दैनिक भास्कर में आज यह फोटो पहले पेज पर प्रमुखता से छपी है। खबर यह है कि नक्सलियों के खौफ से इस महिला ने मतदान करने के बाद लगाए जाने वाले निशान को पत्थर से मिटा दिया। मतदान के बाद लगाया जाने वाला निशान मतदान करने के सबूत के साथ-साथ एक नागरिक के रूप में अपनी जिम्मेदारी निभाने का भी सबूत रहा है। इसके लिए विशेष स्याही बनाई जाती है जो मानव शरीर के लिए उपयुक्त है और आसानी से मिटाई नहीं जा सकती है। हालांकि, यह स्याही कुछ दिनों बाद हल्की होती हुई अपने आप मिट जाती है। पर जब एक ही राज्य में चुनाव कई दिनों तक चलें तो यह कितने दिन में मिटती है इसपर भी ध्यान देने की जरूरत है।
एक ही व्यक्ति एक से ज्यादा बार किसी दूसरे के या अपने नाम से भी वोट न डाल सके इसके लिए यह व्यवस्था की गई है। और वर्षों पहले उस समय उपलब्ध सुविधाओं और तकनीक के आधार पर की गई होगी। अब जब नक्सली और कश्मीर में आतंकवादी चुनाव का बायकाट करते हैं आम लोगों को मतदान में शामिल होने से मना करते हैं तो मतदान का यह निशान लोगों के लिए निजी खतरा भी है। और ऐसे में इसे मिटाना एक मजबूरी है और अगर ऐसे ही चलता रहा तो इसका “बाजार” भी बन जाएगा। लिहाजा इस बात पर भी विचार होना चाहिए कि इसकी जरूरत है कि नहीं और अगर जरूरी ही है तो यह पर्याप्त प्रभावी है कि नहीं और इसका कोई विकल्प हो सकता है कि नहीं।
फोटो कैप्शन में बताया गया है कि विधानसभा चुनाव से पहले लोगों ने उंगली पर स्याही नहीं लगाने की मांग की थी जो मानी नहीं गई। अगर स्याही नहीं लगाने की मांग की गई और मानी नहीं गई तब भी इस महिला ने इसे पत्थर से मिटा लिया तो स्याही की गुणवत्ता पर सवाल उठता है। और यह चुनाव आयोग की योग्यता, सक्षमता और निष्पक्षता पर भी सवाल है। आपको याद होगा कि नोटबंदी के दौरान एक बार नोट बदल लेने वाले लोगों की उंगलियों पर ऐसे ही स्याही लगाने की बात चली थी हालांकि इसे लागू नहीं किया गया। तब यह चुनाव आयोग का विशिष्ट अधिकार माना गया था।
मतदान के बाद उंगलियों पर लगाया जाने वाला निशान अब पहले की तरह जरूरी है कि नहीं – इसपर विचार किए जाने की जरूरत है। खासकर आतंकवादियों और नक्सलियों की धमकी के कारण। इसलिए भी कि इसका असर मतदान पर पड़ ही रहा है और मतदान करने वाले मारे भी गए हैं। दूसरी ओर इसे मिटाने के उपाय भी किए जाते रहे हैं और पिछले दिनों तो पाया गया कि उंगलियों के कवर आ गए हैं। वोट देकर निशान छिपाने के लिए कवर लगा लीजिए। और फिर मतदान कर आइए। अगर निशान जान पर बन आए तो मतदान कम होंगे हीं और अगर किसी कारण निशान न लगाने की मांग हो और इसकी पूर्ति न की जाए तो निशान मिटाने वाले रसायन का बाजार बनेगा।
देखना है आगे क्या होता है। फिलहाल तो खबर यह भी है कि निशान मिट जाते हैं। क्यों और कैसे – चुनाव आयोग जाने।
वरिष्ठ पत्रकार और अनुवादक संजय कुमार सिंह की रिपोर्ट। संपर्क : [email protected]