सुनते आये हैं जो आया है वो जाएगा भी। सभी को जाना है लेकिन किस तरह से ? क्षमा करेंगे, एक और चला गया, पहले भी कई गए हैं। एकता के नारे लगाये जा रहे हैं। हक़ और बदले की भी बातें हो रहीं। कोई कम तो कोई ज्यादा आक्रमक भी है, जमात के लोग अपने अपने अंदाज में अपने अपने झंडे भी बुलंद कर रहे हैं। परिणाम की सुधि किसे है, ये बड़ा प्रश्न हो सकता है।
साथ ही ये भी प्रश्न है कि शहीद का परिजन किस हाल में है। उस शहीद के जाने के बाद। इसकी सुधि हमें नहीं लेनी चाहिए ? लेकिन क्या इस बात के लिए आवाज नहीं उठाई जानी चाहिए। मोमबत्तियां जलाकर या सड़कों पर निकल, ज्ञापन देकर हम भले ही अपने दिल को बहला लें और दूसरों को दिखा लें लेकिन कड़वी बात तो यह है कि क्या हमने विरोध स्वरूप एक दिन के लिए भी पुलिस या प्रशासन या फिर राजनेताओं के समाचार से परहेज किया ? थाना, नेता या फिर प्रशासन के सामने हम अपनी नाराजगी इस लिए नहीं दिखा सकते (जो दिखावा चल रहा है वो नहीं ) क्योंकि कल से हमारी दुकानदारी बंद हो जाएगी।
जनाब, आज की पत्रकारिता तेल लगाकर, दांत निपोरकर, वाहवाही करके, अपने ही सहयोगियों की निंदा कर और अधिकारीयों सहित थाने की गणेश परिक्रमा पर चल रही है, जो नहीं कर पाते, वो अब बेवकूफ माने जाते हैं । हम उस दौर में हैं जब हर कोई एक दूसरे का शिकार तलाश रहा है क्योंकि हम परतकार (पत्रकार) हैं। शहीद और उनके परिजनों से हम शर्मिंदा हैं, हम माफ़ी लायक नहीं हैं, फिर भी हमें माफ़ करें।
लेखक डॉ.संतोष ओझा से संपर्क : 9889881111