभिप्राय है कि महावीर प्रसाद द्विवेदी जी भी मांस-मछली भक्षण के समर्थक थे… या वो कहना चाहते हैं कि असली और उम्दा साहित्य का सृजन केवल वे साहित्यकार ही कर सकते हैं जो मांस मछली का भक्षण करते हैं. अनुपम मिश्र से इस तरह की बेतुकी तुलना की अपेक्षा नहीं थी. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के अभिनंदन ग्रंथ में छपे किसी चित्र के बजाए अनुपम मिश्र, आचार्य की कालजयी कृतियों में से किसी एक से भी प्रेरणा लेने को कहते तो अच्छा लगता. अगर वो कल्लू अल्हैत के नाम से लिखी गयी आल्हा से कोई उदाहरण निकालते तो और भी अच्छा होता. मेरा मानना है कि साठ की उम्र के बावजूद सठियाने का लाभ या अधिकार अनुपम मिश्र और उनकी श्रेणी में आने वालों को नहीं दिया जाना चाहिए.
अनुपम मिश्र का उदाहरण दिमाग में दही मथ रहा था. सो आचार्य पथ के पन्ने पलटने लगा. पहले पन्ने पर ही सोनिया माता का चित्र वो भी आचार्य महावीर प्रसाद की प्रतिमा पर माल्यार्पण करते हुए…लगी ठोकर और खोपड़ा भी फूटा. सोचने लगा कि क्या किसी राजनीतिक दल का राष्ट्रीय अध्यक्ष होना सबसे बड़ी काबिलीयत है…या साहित्यकारों की राजनीतिक चाटुकारिता की पराकाष्ठा है. आचार्य पथ में संदेश भी सिर्फ सोनिया माता का संदेश है… कमल किशोर गोयनका जैसे और भी लोगों के संदेश मिल सकते थे, काश! आचार्य पथ के सम्पादक और उनके सहयोगियों में राजनीतिक चाटुकारिता और गुलामी से बाहर आने की मानसिकता बनायी होती…!!
आचार्य पथ के प्रकाशकीय में तो तलुवे चाटने की सभी सीमाएं तोड़ दी गयीं. सोनिया गांधी ने आचार्य की प्रतिमा का अनावरण कर दिया तो प्रकाशक ने घोषित कर दिया कि अभियान को नई ऊर्जा मिल गयी. प्रकाशक गौरव अवस्थी क्या कभी इतना प्रकाश भी डालने की स्थिति में होंगे कि 30 नवम्बर 2010 से पहले और उसके बाद सोनिया गांधी ने हिंदी साहित्य और साहित्यकारों के लिए क्या किया है. गौरव अवस्थी सोनिया गांधी की विशेष कृपा और संरक्षण पर भी प्रकाश डालने की हिम्मत करेंगे.
जय हिंदी/जय नागरी का नारा बुलंद करने वाले आचार्य पथ के संपादक आनंद स्वरूप श्रीवास्तव मैंने से फोन पर सम्पर्क किया…क्षमा सहित उनसे पूछा कि क्या सोनिया गांधी से माल्यार्पण कराने वाले चित्र से जादा महत्वपूर्ण चित्र उपलब्ध नहीं था…या सोनिया गांधी ने आचार्य महावीर प्रसाद पर पीएचडी की है…इसलिए यह चित्र ही प्रकाशित किया जाना था…या सोनिया गांधी ने आचार्य पथ परिवार को विपुल आर्थिक सहायता की है…?
मेरे सवालों पर आचार्य पथ के संपादक आनंद स्वरूप का सिर्फ एक जवाब था- यह उनका निर्णय नहीं था. यह एक समिति और संपादक मण्डल का फैसला था…!!!
अब जरा आचार्य पथ के संपादकीय पर गौर करलीजिए. शायद इसे खुद संपादक आनंद स्वरूप ने लिखा होगा. किसी समिति या संपादक मण्डल ने नहीं. सम्पादकीय का पहला वाक्य ‘दुखद संयोग’ से शुरु होता है. अगर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जीवित होते तो वो पता नहीं सम्पादक महोदय के साथ कैसा व्यवहार करते…अब दूसरा पैरा देखिए… ‘हमने स्मारिका का दूसरा अंक निकालना चाहा तो हमारे सुप्रसिद्ध नवगीत पुरौधा, बैसवारा विभूति डा. शिव बहादुर सिंह भदौरिया हमारे बीच नहीं रहे…’ किसी ने आनंद स्वरूप से पूछा हो या न पूछा हो लेकिन हिंदी के एक पाठक के नाते मैं यह पूछने का अधिकार रखता हूं कि संपादक आनंद स्वरूप श्रीवास्तव, यह आचार्य पथ का सम्पादकीय है या आप आत्म विलापकिये हैं !!
मान लीजिए…आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का अभी ने पुनर्जन्म न हुआ हो और वो अभी यहीं-कहीं वायु-विचरण कर रहे हों तो निश्चित ही बहुत दुखी हो रहे होंगे…जिन्होंने प्रेमचंद और भारतेंदु की रचनाओं को संपादित किया हो उसके बारे में छप रही स्मारिका आचार्य पथ के संपादक और संपादकीय का यह हाल…यह पथ तो आचार्य पथ नहीं हो सकता…!!!
लेखक राजीव शर्मा प्रिंट और टीवी मीडिया के वरिष्ठ पत्रकार हैं. कई अखबारों व चैनलों में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके हैं.