न्यायमूर्ति झा आयोग की रिपोर्ट से सरदार सरोवर विस्थापितों के पुनर्वास में हुए भयावह भ्रष्टाचार की पोलखोल हो चुकी है। पुनर्वास के हर पहलू में भ्रष्टाचार के कारण न केवल विस्थापित वंचित रहे हैं बल्कि जा सकता है। कानूनन् इसके तहत् अपराधिक प्रकरण दोषियों के खिलाफ दर्ज होना तो निश्चित है लेकिन आज, रिपोर्ट पर उच्च न्यायालय की सुनवाई न होते हुए, उच्च न्यायालय का 16/2/2016 का आदेश ‘‘ स्टे ‘‘ करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं राज्य शासन को रिपोर्ट सुपूर्द करके निर्देश दिया कि आप झा आयोग के रिपोर्ट के आधार पर कार्यवाही करके कार्यवाही रिपोर्ट (एटीआर) सर्वोच्च अदालत में पेश करे व आंदोलन को भी याचिकाकर्ता ने नाते एक प्रति दीजिये।
राज्य शासन ने कार्यवाही प्रस्तुत की है, उसके संबंध में सवाल उभरा है, ‘‘ दोषी कौन ‘‘? इसमें झा आयोग ने लिए 8000 से अधिक बयानों से जो दलालों की सूची सामने आयी है, उनमें कुछ 3 भू-अर्जन अधिकारी (एनवीडीए) 5 भूअर्जन व पुनर्वास कार्यालय में कार्य करने वाले कर्मचारी, 34 पटवारी, 41 अन्य शासकीय कर्मचारी, एक तहसीलदार तथा 15 अधिवक्ताओं का समावेश है। इसके अलावा रजिस्ट्री व राजस्व कार्यालय से या र्कोअ से जुड़कर व्यवसाय करने वाले स्टेम्प वेन्डर्स, टायपिस्टस् जैसे 11 व्यावसायिक भी शामिल है।
झा आयोग की रिपोर्ट में फर्जी रजिस्ट्रीयों के संबंध में। न्या. निष्कर्ष है फर्जी रजिस्ट्रियों हुई क्योकि एसआरपी (जमीन के बदले नगद-विशेष पुनर्वास अनुदान की नीति ही गलत थी) है। साथ ही घर के लिए दिये भू-खण्ड के साथ जुड़ा सही वैकल्पिक खेत जमीन, पुनर्वास स्थल के पास सिंचित भूमि आबंटन के लिए उपलब्ध नहीं थी। साथ ही आयोग ने दलाल व अधिकारीयों का गठजोड था, इस बात को प्रकाश में लाया है और इसका आधार क्या था इसका विवरण भी निष्कर्षों में दिया हुआ है।
अधिकारियों ने रजिस्ट्री किसी विस्थापित से (प्रत्यक्ष में कईयों के बयान अनुसार, झा आयोग का निष्कर्ष है, रजिस्ट्रियां पेश करने का काम दलाल ने ही किया) पेश होने बाद, जांच के बयानों के अनुसार, उन्होने जांच नहीं की क्योंकि…
1. राज्य जिन संघ से डेप्युटेशन पर पुनर्वास कार्य में भेजे गये तो उन्हें राजस्व प्रक्रिया पूरी रूप से अवगत नहीं।
2. उन्हें 12/6/2007 के भोपाल में संपन्न हुई बैठक से, जिसमें कई अधिकारी उपस्थित थे, यह लिखित निर्देश दिये गये थे कि वे, प्रस्तुत हुई रजिस्ट्री की जांच एक या अधिकतम 3 दिनों में करे, जिसके कारण जांच संभव नहीं थी।
ये कारण अधिकारियों को ‘‘ निरपराध ‘‘ साबित नहीं कर सकते। जबकि राज्य शासन ने क्रेता, विक्रेता, दलालों के खिलाफ एफआयआर दाखल करना प्रस्तावित किया है तो, उपरोक्त सूची में ‘‘ दलाल ‘‘ के रूप में नाम शामिल हुए अधिकारियों के खिलाफ भी प्रकरण दर्ज होना जरूरी है। भ्रष्टाचार प्रतिबंधक कानून, 1988 की धारा 13 (1) (डी) के अनुसार किसी अधिकारी ने जिम्मेदारी कर्तव्य अनुसार कार्य न करने से या कोई गलत कार्यवाही करने से, किसी व्यक्ति को गैरकानूनी लाभ अगर प्राप्त हुआ, तो वह भ्रष्टाचार माना जाता है। म.प्र. शासन, जवाब दो!
(मेधा पाटकर)
(अमूल्य निधि)
(राहुल यादव)
नर्मदा बचाओ आंदोलन
संपर्क न. 9179617513
प्रेस विज्ञप्ति