कोरोना की पीठ पर सवार हो मृत्य से साक्षात्कार कर लौटे हेमंत शर्मा की कहानी उन्हीं की जुबानी सुनिए

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-हेमंत शर्मा

लौट आया कोविड से मुठभेड़ करके….

तो हो गयी अपनी भी मुठभेड कोविड से। भयानक। हाहाकारी और लगभग जानलेवा। बस यूं समझिए कि तीन रोज तक मौत से सीधा आमना-सामना था और मैं बस ज़िन्दगी और मौत के पाले को छूकर लौट आया। बीस रोज तक अस्पताल में कोविड से लड़ा। कभी थका ,कभी जीतता दीखता तो कभी हारता नज़र आया। सुबह कोरोना को पराजित करने की उम्मीद जगती। रात होते होते टूटती नज़र आती। यह ‘टग आफ वार‘ था। हर रोज़ डाक्टरों की टीम नई रणनीति बनाती मगर ये वाईरस उन्हें गच्चा दे जाता। ये एकदम चक्रव्यूह में फंसे अभिमन्यु सी स्थिति थी।

लंबे समय तक गाड़ी सातवें व्यूह पर अटकी रही। कई बार तो लगा कि ये सातवां व्यूह वाकई अभेद्य होता है। मगर डॉक्टर भी नए नए अस्त्रों से युद्ध में जुटे हुए थे। यह कोरोना वाईरस रहस्यमय तो है ही साथ ही षड्यन्त्रकारी और धूर्त भी है। एक बार लगेगा कि आप ठीक हो रहे हैं। आप काफी हद तक निश्चिंत होने लगते हैं। मगर यह आठवें, नवें और दसवें दिन पूरी ताक़त से व्यूहरचना करके फिर वापिस आता है और शरीर के सभी अंगों पर एक साथ हमला करता है। आपकी तैयारी, मेडिकल प्रबन्धन और जिजीविषा अगर नही टूटी तो आप लड़ लेंगे। वरना….सामने प्लास्टिक बैग आपका इन्तज़ार कर रहा होता है ।

कहानी लम्बी डरावनी और रोमांचक है। बस यूं समझिए की मित्रों की दुआएँ, आत्मबल और परिजनों की पुण्याई से ही मैं इसे हरा सका। पूरी ताक़त से जूझा, लड़ा और वापस आ गया। परेशान हुआ पर पराजित नही। इसे आप मेरा दूसरा जन्म भी मान सकते हैं। यह भी कह सकते हैं कि अब किसी और की उम्र पर तो नही जी रहा हूँ! मुझे पता है उन्नीस रोज से मैं यह लड़ाई अस्पताल में अकेले नही लड़ रहा था।आप सब मेरे साथ थे।इसलिए मुझे लगता है यह बचा हुआ दूसरा जीवन आप सबके हिस्से का है।मेरी कोशिश होगी कि अब वैसा ही जिया जाय।

मित्रों,कोरोना से लड़ना सिर्फ़ चिकित्सकीय प्रबन्धन है और कुछ नही। प्रबन्धन कमजोर हुआ।या आपकी जिजीविषा घटी तो कोरोना जीतेगा। वरना आप उसे पटक देगें। यह मेरा भोगा हुआ यथार्थ है। कोविड शरीर के सभी महत्वपूर्ण अंगों पर एक साथ हमला करता है लीवर ,किडनी ,फेफड़ों , दिल और पैक्रियाज को एक साथ निशाना बनाता है। फेफड़ों में सूजन आती है।दम फूलने लगता है। हार्ट की आर्टरी भी सूजने लगती है जिससे हार्ट के चोक होने का ख़तरा बराबर बना रहता है। उधर पैक्रियाज पर हमले से इंसुलिन कम बनती है। इसलिए शरीर में शुगर का स्तर उछाल मारता है। फेफड़ों में सूजन से सॉंस में दिक़्क़त होती है। इन्हे ठीक करने के चक्कर में लीवर और किडनी के एंजाइम इधर उधर भागने लगते है। डॉक्टर इन्हीं चीजों का प्रबन्धन करते हैं।

चार रोज़ अस्पताल में भर्ती रहने के बाद मैं कोविड से उबर रहा था। सारे पैरामीटर ठीक थे। केवल निमोनिया के कारण सॉंस लेने में दिक़्क़त थी। सीटी स्कैन की रिपोर्ट बता रही थी कि फेफड़ों में बीस प्रतिशत संक्रमण है। तभी आठवें रोज़ रात में वाईरस ने पूरी ताक़त से दुबारा हमला किया। खून में आक्सीजन का लेवल गिरने लगा। रक्तचाप नीचे की तरफ़ आने लगा। दम घुटने लगा था। डॉक्टरों के हाथ पॉंव फूलने लगे। फ़ौरन फेफड़ों का दुबारा सीटी स्कैन हुआ। इस दौरान मै श्लथ था। डूब उतरा रहा था। पर समझ बनी हुई थी। मैंने डाक्टरों की बातचीत सुनी। संक्रमण ८४ प्रतिशत हो गया था। सिर्फ़ १६ प्रतिशत फेफड़ों पर सॉंस ले रहा था। माहौल बेहद डरावना था। सीटी स्कैन के कक्ष से ही मुझे आई सी यू में ले जाने का फ़ैसला हुआ। यह दूसरी दुनिया थी।

आईसीयू जीवन का वह दोराहा होता है जहॉं से एक रास्ता मार्चुरी में जाता है और दूसरा आपके स्वजनों की पुण्याई से खींच कर आपको वापस लाता है। यहॉं एक क्षण में दरवाज़े का रूख बदल जाता है। डॉक्टर विमर्श कर रहे थे। तभी मेरी चिकित्सा में लगे डॉ शुक्ला ने कहा, आई सी यू से अभी बचना चाहिए। आईसीयू जनित समस्याएँ पीछे पड़ सकती है।डॉ शुक्ला कोविड के मास्टर हो गए है। हर रोज़ इटली ,यूके स्पेन में वेवनार के ज़रिए वहॉं के डॉक्टरों के सम्पर्क में रहते है।मेरे प्रति उनमें आत्मीयता का भाव भी है। आईसीयू में जाने न जाने पर डॉ महेश शर्मा का फ़ैसला था कि इनके कक्ष को ही आईसीयू बना दिया जाय। इसके बाद मेरी चेतनता पर असर होने लगा था। मुझे अब कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मुझे लगा कि मैं एक अन्धे गहरे कुएँ में डूबता जा रहा हूँ। शायद यह मेरा मृत्यु से साक्षात्कार था।

मुझे अपने सारे दिंवगत मित्र और परिजन दिखने लगे थे। लगा सब छूट रहा है। पर अभी काम बहुत बाक़ी है। गृहस्थी कच्ची है। मित्रों का बृहत्तर परिवार मेरे भरोसे है। काम सिमटा नहीं है। थोड़ा समय मिलता तो सब चीज़ें पटरी पर ला देता। फिर जीवन जिस उत्सवधर्मिता से जिया है। उसमें यह कोरोना मौत तो ‘डिज़र्ब ‘ नहीं करता। अकेलेपन और प्लास्टिक बैग में। नहीं यह कैसे हो सकता है ? काशी यानी महाश्मशान का रहने वाला हूँ जहॉं मृत्यु उत्सव है। मृत्यु के देवता महाकाल का गण हूँ। इतनी छूट तो वो मुझे देगें। अगर नहीं देंगे तो आज उनसे भी मुठभेड़ होगी क्योंकि अब मेरे पास खोने के लिए क्या है?

राम ,कृष्ण और शिव भारत की पूर्णता के तीन महान स्वप्न है। राम की पूर्णता मर्यादित व्यक्तित्व में है। कृष्ण की उन्मुक्त और शिव असीमित व्यक्तित्व के स्वामी है। तीनों से अपना घरोपा रहा है। काशी से कैलाश तक शिव का गण रहा हूँ। कृष्ण चरित पर सबसे बड़ा आख्यान कृष्ण की आत्मकथा पिता ने लिखी। वे बड़े भारी कृष्ण भक्त थे इसलिए इनसे भी अपना घरेलू नाता बना और राम की जन्मभूमि आन्दोलन में अपना भी योगदान रहा है। दो किताबें लिखी। सुप्रीम कोर्ट ने रामलला को जन्मभूमि देने का जो फ़ैसला लिया उसमें इन किताबो की भी भूमिका है। पर इस बार मुझे इन तीनों ने झटका दिया। ऐसा क्यों हुआ यह समझ से परे है। शायद इसे ही भवितव्यता कहते है।

पहली बार कोरोना से जंग लड़ते इन तीनों के प्रति मेरे मन में सवाल खड़े हुए। इन तीनों ने मेरी आस्था को डिगाया ही नही लम्बे समय से चली आ रही मेरी आस्था, धार्मिक परम्परा और सिलसिले को तहस नहस कर दिया। मैं गए तीस वर्षों से सावन के आख़िरी सोमवार को बाबा विश्वनाथ के दरबार में हाज़िरी लगाता हूँ।पर इस बार उन्होंने ऐसी परिस्थितियाँ पैदा की।कि मैं वहॉं नहीं जा सका। मैं आज़ादी के बाद अयोध्या रामजन्मभूमि से सम्बन्धित सभी महत्वपूर्ण मौक़ों पर मैं अयोध्या में मौजूद रहा हूँ।पर इस बार भूमिपूजन के ऐतिहासिक मौक़े पर मर्यादा पुरूषोतम् ने मुझे जाने से रोका। होश सम्भालने के बाद गए साल तक जन्माष्टमी की झॉकी खुद से सजाता रहा। साईकिल पर लाद कर झॉंवा उनकी झॉंकी के लिए लाता था।लेकिन इसबार लीलाधर ने मुझे अस्पताल के एकांत में बिस्तर पर पटक दिया था। मैं अपने अकेलेपन और कमरे की दीवारों से पूछ रहा था मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा है ?

एक तरफ़ कोविड वाईरस से थका देने वाली जंग दूसरी तरफ़ इष्टदेवों का यह व्यवहार। तीसरे किसी परिजन और मित्र से दस रोज से देखा देखी नही। तीनों परिस्थितियॉं मृत्यु से भी ज़्यादा भयावह थी। यह सोच ही रहा था कि लगा, अरे सावन का अन्तिम सोमवार तो कल ही है। तीस साल से मैं इस रोज़ काशी विश्वनाथ केमंगला आरती में जाता रहा हूँ।यह सिलसिला अबकी टूटेगा। “क्या भोलेनाथ क्या बिगाड़ा है मैनें ? इसबार आप नहीं जाने देंगे।पुराना सेवक हूँ आपका। यह अन्याय क्यों भाई। हे विश्वनाथ यह जान लिजिए ईश्वर का अस्तित्व हमारी आस्था और विश्वास पर टिका है। ईश्वर कोई बाह्य सत्य नहीं है। वह तो स्वयं के ही परिष्कार की अंतिम चेतना-अवस्था है। उसे पाने का अर्थ स्वयं वही हो जाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।” सोचा आज इनसे सीधी बात कर ही लूँ।

इतवार की रात बैचैन थी। कल सावन का आख़िरी सोमवार है।जीवन में इन्हीं परंपराओ को संस्कारों की अनमोल थाती की तरह सहेजकर रखा हुआ है।मेरे मन में रोग से डर और तकलीफ़ तो थी। पर बनारस न जाने का ग़ुस्सा ज़्यादा था। नाक में आक्सीजन ,उँगली में मानिटर का क्लम्पू, हाथ में केन्नडूला…. न जाने कब तंन्द्रा में आ गया। जीवन की अनिश्चितताओं और संसार की क्षणभंगुरता पर विचार के दौरान धुएँ सी एक आकृति उभरी।

अरे यह तो अपने भंगड भिक्षुक भोलेनाथ है। वे गम्भीर आवाज़ में बोले “क्यों परेशान हो बालक।” डर की चरम सीमा पर मनुष्य निडर हो जाता है।मैंने सोचा मौत के मुहाने पर तो हूँ ही । अब और क्या बिगड़ेगा।तो आज बाबा से अपना सीधा संवाद हो जाय।
मैंने पूछा “मेरा अपराध क्या है प्रभु? जाना था अन्तिम सोमवार में आपके दर्शन के लिए और आपने मुझे अस्पताल पहुँचा दिया।”
“यह काल की गति है वत्स।”
“पर मैं तो महाकाल से बात कर रहा हूँ।हे महाकाल मैं आपका पुराना भक्त हूँ। आपके सारे ज्योतिर्लिंगों का दर्शन कर चुका हूँ। आपके त्रिशूल पर टिकी काशी कीं पंचकोश परिक्रमा भी किया है। आपकी सेवा में कैलाश तक जा चुका। किताब लिख दी। अब तो अंग्रेज़ी में छप गयी।ताकि विधर्मी लोग भी आपका प्रताप जान ले। गुरूदेव अब जान ही लेंगे क्या?” मैं बड़बड़ा रहा था।

वे मुस्करा रहे थे।तुम जानते हो।
“यह काल की गति है। इसे कोई नहीं रोक सकता।”
“पर आप तो काल के देवता हैं“। ऐसा लग रहा था मानो मेरे भीतर नचिकेता की शक्ति आ गई है। अभी कुछ ऐसा पूछ लूंगा कि महादेव भी निरूत्तर हो जाएंगे।

“ठीक कहते हो पर हमारे काम बँटे है। ब्रह्मा, सृष्टि विष्णु पालन और मैं संहार करता हूँ।मैं इस वक्त संहार में निकला हूँ।”

“प्रभु आप जगत के स्वामी है। आप कुछ भी कर सकते है। बेशक आपने सृष्टि के लिए एक विधान बनाया है। पर आप भी उस विधान से बंधे हुए है। विधाता भी विधान से उपर नहीं हो सकता।”

“सच है विधान से ऊपर कोई नहीं हो सकता।लेकिन मनुष्य प्रकृति को कैसे जीत सकता हैं। यहॉं तो ऐसा लग रहा है कि लोग प्रकृति और काल को जीत रहे है। अपनी अलग सृष्टि बनाने में लगे है।“ वे क्रोधित होने लगे।
मैंने कहा, “हे रूद्र ,आपकी छवि रौद्र है। नील लोहित शंकर नील लोहित। वह आपकी क्रोध मूर्ति थी। आप विनाशक, संहारक और उच्छेदक है। क्रोध न करे। क्रोध स्वभाव नहीं अभाव है। जहॉं शान्ति और संतोष का अभाव हुआ वहॉं क्रोध उत्पन्न हुआ। आपने क्रोध में काम के भस्म किया पर उसे भी फिर ज़िन्दा करना पड़ा भले अंनग होकर ही।“

मुझे लगा वे मेरी बात सुनने के मूड में है।इसलिए मेरी हिम्मत बढ़ी।

“हे गंगाधर चाहे आप कैलाश के राजभवन में रहे या वाराणसी के महाश्मशान में। हिमालय के वैभव और काशी की दरिद्रता दोनो में आपका समभाव है। बाक़ी देव हैं आप महादेव। देवों के भी देव। राम के भी ईश्वर। तो हे रामेश्वर क्रोध में संहार का संकल्प न लें।” वह मुस्कुराए।

“मेरे ज़िम्मे संहार का काम है।सृष्टि के संतुलन के लिए सृजन के साथ संहार ज़रूरी है।”

“तो प्रभु एक सौ पैंतीस करोड़ में मैं ही मिला आपको। इस जिपिंगवा को क्यो नहीं पकड़ते। उसी ने सब गड़बड़ की है।” मैं निर्दोष मन से प्रश्न कर रहा था।
वे बोले, “वही तो इस वक्त हमारे संतुलन का निमित्त है। पर अंत तो उसका भी है। “

“आप ठीक कह रहे है। पर इस वक्त आपके यहॉं सब ठीक नहीं चल रहा है। जिनकी यहॉं ज़रूरत है वो वहॉं जा रहे है। जो यहॉं पाप के बोझ से दबे है। उन्हें कोई नहीं पूछ रहा है। आपके यहॉं भी लालफ़ीताशाही की जकड़न दिख रही है। आपके भैंसे वाले सज्जन जो लोगों का वारंट काटते हैं, आज कल ले देकर लोगों की फ़ाईलों को इधर उधर कर देते हैं जिनका नंबर नहीं है उनका नम्बर पहले लगा देते है और जिनका नम्बर होता है। जो धरती पर बोझ है वह अपनी फ़ाइलों को ग़ायब करा धरती पर मज़ा ले रहे हैं?”

महाकाल मुस्कराए, “तो आपकी पत्रकारिता हमारे दफ़्तर तक पहुँच चुकी है।”

“इसे आप कंटेम्ट मत समझ लिजिएगा महादेव। ऐसी धारणा बन रही है”

इस बात को टाल वे गम्भीर हुए। पूछा, “पर इस वक्त तुम क्यों परेशान हो। तुम बनारस नहीं जा पा रहे हो। इसलिए मैं स्वयं आ गया हूँ। मनुष्य खुद ईश्वर तक नहीं पहुंचता है, बल्कि जब वह तैयार हो जाता है तो ईश्वर खुद उस तक पहुंच जाते हैं।”मुझे लगा सचमुच यह मेरा यह सौभाग्य है। मैं उनके चरणों पर गिर पड़ा।
“अगर आपका इतना स्नेह है। तो इस मुसीबत में मैं अस्पताल में क्यों प्रभु।”
“इसे ही विधि का विधान कहते है। वत्स जीवन मिलता नहीं, उसे निर्मित करना होता है। जन्म मिलता है, जीवन तो खुद से बनाना होता है।आप जैसा बनाएँगे। वैसे प्रतिफल मिलेगें।”
“पर मैंने तो वैसा कुछ नहीं किया है।कि यह रद्दी प्रतिफल मुझे मिले। “

“मृत्यु शाश्वत है वत्स। मनुष्य पैदा होते ही मरना शुरू हो जाता है।तुम जिसको जन्म-दिन कहते हो। वह मृत्यु की घड़ी है, शुरुआत है मृत्यु की। सत्तर वर्ष बाद वह मरेगा, सौ वर्ष बाद मरेगा, मरना आकस्मिक नहीं है कि अचानक आ जाता है, रोज-रोज हम मरते जाते हैं, धीमे-धीमे मरते जाते हैं। मरने की लंबी क्रिया है, जन्म से लेकर मृत्यु तक हम मरते हैं। रोज मरते जाते हैं, थोड़ा-थोड़ा मरते जाते हैं। इसी मरने की लंबी क्रिया को हम जीवन समझ लेते हैं।”

मैं भी डटा रहा, “पर मेरे साथ आप ठीक नहीं कर रहे है। जिस काशी में आप चिता भस्म लगा मज़ा लेते हैं। उसी मिट्टी में जन्म लेने और पलने का मुझे सौभाग्य है। यह आपने ही दिया है ।दुनिया में जातिवाद ,परिवारवाद, क्षेत्रवाद फैला है।क्षेत्र के लिहाज से भी आप मेरा ध्यान नहीं रख रहे है। मैं आपका झन्डा उठाए घूमता हूँ। फिर मैं कैसे घुटते दम के साथ नितातं अकेले अस्पताल में हूँ। आपने खबर तक नहीं ली ।”

“ये जो सफ़ेद कपड़े पहन कर आपकी देखभाल कर रहे है। इस वक्त वही हमारे प्रतिनिधि है। फिर अगर आप मेरे पास नही आ पा रहे है तो मै तो आपके पास आया।”
महादेव की ये बात सुनकर मैं उनके चरणों पर गिर पड़ा।
उन्होने पूछा, “क्या चाहते हो?”

” हे गल भुजंग भस्म अंग! अब तो पहले कोरोना से मुक्ति दिलवाए । कोविड निगेटिव होऊँ ।”

“अरे निगेटिविटी बहुत ख़राब प्रवृति है।तुम्हें उससे बचना चाहिए।वर्तामान में दुनिया का यही संकट है चौतरफ़ा निगेटिविटी फैली है। “
“नहीं भोलेनाथ दुनिया की सारी निगेटिविटी को आपने गरल के तौर पर अपने कण्ठ में रखा हैं ,नीलकण्ठ।”

“ हॉं मैंने उसे गले मे रखा है ।पर उसे गले से नीचे नहीं उतरने दिया है।तभी से यह मुहावरा है कि गले की नीचे नहीं उतर रहा है। “

“तो क्या मैं जान दे दूँ।”

“नहीं फ़िलहाल आप मंगला आरती में शामिल हो।” इतना कहते ही वे ग़ायब हुए। और मैं मंगला आरती की
तैयारियों में खुद को पा रहा था। अद्भुत दृश्य! अद्भुत दर्शन! मंगला आरती यानी बाबा भोले नाथ को जगाकर ,नहला – धुलाकर उनका श्रृंगार और आरती। दो घंटे की इस पूरी प्रक्रिया में मेरा और उनका आमना सामना रहा बीच में कोई नहीं। अनवरत गंगा की जलधार और दुग्ध धार। बाबा गदगद। यह भोलेपन का चरम नहीं तो और क्या है! इतनी ताक़तवर सत्ता और केवल जल से प्रसन्न!

श्रृंगार का ये दृश्य भी आस्था के असीम संसार सा निराला है। श्रृंगार में लगे हुए पुजारी भॉंग धतूरा और न जाने किस किस चीज़ का भोग लगा रहे है। अब मेरी तल्लीनता मेरे फेफड़ों से निकल उनके भोग और जल प्रेम में उलझ चुकी है। सोचने में डूब गया हूं कि इस देव की यूएसपी क्या है? क्यों कोई दूसरा देवता ऐसा नहीं है? ऐसे अनुपम सामंजस्य और अद्भुत समन्वय वाला शिव ही क्यों है ?शिव अर्धनारीश्वर होकर भी काम विजेता हैं। वे गृहस्थ होते हुए भी परम विरक्त हैं। हलाहल पान करने के कारण नीलकण्ठ होकर भी विष से अलिप्त हैं। ऋद्धि-सिद्धियों के स्वामी होकर भी उनसे विलग हैं। उग्र होते हुए भी सौम्य हैं। अकिंचन होते हुए भी सर्वेश्वर हैं। भंगड भिक्षुक होकर भी देवाधिदेव महादेव हैं। यह शिव विरोधाभासों के अनंत महासागर हैं। पर ये विरोधाभास एक दूसरे के विरूद्ध न होकर, पूरक हैं। भयंकर विषधर नाग और सौम्य चन्द्रमा दोनों ही उनके आभूषण हैं। मस्तक में प्रलयकालीन अग्नि और सिर पर परम शीतल गंगाधारा शिव के अनुपम श्रृंगार है। उनके यहां वृषभ और सिंह व मयूर एवं सर्प अपना सहज वैर भाव भुलाकर साथ-साथ खेलते हैं। इतने विरोधी भावों के विलक्षण समन्वय वाला शिव का व्यक्तित्व जीवन शैली के अनंत अमृत से ओतप्रोत है। शिवत्व का दूसरा अर्थ ही दुनिया को सह-अस्तित्व का अनुपम संदेश देना है। रावण शिव तांडव के मंत्रों में शिव की जटाओं में गंगा और मस्तक पर प्रचंड अग्नि की ज्वालाओं का वर्णन करता है। अग्नि और जल के सह अस्तित्व का यही शिवत्व युगों युगों से मानव संतति की प्रेरणा और मार्गदर्शन की नींव बना हुआ है।

मंगला की आरती , रूद्राष्टक की ध्वनियाँ ,मंदिर की घंटियों से टकराते हुए आत्मा के तहखानों में उतर गए। दो घंटे की उपासना के बाद मैं तो बाहर आ गया पर मन वहीं छूट गया। अपनी अस्तित्व के कतरे-कतरे को सार्थक करता हुआ। सुबह के पॉंच बज गए। कमरे में नर्स प्रकट हुंई। अरे मैं तो शायद अपने अवचेतन से बात कर रहा था। फिर रोज़ की जॉंच पड़ताल शुरू। रक्त सैम्पल लिए जाने लगे। ईसीजी ,एक्स रे का दौर शुरू। ….जारी….

हेमंत शर्मा लंबे समय तक जनसत्ता अखबार के लिए लखनऊ में बतौर ब्यूरो चीफ कार्यरत रहे। फिर इंडिया टीवी में वरिष्ठ पद पर रहे। इन दिनों टीवी9भारतवर्ष न्यूज़ चैनल का संचालन कर रहे हैं।

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