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उत्तर प्रदेश

हेमंत शर्मा का कोविड मुठभेड़ पार्ट दो पढ़ें

Hemant Sharma : कोविड से मुठभेड़ कर लौट आया -दो

अस्पताल से विदा देते डॉ महेश शर्मा और उनकी टीम।

कोरोना के दंश को झेलते हुए मैं लगातार स्मृतियों के समंदर में डूबता जा रहा हूं। एक के बाद दूसरी स्मृतियां सजीव हो उठी हैं। जो छूटता दिख रहा है, उसका दुख सता रहा है। जो अपूर्ण है, उसकी कसक बेचैन कर रही है। आज पॉंच अगस्त है। अयोध्या में पॉंच सौ साल के रक्त रंजित इतिहास का सुखांत हो रहा है। मंदिर के लिए शिलापूजन हो रहा है। फूलते दम और खून में घटते आक्सीजन के बीच अस्पताल के बेड पर पड़े पड़े मेरे भीतर इस बात की छटपटाहट लगातार जोर मारती जा रही है कि आज अयोध्या में रामलला के मंदिर का शिलापूजन है, इतिहास बन रहा है। पर मैं वहॉं नहीं हूँ। अब तक अयोध्या के हर घटते इतिहास का साक्षी रहा हूँ। ताला खुलना हो। शिलान्यास हो। कारसेवकों पर गोलीकाण्ड हो या ध्वंन्स। हर मौक़े पर मौजूद रहा हूँ। पत्रकारिता में यही मेरी यूएसपी थी। कॉंख में अपनी किताब दाबे घूमता रहा। इस अंहकार के साथ कि ताला खुलने से ध्वंस तक सारी घटनाओं का चश्मदीद रहा हूँ। पर जो सबसे बड़ी घटना थी, उसका साक्षी बनने से राम लला ने मुझे रोक दिया? मैं अब मर्यादा पुरूषोत्तम से उलझ चुका था।

“श्रीमान रामलला! मैंने आपकी लड़ाई लम्बे समय तक लड़ी। अयोध्या के हर निर्णायक बिंदु पर आपके समर्थन में दस्तावेज ढूँढ कर निकाले। पर ज़मीन अपने नाम कराने के बाद आप मुझे भूल गए? अब मैं यह नहीं कह पाउंगॉ कि अयोध्या की हर घटना का मैं साक्षी रहा हूँ। ऐसा क्यूं किया रघुवीर ? ये आपकी कैसी मर्यादा है?” मेरे हाथ प्रश्नों का अक्षय पात्र लग गया हो। हर किसी से सवाल कर रहा था।

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“शायद आपने मेरे इस अहंकार को तोड़ने के लिए ऐसा किया हो कि अयोध्या में हर घटना में मैं कैसे मौजूद रह सकता हूं ? “ क्या आप निराकार ब्रह्म है जो हर कहीं मौजूद रहेंगें? “

“ पर इतनी लम्बी लड़ाई में आपके साथ साथ रहने के बाद में मेरे प्रति यह अन्याय नहीं है ? चलिए इसे भी मैं अपना दुर्भाग्य मानता हूँ। पर मेरे दुर्भाग्य का कारण आपको ही बनना था?” मुझे ऐसा लगा मानो रामलला मेरे हर सवाल को सुन रहे हों, पर चुपचाप, अविचल, बिना कुछ बोले हुए। उनका मौन मेरे लिए असह्य होता जा रहा था।

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“क्या पता इसमें भी प्रभु की कोई लीला हो?” अब मैं खुद से खुद को ही सांत्वना देने में जुट गया था।और अपने ख़िलाफ़ खुद तर्क गढ़ रहा था।

अस्पताल में भर्ती होने के दसवें दिन तड़के मेरी हालत बिगड़ी। यह जन्माष्टमी का दिन था । जन्माष्टमी के रोज़ मैं अर्धमूर्च्छा में था। मेरी बीमारी का सबसे ख़राब दिन। इस रोज सबसे ज़्यादा कष्ट था। चेतन – अचेतन की अवस्था में झूल रहा था। जीवन में ऐसा पहली बार हो रहा है कि जन्माष्टमी की सजावट में शामिल नहीं हूँ। इस उम्र में अब भी बच्चो की तरह झॉंकियॉं सजाता रहा हूँ। एक बार तो झॉंकी सजाने के लिए पावर हाउस से झॉंवा चोरी करके लाया था क्योंकि ख़रीदने के लिए के लिए तब पैसे नहीं थे।तुम्हारी झॉंकी के लिए पड़ोस के शुक्ला जी का करोंदे का पेड़ काट लिया था। उन्होंने बहुत गालियाँ दी थी।

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“यह सब हमने तुम्हारे लिए किया था, वासुदेव।” दुख के मौके पर इंसान और प्रभु की निकटता सबसे अधिक होती है। मैं अब वासुदेव के निकट था।

“हे माधव ! बचपन से ही पूरे साल पैसा इकट्ठा करता था, तुम्हारा जन्मदिन मनाने के लिए। पर वासुदेव तुम भी ……. ।एट् यू वासुदेव।

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” मेरे सवालों की धारा अंतस्थल के धैर्य के बांध को कब का तोड़ चुकी थी।

“ऐसा क्यो कर रहे हो तुम? प्रभु! तुमने अपने बचपन से ही कितने असुर मारे? बाल्यकाल में ही आपने पूतना का वध किया। तृणावर्त, शकटासुर, वत्सासुर, बकासुर, अघासुर, अरिष्टासुर और वृषभासुर का वध किया।

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पर यह कोरोनासुर तुम्हारे क़ाबू में नहीं आ रहा है?

हमने सपरिवार तुम्हारे लिए व्रत रखे। झांकियां सजाईं। अर्द्धरात्रि को तुम्हारे लिए नाचे और गाये। हमारी आस्था ने तुम्हे ईश्वर बना रखा है। यदि तुम सचमुच ईश्वर हो तो आज की समस्या का समाधान शीघ्र करो अन्यथा तुम्हारा ईश्वरत्व संकट में पड़ जायगा!” अनजाने ही मेरी आवाज़ नियति को चुनौती देने की ओर अग्रसर हो चुकी थी। कृष्ण जन्माष्टमी उसी विधाता की लीला का उपक्रम थी, जिनसे अब मैं झगड़ रहा था।

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“तुम इतना भाषण क्यों दे रहे हो? मैं ईश्वर नहीं हूँ। परिस्थितियों ने मेरे उपर ईश्वरत्व थोप दिया है।”: कृष्ण थोड़े असहज हुए, फिर बोले- “तुम्हारे सारे सवालों का जबाब हमारे विराट स्वरूप में है। जो कुरुक्षेत्र में मैंने अर्जुन को दिखाया था।” कुरुक्षेत्र का नाम सुनते ही मेरी स्मृतियों में बिजली सा कुछ कौंधा।

“पर उसी कुरूक्षेत्र में आपने अर्जुन से यह वायदा भी किया था कि जब जब मानवता पीड़ित होगी आप आएँगें और समस्या का समाधान करेंगे। याद है आपने कहा था।-

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‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे’।

द्वापर में की गयी आपकी इस घोषणा का हम कलयुग में भी विश्वास करते है। इतनी बड़ी आस्था इतना बड़ा विश्वास। यह टूट जायगा। अगर तुम कोई उपाय नहीं करोगे मुरलीधर! हमारी आस्था और विश्वास ने ही तुम्हे ईश्वर बनाये रखा है।विश्वास खत्म , ईश्वर खत्म।” मैं देवकीनंदन से तर्क पर तर्क किए जा रहा था।जर्मनी का एक पगला विचारक था नीत्शे जिसने ऐसी ही किन्ही परिस्थिति में घोषणा की थी की ईश्वर मर चुका है। पर हमारी आस्था तो पत्थरों को भी पूजती है।

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“हॉं मैंने “ यदा यदा ही धर्मस्य” कहा था, पर यह भी कहा था कि सुख दुख स्थायी नहीं है। उनका क्षणिक उदय और फिर जाना, सर्दी और गर्मी ऋतुओं के आने जाने के समान है।

मात्रास्पर्शातु कौन्तेय शीतोष्णसुखदु: ख़दा:।” कृष्ण के चेहरे पर अब एक चिरपरिचित सी मुस्कान खेल रही थी। वे बेहद ही स्थितप्रज्ञ भाव से समझा रहे थे-

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“मुझे देखो। शिव का ताण्डव मैं हूँ। प्रलय मैं हूँ। लय मैं हूँ। विलय मैं हूँ। प्रलय के वात्याचक्र का नर्तन मेरा ही नर्तन है। जीवन और मृत्यु मेरा ही विवर्तन है। ब्रह्माण्ड में मैं हूँ। ब्रह्माण्ड मुझमें है। संसार का सारी क्रियमाण शक्ति मेरी भुजाओं में है। मेरे पगो की गति धरती की गति है। फिर भी मुझसे भी मथुरा छूटी। राधा छूटी। वृन्दावन छूटा, मैं कुछ नहीं कर पाया। क्योंकि यह नियति का चक्र था। मेरे अंत की वजह एक बहेलिया बना क्योंकि यही भवितव्यता है। इसे तुम्हें भी स्वीकार करना चाहिए।”
नन्दलाल के तर्क अकाट्य थे। मगर न जाने क्यूं मुझे लग रहा था कि मेरे भीतर की जिज्ञासाएं अमरत्व का पान कर चुकी हैं। मेरे प्रश्न अभी बाकी थे।

“अगर ऐसी कोई नियति है प्रभु, जो मेरे संकल्पों के आड़े आ रही है तो बताइए मैं ही उसे मिटा दूंगा। यह तो मनुष्य की आदि शक्ति रही है। इस शक्ति के प्रयोग से मुझे कैसे रोक सकते हो? लीलाधर! मैं फिर कह रहा हूं। सिर्फ हम ही खतरे में नहीँ हैं । खतरे में तुम भी हो। याद रखो । हम असमर्थ होकर खतरे में है और आप समर्थ होकर खतरे में हो क्योंकि सामर्थ्य की पहचान तभी होती है जब वह असमर्थजनों के लिए सुरक्षा की दीवार बने। इसलिए हे मुरारी! कोरोनासुर से रक्षा के लिए कुछ करो।”
कृष्ण अब भी मुस्कुरा रहे थे। मुझे अपनी चेतना में एक अजीब सी हलचल महसूस हुई।

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इधऱ मैं इस आत्मसंघर्ष से जूझ रहा था उधर मेरी तबियत लगातार बिगड़ रही थी। डॉक्टर अपनी व्यूह रचना में थे। डॉ महेश शर्मा ने वीणा और बच्चों को ब्रीफ़ करने के लिए अस्पताल बुलवा लिया। वे उनकी अगवानी में नीचे ही खड़े रहे।डॉक्टर को इन्तज़ार करता देख वीणा को लग गया कि मामला गम्भीर है। बच्चो और वीणा के साथ डॉक्टरों की टीम के साथ डेढ़ घंटे तक मीटिगं चली आगे क्या होना है इस बात लेकर।

यकायक मैंने अपने सिर पर एक हाथ महसूस किया।यह मेरी तीमारदारी में लगी सिस्टर मर्लिन थी।

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“सर हम आपके लिए ‘प्रे’ कर रहा है। आप बिल्कुल ठीक हो जाओगे। कोट्टायम के चर्च में भी हमने आपके लिए प्रेयर कराई है।”

सिस्टर की भावुक आवाज मेरे कानों में पड़ रही थी।

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मेरी चेतना लौट रही थी। सिस्टर मर्लिन ये मेरा क्या नाता। मेरी ऑखों से आँसू निकल रहे थे। आंसुओ से ज्यादा प्रार्थनापूर्ण मनुष्य के पास और कुछ नहीं है। शब्द तो थोथे होते हैं। पर आंसू सच। असल में आंसू आते ही तब हैं, जब प्राणों में कुछ ऐसे भाव उठते हैं जो शब्दों में नहीं समाते। जिन्हें शब्दों में नहीं कहा जा सकता; जहां शब्द असमर्थ हो जाते हैं। जहां शब्द नपुंसक सिद्ध होते हैं, वहीं तो आंसू बह जाते हैं। मुझे लगा मेरा सिस्टर मर्लिन से क्या लेना देना। कितने लोग, कितनी जगहों पर मेरे लिए दुआ कर रहे हैं। साथी कुंदन यादव के दोस्त चीमा साहब अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में अरदास कर रहे है। मैं तो उन्हें जानता भी नही। ऐसे न जाने कितने हाथ मेरे लिए दुआ के लिए उठे। प्रो अरूण साहित्य और संगीत के आदमी हैं। खुसरो की परम्परा के। उन्होंने निज़ामुद्दीन औलिया के यहॉ दरखास्त लगा दी है।अजय गुरू नास्तिक आदमी है। उनके हाथ भी प्रार्थना के लिए उठे। सभी मित्रो अपने अपने इष्टों से प्रार्थना शुरू की। हर तरफ़ से दुआ के संदेश इनबाक्स में। इसका असर दिखने लगा था।

यह सब हो रही रहा था कि मेरी आँख खुली। देखा ईशानी और पार्थ पीपीई किट पहने मेरे सामने खड़े है। मेरे जीने की लपलपाती लौ सामने दिखी। डॉक्टरों से बात कर बच्चों को स्थिति की भयावहता का अन्दाज़ हो गया था। मुझे लगा कि मुझे इनके सामने जीवट दिखाना है। वरना ये घबरा जाएँगें। इसे भांप मैंने हिम्मत दिखाई और उन्हें बताया कि कोई संकट नहीं है। मैं एक दो रोज में ठीक हो जाऊँगा। लेकिन तुम लोग अब दुबारा यहॉं न आना। डॉक्टरों ने वीणा से राय की कि क्या इन्हे और कहीं शिफ़्ट तो नहीं करना है? वीणा नेदृढ़ता से कहा वे यहीं ठीक होगे। मेरे कृत्रिम ऑक्सीजन का लेवल बढ़ाया गया। दवाइयॉं बदली गयी। मुझे तुसलीजुमैब देने की तैयारी हुई। यह यूएस का इंजक्शन है, जो कोरोना में अब तक की अन्तिम दवा है। दूसरी तरफ़ प्लाज़्मा देने की भी तैयारी शुरू हुई। यह भी सेवा और कर्तव्य का चरम देखिए कि मुझे प्लाज़्मा अस्पताल में ही कार्यरत एक डॉक्टर ने दिया।

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मुझे कोरोना एकाएक नही हुआ। इसके पीछे काम की लंबी जद्दोजहद रही। चार महीने तक पूरी हिफ़ाज़त के साथ काम करते हुए बचा रहा। पर कोरोना ने लखनऊ में पकड़ लिया। २८ जुलाई को लखनऊ से लौटा। तेज बुख़ार आया।बदन तोड़ने वाला दर्द। छाती में भारीपन। रस मलाई और रोटी दोनों का भूसे जैसा स्वाद । जितनी रोग से परेशानी नही थी, उससे ज़्यादा रोग की अनिश्चितता को लेकर बेचैनी थी। डॉक्टर का कहना था कि थोड़ा observe करें। शायद वायरल होगा। पर मुझे लग गया था कि ये कोविड ही है। तीन महीने से घर में सबसे अलग नीचे रह रहा था। किसी से सम्पर्क में नही था क्योंकि हर रोज़ दफ़्तर गया। एक रोज़ की छुट्टी नहीं ली। मेरा सर्वाधिक एक्सपोज़र था। इसलिए घर से अपने को काट लिया था। डाक्टर को कहा तो बोले फ़ौरन आईए। मैंने कहा मरने से नही, कोविड सेन्टर में जाने से डर लगता है। वे बोले,” आप उसी सुविधा में रहेंगे जो हमने अपने लिए बनाई है।”

जीवन पर ख़तरा देख तय हुआ कि अस्पताल चलना चाहिए। अस्पताल में डरावना माहौल। कोविड का दैत्य विकराल रूप ग्रहण कर चुका है। जितना दिखता है, उससे कहीं ज़्यादा सुनाई देता है। अमेरिका, इटली, ब्रिटेन, ब्राजील…कोविड से शांत हो चुके शरीरों के अंबार। देश के भीतर हाहाकार। कोविड यानी सहस्रबाहु। अपनी हजारों भुजाओं से विनाश करता हुआ। अजीब संयोग है। मेरी देखरेख करने वाले डॉक्टर बेहद जानकार थे। इतना तो निश्चित है, बाकी सब कुछ अनिश्चित। क्या होगा कुछ पता नहीं? लेकिन डाक्टर शुक्ला की गारन्टी थी कि परेशान न हों। तीन दिन में ठीक करूँगा। डॉ शुक्ला में कोरोना के ख़िलाफ़ गजब का आत्मविश्वास है। वे नियमित इटली, स्पेन और अमरीका में कोरोना से लड़ते डॉक्टरों से ‘बेबनार’ के ज़रिए सम्पर्क में रहते है। इसलिए उन्हें नवीनतम जानकारी है, जो उनके भरोसे को बढ़ाती है।

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उनका बार बार मुझसे कहना था कि कोरोना उतना डरावना नहीं है जितना हमने और मीडिया ने उसे बना दिया गया है। अगर आप समय रहते डॉक्टर के पास पंहुच गए तो जान तो नहीं जायेगी। हमने कोरोना से निपटने के लिए न तो औज़ार गढ़े हैं, न ही संस्कृति विकसित की है। लोग डर रहे हैं। रोग छुपा रहे हैं। अस्पताल जाने से भाग रहे हैं। मैं चैतन्य होकर डॉक्टर की बात सुन तो रहा था मगर ज्वर के मारे चीजें कम समझ आ रही थी।

अस्पताल पहुंचते ही डॉक्टरों का कहना था कि कोरोना टेस्ट की रिपोर्ट जब आएगी तब आएगी, अभी कोरोना से होने वाले नुक़सान की जॉंच करते है। उसकी दवा तो शुरू होगी। सो चेस्ट का सीटी स्कैन हुआ। उसमें कुछ बदलाव दिखा। रक्त की जॉंच में भी संक्रमण मौजूद था। तीन तरह की रक्त जॉंच होती है जो बिना कोविड टेस्ट के ही बता देती है कि आप में कोविड की सम्भावना है। उनके पैरामीटर बढ़ जाते है। मसलन डी डाईमर, फर्टटिना, सी एम पी। डाक्टर ने कहा अगर रिपोर्ट निगेटिव भी हो तो भी इलाज शुरू होगा क्यो कि आपको परेशानी तो है ही। शुक्ला जी अब तक दो सौ से ज्यादा लोगों को देख चुके है। पीपीई किट के भी वे विरोधी है। वे पीपीई किट नहीं पहनते। उनका कहना है कि इससे कुछ नहीं होगा। केवल मुँह और नाक ढकिए। मेरा इलाज शुरू हुआ। मुझे सबसे पहले रक्त पतला करने का इंजेक्शन लगा। यह भी पता चला कि हमारे यहॉं बहुत गलतफहमियां भी हैं। यहां समझा जा रहा है कि कोविड के चलते आदमी निमोनिया और हार्ट फेल से मर रहा है। वजह यह कि मरने वाले का इसदेश में पोस्टमार्टम नहीं हो रहा है। पश्चिम में डॉक्टर हर मौत का पोस्टमार्टम कर रहे हैं जिससे पता चलता है कि मौते ब्लड क्लाटिंग से हो रही हैं। वह सभी धमनियों कोचेक कर रहा है। और दम निकल जाता है।इसलिए अब यहॉं भी ब्लड पतला करना शुरू किया गया ताकि खून जमने से मौत न हो।

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फिर वायरस के लिए ‘रेमिडिसिवर ‘दी गयी। यह ईबोला वायरस के लिए बनी दवा थी। पर कोरोना में कारगर है। अगर शुरुआती स्टेज में दे दी जाय तो बेहद प्रभावशाली होती है। रेमिडिसिवर दिल्ली में आठ से अस्सी हज़ार रूपये में बिकी। मुझे फ़ौरन रेमिडिसवर दी गयी ताकि वायरस के फैलाव को रोका जा सके। रेमिडिसीवर के शुरूआती डोज़ के लगाने की प्रक्रिया मुश्किल है। लगाने की प्रक्रिया देख रोग की भयावहता का अंदाज़ा लगता है। जब मुझे लगाने की प्रक्रिया शुरू हुई तो मुझे लगा कि या तो मेरा मामला गम्भीर है, या दवा का। तीन डॉक्टरों की मौजूदगी में इंजक्शन दिया गया। हार्ट, लीवर, किडनी को मॉनिटर करते हुए। दवा के इफ़ेक्ट उसी दिन दिखने लगे। डॉक्टर ने बताया साईड एफेक्ट तीन दिन बाद दिखेगा। कमज़ोरी। बेचैनी। मुँह और बेस्वाद होगा।

जब ईम्यूनीटि लो हो तो दूसरे बैक्टिरिया भी सिर उठाते है जैसे चीन को देखकर नेपाल भी फुंफकारता है। तो इन पिद्दी वैक्टिरिया के लिए डॉक्टर ने ऑग्मेटीन शुरू की ताकि सिर उठाने से पहले उसके सिर कुचले जाए। कुछ बैक्टिरिया लतखोर होते हैं। वे ऑगमेन्टीन की पहुँच के बाहर होते है। उनके लिए डॉक्सीसाईक्लीन दी गयी। फेफड़ों में संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए स्टीरायड दिया गया। स्टीरायड से संक्रमण तो क़ाबू होगा पर शुगर लेवल बढ़ जायगा। अब जितना शुगर बढ़ेगा, उतना इंसुलिन दिया जायगा। यह पूरी चेन है। इतनी दवाइयों से कहीं एसीडिटी न फैले इसलिए पैन्डासिड का ईन्जक्शन ज़रूरी है। डॉक्टर ने इतना सब एक साथ शुरू कर बुख़ार को तो अगले दिन से रोक दिया।

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डॉक्टरो का कहना था कि इसी एग्रेसिव तरीक़े से ही कोविड को रोका जा सकता है। ये सारी दवाईयां सब दे रहे हैं मगर फिर भी कुछ लोचा है। हो ये रहा है कि बारी बारी से जैसे जैसे मरीज की स्थिति ख़राब होती है, वैसे वैसे दवाईयॉं बढ़ा दी जाती हैं। इस तरह इंतज़ार करने से समय चला जाता है और गाड़ी छूट जाती है। इसलिए समय रहते सारी दवाइयाँ साथ साथ शुरू करना चाहिए। इस तरीक़े से सफलता भी मिल रही है।

जीवन में पहली बार परिवार या दोस्तों के बिना इतने रोज रहा। मेरे लिए यह कोरोना से बड़ी बीमारी थी। मैं जीवन मे हद दर्जे का सामाजिक व्यक्ति हूँ। कोरोना ने मुझे पहले ही घर और दफ्तर के बीच समेटकर इस सामाजिकता पर करारी चोट कर दी थी। रही सही कसर, अस्पताल में ढकेलकर पूरी कर दी। अब मौत से लड़कर वापिस लौटा हूं तो जेहन में अजीब तरह के अहसास जमा हो गए हैं। जिंदगी को हाथों से फिसलते देखने का अहसास कितना दर्दनाक होता है, इसका भी अनुभव कर लिया।

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अस्पताल से लौटने के बाद दो अनुभूतियाँ तीव्र है। हर व्यक्ति, स्पर्श, हवा, वस्तु के प्रति कृतज्ञता का ऐसा भाव उमड़ता है कि गला भर आता है। दूसरा जो जीवन १५,अगस्त २० के बाद का है, वह अनेकानेक लोगों का दिया है। कृतज्ञता के इस भाव ने अंहकार के टनों वजन से मुक्त कर दिया है। हमें सबके प्रति कृतज्ञता का यह गीला भाव अपनी सीमाओं का अहसास करता है। अब ज़िन्दगी के स्लॉग ओवर बचे है। कितने रन बनते है पता नहीं। पर खेलना तो होगा।

जीवन का यह अनुभव का एक नई पहचान दे गया है। इन पहचानों के साथ तारतम्य बिठाने में अभी वक्त लगेगा। जितने गहरे से गुजरकर लौटा हूं, उससे उबरने के लिए भी समय चाहिए । वक्त तमाम घावों को भर देता है। मगर निशान बाकी रह जाते हैं। ये स्मृतियों के निशान हैं। इन निशानों को भुलाने में भी वक्त लगेगा। बस संतोष इसी बात का है कि इसी बहाने राम, कृष्ण और शिव से मुलाकात करके लौटा हूं। यह अविस्मरणीय है। उनका कहा अभी भी कानों में गू्ंज रहा है। यही मार्ग दिखाएगा। नए रास्ते का संवाहक बनेगा। नए हौसलों का वाहक बनेगा। नए संकल्पों का साधक बनेगा।

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आप सबने मेरे लिए जो दुआएँ और शुभकामनाएँ दी है। उनके आगे नतमस्तक हूँ।

हेमंत शर्मा लंबे समय तक जनसत्ता अखबार के लिए लखनऊ में बतौर ब्यूरो चीफ कार्यरत रहे। फिर इंडिया टीवी में वरिष्ठ पद पर रहे। इन दिनों टीवी9भारतवर्ष न्यूज़ चैनल का संचालन कर रहे हैं।

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इसके पहले वाला पार्ट पढ़ने के लिए नीचे दिए शीर्षक पर क्लिक करें-

कोरोना की पीठ पर सवार हो मृत्य से साक्षात्कार कर लौटे हेमंत शर्मा की कहानी उन्हीं की जुबानी सुनिए

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