Mridul Tyagi : तो लीजिए मेहरबान, कद्रदान, साहेबान… हाजिर है, एक हैं मैडम…. एक हैं मैडम-1 …. एक बड़े अखबार का छोटा अखबार था. और उसमें थी एक बहुत मैडम. वो इतनी बड़ी क्यूं थी, कभी समझ नहीं पाए. शायद इसलिए कि वो जो कहती थीं, वो किसी को समझ नहीं आता था, और जो सब कहते थे, वो उन्हें समझ नहीं आता था. कुल मिलाकर अंतर इतना ज्यादा कि तमिल-पंजाबी. टू स्टेट्स यू नो…. कभी-कभी कुछ बातें समझ आ जाती थीं. जब वो कहती थी समथिंग बिग. फिर बहुत बड़ी खबर पर जब वो कहती थीं कि इसमें न्यूज जैसा क्या है, तो लगता था कि सही में न्यूयार्क टाइम्स और घंटाघर बोलता है वाला अंतर है.
जाहिर है, हम लोग घंटाघर बोलता टाइप. एक और बहुत बड़ा अंतर था. वो सिर्फ इंग्लिश जानती थीं, जीती थीं और शायद इसी के दम पर जीतती थी. हम हिंदी वाले. बेहद जमीनी पत्रकारिता वाले. हम ट्रेंडी नहीं थे, वाइब्रेंट नहीं थे, हर बात पर यस मैम कहने वाले नहीं. सीरीज शुरू करने से पहले साफ बता दूं कि ये किसी गुस्से, प्रतिशोध या खामियां निकालने के लिए लिखा जाने वाला परिहास नहीं है. ये हकीकत है, जो मैंने देखी, महसूस की और बहुत से लोग अब भी खामोशी से झेल रहे हैं. कोई भी शख्स कंप्लीट नहीं होता. मैं भी नहीं हूं. बल्कि खामियों और गलतियों का सुपर स्टोर हूं. लेकिन उन्हें जानता हूं, मानता हूं. उन्हें सही बताकर किसी पर थोपता नहीं हूं.
ये लिखना इसलिए जरूरी हो गया है कि जुल्म की इंतहा हो चुकी है. अपनी खामियों को छिपाने के लिए मैंने किसी की बलि नहीं ली. लेकिन यहां छमाही कार्यक्रम है. इसलिए जरूरी है कि इन्हें पता चला कि सबके लब नहीं सिले हुए. मेरे तो वहां रहते भी सिले हुए नहीं थी. लेकिन पब्लिक प्लेटफार्म पर अब इनके कारनामो का एक्सपोजर जरूरी है. जिसे बुरा लगे आंख बंद कर ले. मुझे ब्लॉक कर दे. सिर्फ जी हुजूरी पर जिंदा मैडम भक्तों को बता दूं कि जुल्म की हिमायत भी जुल्म जितना बड़ा ही गुनाह है.
कल पढ़िए न काहु से दोस्ती, न काहु से बैर
– एक ऐसा वाकया जिसे पढ़कर आप कहेंगे, ऐसे लोग भी अखबार में हैं….
आई-नेक्स्ट समेत कई अखबारों में काम कर चुके वरिष्ठ पत्रकार मृदुल त्यागी के फेसबुक वॉल से.