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मेरी अमेरिका यात्रा (3): अमेरिकी बाज़ार पर सबसे ज्यादा छाप आपको चीन की मिलेगी

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यह नज़ारा सेन फ्रांसिस्को के लोम्बार्ड स्ट्रीट का है. यह कोई पार्क नहीं बल्कि एक कॉलोनी है जिस पर लोगों के घर बने हुए हैं. कितने भाग्यशाली हैं ये लोग जिनका घर ऐसी जगह पर है. हालांकि कितनी मेहनत की होगी अमेरिका ने खुद को यहां तक पहुंचाने में और क्या योगदान दिया होगा उन लोगों ने जिनका यहां घर है, विकीपीडिया के अनुसार लोम्बार्ड स्ट्रीट सैन फ्रांसिस्को, कैलिफोर्निया में एक पूर्व पश्चिम सड़क है, जो खड़ी ऊंचाई के एक ब्लॉक के लिए प्रसिद्ध है इसमें आठ तीव्र घुमावदार मोड़ हैं. इस सड़क का नाम सैन फ्रांसिस्को सर्वेक्षक जैस्पर ओ फर्रैल ने फिलाडेल्फिया की लोम्बार्ड स्ट्रीट के नाम पर रखा था. कई फिल्मकारों ने अपनी फिल्म में इस सड़क को बेहतरीन तरीके से इस्तेमाल किया है.

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यह नज़ारा सेन फ्रांसिस्को के लोम्बार्ड स्ट्रीट का है. यह कोई पार्क नहीं बल्कि एक कॉलोनी है जिस पर लोगों के घर बने हुए हैं. कितने भाग्यशाली हैं ये लोग जिनका घर ऐसी जगह पर है. हालांकि कितनी मेहनत की होगी अमेरिका ने खुद को यहां तक पहुंचाने में और क्या योगदान दिया होगा उन लोगों ने जिनका यहां घर है, विकीपीडिया के अनुसार लोम्बार्ड स्ट्रीट सैन फ्रांसिस्को, कैलिफोर्निया में एक पूर्व पश्चिम सड़क है, जो खड़ी ऊंचाई के एक ब्लॉक के लिए प्रसिद्ध है इसमें आठ तीव्र घुमावदार मोड़ हैं. इस सड़क का नाम सैन फ्रांसिस्को सर्वेक्षक जैस्पर ओ फर्रैल ने फिलाडेल्फिया की लोम्बार्ड स्ट्रीट के नाम पर रखा था. कई फिल्मकारों ने अपनी फिल्म में इस सड़क को बेहतरीन तरीके से इस्तेमाल किया है.

इन्हीं सब के बारे में सोचते हुए मंत्रमुग्ध सा घूम रहे थे कि फ्लोरिडा के श्री चंद्रकांत पटेल का फोन आया. भाजपा के ओवरसीज़ फ्रेंड नामक संगठन के अध्यक्ष रहे श्री पटेल समूचे अमेरिका के बड़े शहरों में घूम-घूम कर चाय पार्टी आयोजित करने और श्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा की तैयारियों में व्यस्त थे. संयोग से दो दिन पहले उनका लॉस एंजिल्स में कार्यक्रम था लेकिन उस समय लॉस वेगास में होने के कारण हम इस बड़े यज्ञ में आहूति देने से वंचित रह गए. उस समय वो न्यूयार्क में थे और संयोग से कुछ देर पहले ही वहां छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह जी से मिल कर ही आये थे. सीएम वहां चिकित्सा से संबंधित एक पारिवारिक यात्रा पर थे. श्री पटेल ने विस्तार से बताया कि किस तरह समूचे अमेरिका में मोदी जी की यात्रा को लेकर उत्साह है. कैसे यात्रा शुरू होने से महीने भर पहले ही सारे पंजीयन हो गए हैं. किस तरह लॉटरी से वहां प्रतिभागियों का चयन होना है. तैयारियों के सिलसिले में भारत से गए जयपुर के सांसद प्रसिद्द ओलम्पिक विजेता राज्यवर्धन सिंह राठौर से भी बात हुई, वे भी प्रस्तावित यात्रा से काफी उत्साहित दिखे.

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तो वहीं घूमते हुए सोच रहा था कि अपनी यात्रा ऐसे समय में हो रही है जब चीन के राष्ट्रपति भारत आने वाले हैं उसके बाद खुद प्रधानमंत्री मोदी अमेरिका की यात्रा पर जाने वाले हैं. लॉस एंजिल्स से अपनी सेन फ्रांसिस्को तक की यात्रा भी चीनियों की मदद से ही हो रही थी. एक मिनट के लिए अगर आप अमेरिकी नागरिक होकर सोचे तो आतंक जैसा होगा चीनियों का वहां प्रभाव देख कर. अपनी सस्ती और टिकाऊ सेवा देने के कारण उसने लगभग समूचे अमेरिका की अर्थव्यवस्था पर कब्ज़ा जैसा कर लिया है. भाई लॉस एंजिल्स में बता रहे थे कि आज अमेरिका का लगभग सारा अमेरिकी सरकारी बांड चीन ने खरीद कर रखा हुआ है. यानी चीनी जब चाहें तभी अमेरिका की अर्थव्यवस्था को तबाह कर सकते हैं. लॉस एंजिल्स से हमने चीनी बस से ही तीन दिन की यात्रा का पॅकेज लिया था. बस ओपरेट करने वाले से लेकर ड्राइवर और गाइड सभी चीनी होते हैं उस बस में. इसके अलावा कोई अमेरिकन यात्रा करते हुए भी इस पैकेज में नज़र नहीं आयेगा. यानी घूमने वाले चीनी और भारतीय, रूसी नागरिक आदि और घुमाने वाले चीनी लेकिन अमेरिका की ज़मीन होने के बावजूद अमेरिकनों की कोई भूमिका नहीं. यात्रा इतनी सस्ती कि आप भारत में भी कल्पना नहीं कर सकते. भारतीय रूपये में मुश्किल से 10 से 12 हज़ार रूपये की रकम में तीन दिन सेनफ्रांसिस्को में घूमना, वहां तक जाना और स्टार होटल में रुकने का सारा इंतज़ाम. अगर आप तीन लोग हों तो एक का किराया भी मुफ्त. इस तरह के इंतज़ाम की उम्मीद आप चीनियों के अलावा और किसी से नहीं कर सकते.

और सवाल केवल इस यात्रा का ही नहीं है. समूचे अमेरिका के बाज़ार पर सबसे ज्यादा छाप आपको चीन का ही देखने को मिलेगा. बड़े-बड़े शोपिंग स्टोर्स, होटल्स से लेकर बस सर्विस आदि का चेन उन्होंने खड़ा करके रखा है समूचे देश में. ऐसे-ऐसे दानवाकार शोपिंग सेंटर जहां बजाप्ता चीनियों ने छोटा सा तालाब जैसा तक बना कर रखा है. आपको एक्वेरियम जैसे माहौल में मछलियां तैरती नज़र आयेगी जिसमें आपके द्वारा पसंद करने पर उसी समय उस मछली को मार कर आपको दे दिया जाएगा.

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लॉस एंजिल्स का चाइना टाउन, जहां से बस लेकर आप केलिफोर्निया भर में घूम सकते हैं

समूचे अमेरिका में पसरे चाइना टाउन नाम के इस ‘शहर’ में आपको ऐसा ही लगेगा जैसे आप चाइना में ही हों. खान-पान-चेहरे-संस्कृति-भाषा सब चीनी. कोई भारतीय अगर अंग्रेज़ी नहीं जानता हो तो उसे अमेरिका में दिक्कत हो सकती है लेकिन मंदारिन भाषी लोगों को कोई समस्या नहीं आनी है. वे लोग बिलकुल ऐसे घूम सकते हैं जैसे अपने ही देश में हो. चंद्रकांत पटेल जी का ही एक सन्दर्भ याद आ गया. वे पहले छत्तीसगढ़ के ही एक छोटे से कस्बे चिरमिरी से पूर्वी अमेरिका के फ्लोरिडा गए थे. वहां उन्होंने अच्छे दिन में काफी बड़ा कारोबार जमाया. कंप्यूटर का पार्ट्स बनाने की उनकी दो फैक्ट्री है वहां पर. छग में वे भाजपा के प्रखंड ध्यक्ष थे तो वहां भी श्री पटेल ‘ओवरसीज़ फ्रेंड ऑफ बीजेपी’ से जुड़ गए और बाद में इस भाजपाई संगठन के वे अध्यक्ष भी बने. अपनी भारत यात्रा के समय एक बार उन्होंने अपना हाल बताते हुए कहा था कि चीनियों द्वारा सस्ता माल डम्प करते जाने के कारण अब श्री पटेल की कंपनी के भी बुरे हाल हैं. अमेरिकन तो खैर बर्बाद होने की कगार पर ही हैं. जिज्ञासावश उनसे हमने पूछा था कि ऐसे में आखिर उनका काम कैसे चल पा रहा है वहां तो इस पर उनका जवाब दिलचस्प था. पटेल ने कहा कि भारत की तरह ही अमेरिका में भी ‘देशभक्त’ संगठन अभी बचे हैं जो ‘मेड इन अमेरिका’ सामान की ही मांग करता है जिससे किसी तरह उनका कारोबार बचा हुआ है. ज़रा अफ़सोस ही हुआ अमेरिका पर कि खुद के देश में बना समझ कर भी वो जिस सामान को खरीद रहे हैं उसका पैसा भी अंततः भारत के एक छोटे प्रदेश के चिरीमिरी तक पहुंच रहा है.

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तो क्या यह मान लिया जाय कि अमेरिका का सूरज अब बिलकुल पूर्व की ओर चला आया है? क्या सच में उसका भविष्य अब गर्त में है? क्या सच में अब ओबामा के कहे पर ध्यान देना चाहिए की अगर अब भी ढंग से पढ़ना-लिखना अमेरिकनों ने शुरू नहीं किया तो पश्चिम एशिया वाले उनकी थाली को ले उड़ेंगे? अमेरिका जैसे विशाल देश के बारे में आप झटके में कोई फैसला तो नहीं सुना सकते. आखिर आज भी वो सामरिक महाशक्ति है. प्रकृति ने जी भर के संपदा लुटाई है उस पर. भारत का एक तिहाई जनसंख्या होने के बावजूद उसके पास भारत से तीन गुना ज्यादा ज़मीन उसके पास है. यानी भारत के औसत नागरिक से वहां के औसत नागरिक को 9 गुना से ज्यादा अमीर तो प्रकृति ने ही बना दिया है. सोवियत रूस के विघटन के बाद सामरिक और आणविक मामले में भी सबसे बड़ी ताकत होने के कारण वैसे कोई चुनौती तो नहीं है उसके पास लेकिन अब निश्चित ही यह अमे शायद आ गया है उसके लिए कि ज़रा अपना कमर कसना वो शुरू करे. दुनिया भर को कभी अपना बाज़ार बना देने वाले अमेरिका में अगर आज चीन ने उसके ही बाज़ार पर कब्ज़ा किये हुए है, आज अगर भारत के प्रतिभावान लोगों की भी पहली पसंद वही बना बैठा है तो ज़रा सी शिकन तो अब अमेरिका के चेहरे पर आना स्वाभाविक ही है.

एक अमेरिकन की तरह जब आप उस देश के बारे में सोचेंगे तो दो-तीन चीज़ आपको फिर भी आश्वस्त करती नज़र आयेगी. पहली तो लाखों एकड़ की ऐसी ज़मीन जो अभी अनुर्वर पड़ी हुई है उसे ज़रूरत हिसाब से वो उपजाऊ बना कर अपनी आमदनी बढ़ा सकता हैं. इसके अलावा केलिफोर्निया का लाखों वर्ग किलोमीटर के रेगिस्तान में भी न मालूम क्या-क्या खनिज संपदा उसके गर्भ में छिपे हुए हों जिसे कभी वो संकट के समय इस्तेमाल कर सकता है. भाई बता रहे थे कि इस रेगिस्तान में प्रचुर मात्रा में सोना होने की संभावना है, इसी संभावना के मद्देनज़र समूचे केलिफोर्निया, जो कभी मैक्सिको का हिस्सा हुआ करता था, अमेरिका ने एक डॉलर की कीमत पर उससे ‘खरीद’ लिया था. भारत से बीस गुना ज्यादा तेल खपत करने के बावजूद अमेरिका के पास 30 साल तक खर्च होने योग्य तैयार तेल का भण्डार है जिसे वह कभी छूता भी नहीं. शायद कभी संकट के समय पांच-दस साल का तेल बेच कर ही वो क़र्ज़ से मुक्त हो जाय. और इस सबके अलावा सबसे बड़ी बात ये कि अंततः अमेरिका तभी तक चीन को भी झेलेगा जब तक पानी उसके नाक के नीचे है. अपने अस्तित्व पर संकट आने के बाद तो खैर वह तीसरी डिग्री इस्तेमाल करने से बाज़ भी आयेगा नहीं जैसा उसने लगातार किया भी है. फ्रांसिस्को की खाड़ी के जहाज में आपको विस्तार से आपकी भाषा में ही बताया जाता है कि इतिहास में उसने कैसे चीनियों को यहां से भाग्या और कैसे कालापानी जैसे द्वीप पर उन्हें गिरफ्तार करके भी रखा. खैर.

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अब जब भारत का ताज़ा जनादेश पाया नया नेतृत्व अमेरिका में पहुंच चुका है तो उम्मीद की जा सकती है कि दोनों देश आपस में साझेदारी से एक नए आर्थिक युग का सूत्रपात करेंगे. दोनों देश के बीच बढ़ते सम्पर्क से न केवल भारत बल्कि अमेरिका को भी इतना ही लाभ होने की उम्मीद है. खैर. सियासत और व्यवसाय की बात सियासत के लोग जानें. अपन तो चीन की चर्चा के साथ इस कड़ी को शुरू किया था तो उसी से संबंधित एक ख़ूबसूरत चर्चा के साथ इस कड़ी को विराम देंगे.

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लॉस एंजिल्स के चाइना टाउन से सेन फ्रांसिस्को और वहां से फिर वापसी की तीन दिनी पैकेज यात्रा की ये सुन्दर युवती भी हमसफर थी. जियान या जियाह इसी तरह कुछ नाम था इनका. मैं भारत से हूं ये जान कर चहक उठी. बोली की हाल ही में उसने एक भारतीय फिल्म देखा है. नाम उसे याद नहीं था लेकिन कहानी कुछ ऐसी थी कि एक भारतीय हिरोइन या हीरो पढ़ने के लिए अमेरिका आता/आती है. यहां उसे प्यार हो जाता है. फिर उसके शब्दों में लौट्स ऑफ डांस, म्यूजिक, सोंग, एस्ट्रेस्ट्रा…! काफ़ी अच्छी लगी थी उसे वो फिल्म. हिन्दी-चीनी भाई-भाई वाले नारे से भी उसे अवगत कराने की अपन ने कोशिश की. हालांकि भारत को वो केवल इस फिल्म से ही जानती थी. पहले न तो इसने कभी नरेंद्र मोदी का नाम सुना था और न ही दलाई लामा का, ये जान कर आश्चर्य लगा था. उसकी अनुमति या आग्रह से ही ये फोटो भी लिया उसका, उसने भी खूब लिए फोटो. अच्छा लगा. फेसबुक इस्तेमाल नहीं करती सो दुबारा खोजना संभव नहीं होगा. जी मेल की आईडी दी वो लेकिन खो गया पर्ची यहां आते-आते. ज़ाहिर है खूब अच्छा लगा था और यादगार हो गयी थी वह यात्रा भी.

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तो बात चाहे जिनपिंग की भारत यात्रा की हो या मोदी की अमेरिका यात्रा की. आम आदमी को इन सबसे कोई ख़ास मतलब नहीं होता जैसे इस लड़की को नहीं था कोई मतलब. तो सत्ता की बात सत्ताधीश जानें हर देश के. हम जनता को क्या फायदा किसी ऐसी दुश्मनी से यार. ऐसे ही हंसते-हंसाते रहो. जीयो और जीने दो. बुद्ध के देश के सन्देश को अंगीकार करो और चीन को भी इस लड़की की तरह ही सुन्दर और खुशहाल बने रहने दो. चार दिन की तो जिन्दगी है यार. इस सफ़र की तरह एक और बड़े सफ़र पर जाना ही है तुम्हें, हमें, सभी को. फिर तुम कहां और मैं कहां? जिनपिंग जब गांधी आश्रम में गए होंगे तो उनके कान में भी निश्चय ही ऐसा ही कुछ कहा होगा गांधी ने. ऐसा ही कोई सन्देश देने नए नरेंद्र भी शायद गए हैं अमेरिका की यात्रा पर. शुभ यात्रा.

लेखक पंकज कुमार झा पत्रकार और बीजेपी एक्टिविस्ट हैं। लेखक का अमेरीका यात्रा वृत्तांत आगे भी जारी रहेगा।

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इन्हे भी पढ़ें:

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