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स्व. अतुल जी के साथ चले गए अमर उजाला के सिद्धांत

पिछले दिनों अमर उजाला के नवोन्मेषक स्व. अतुल माहेश्वरी जी की पुण्यतिथि थी। अमर उजाला ने उनको याद करने की औपचारिकता भी निभाई, मगर सवाल यह है कि क्या अमर उजाला की नई मैनेजमेंट के दिमाग में उनकी नीतियां व दूरगामी सोच अभी अमर उजाला में जिंदा या है या फिर उनके साथ ही उनके मूल्यों का भी देहावसान हो चुका है। वैसे मौजूदा परिस्थितियों का आकलन करें, तो ऐसा लग नहीं रहा कि उनके जाने के बाद उनके द्वारा स्थापित सिद्धांतों तथा मूल्यों को पोषित किया जा रहा है। अब हालात बदल चुके हैं। शायद ऐसा होना भी चाहिए, क्योंकि हर व्यक्ति एक जैसा नहीं होता, मगर एक पद की परंपरा व मूल्य एक जैसे हो सकते हैं। ऐसा होने से ही तो आदर्श स्थापित होते हैं। अब असल बात यह है कि स्व. अतुल जी के निधन के बाद अमर उजाला में स्थापित मूल्यों का पतन होता जा रहा है या यह कहें कि उनकी हत्या कर दी गई है या नहीं।

<p>पिछले दिनों अमर उजाला के नवोन्मेषक स्व. अतुल माहेश्वरी जी की पुण्यतिथि थी। अमर उजाला ने उनको याद करने की औपचारिकता भी निभाई, मगर सवाल यह है कि क्या अमर उजाला की नई मैनेजमेंट के दिमाग में उनकी नीतियां व दूरगामी सोच अभी अमर उजाला में जिंदा या है या फिर उनके साथ ही उनके मूल्यों का भी देहावसान हो चुका है। वैसे मौजूदा परिस्थितियों का आकलन करें, तो ऐसा लग नहीं रहा कि उनके जाने के बाद उनके द्वारा स्थापित सिद्धांतों तथा मूल्यों को पोषित किया जा रहा है। अब हालात बदल चुके हैं। शायद ऐसा होना भी चाहिए, क्योंकि हर व्यक्ति एक जैसा नहीं होता, मगर एक पद की परंपरा व मूल्य एक जैसे हो सकते हैं। ऐसा होने से ही तो आदर्श स्थापित होते हैं। अब असल बात यह है कि स्व. अतुल जी के निधन के बाद अमर उजाला में स्थापित मूल्यों का पतन होता जा रहा है या यह कहें कि उनकी हत्या कर दी गई है या नहीं।</p>

पिछले दिनों अमर उजाला के नवोन्मेषक स्व. अतुल माहेश्वरी जी की पुण्यतिथि थी। अमर उजाला ने उनको याद करने की औपचारिकता भी निभाई, मगर सवाल यह है कि क्या अमर उजाला की नई मैनेजमेंट के दिमाग में उनकी नीतियां व दूरगामी सोच अभी अमर उजाला में जिंदा या है या फिर उनके साथ ही उनके मूल्यों का भी देहावसान हो चुका है। वैसे मौजूदा परिस्थितियों का आकलन करें, तो ऐसा लग नहीं रहा कि उनके जाने के बाद उनके द्वारा स्थापित सिद्धांतों तथा मूल्यों को पोषित किया जा रहा है। अब हालात बदल चुके हैं। शायद ऐसा होना भी चाहिए, क्योंकि हर व्यक्ति एक जैसा नहीं होता, मगर एक पद की परंपरा व मूल्य एक जैसे हो सकते हैं। ऐसा होने से ही तो आदर्श स्थापित होते हैं। अब असल बात यह है कि स्व. अतुल जी के निधन के बाद अमर उजाला में स्थापित मूल्यों का पतन होता जा रहा है या यह कहें कि उनकी हत्या कर दी गई है या नहीं।

अमर उजाला के मूल्यों व स्थापित परंपरा की चरचा से पहले मैं एक ऐसा वाक्या बताना चाहता हूं, जो स्व. अतुल जी द्वारा स्थापित मूल्यों व पत्रकारिता के सिद्धांतों से जुड़ी उनकी दूरदर्शी सोच के साथ-साथ अपने साथ जुड़े हर छोटे-बड़े कर्मी के प्रति उनके व्यवहार से जुड़े अनगिनत किस्सों में से एक है। बात हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला ब्यूरो की है। उस सयम अमर उजाला को हिमाचल में आए कुछ अर्सा ही हुआ था। उस दौरान कारपोरेट परंपरा के तहत सब कुछ संपादकों व मैनेजरों पर नहीं छोड़ा गया था। एक मालिक व समूह का प्रबंध निदेशक होने के नाते स्व. अतुल जी का ध्यान केवल बैलेंस शीट पर नहीं होता था, वे संपादकीय विभाग पर खास पकड़ रखते थे। यहां तक कि फुर्सत मिलने पर हर एडिशन पर नजर मारते थे और कमियों को पकड़ कर दूर करने का प्रयास करते थे। इसी कड़ी में एक बार किसी कस्बे में रखे गए एक अवैतनिक रिपोर्टर ने अपनी खबर न छपने को लेकर स्व. अतुल जी को पत्र लिख दिया और शिकायत की कि उनकी खबरों को प्रकाशित नहीं किया जा रहा है, जबकि वह रोज फैक्स का खर्च भी कर रहा है और उसे वेतन भी नहीं दिया जाता। ऐसे में क्या कारण है कि उसकी खबरों को जगह नहीं दी जा रही।

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यह पत्र पहुंचते ही अतुल जी ने तुरंत इस पर एक्शन लेते हुए सीधे धर्मशाला ब्यूरो को पत्र लिख कर इस अवैतनिक संवाददाता की खबरों को प्रकाशित न करने की वजह पूछी और यह तक कहा कि अगर कोई देहात का रिपोर्टर मेहनत करके हमें अपने खर्च पर खबर भेज रहा है, तो उसे प्रकाशित क्यों नहीं किया जाता। उनके पत्र लिखने मात्र से यह संदेश चला गया कि ब्यूरो चीफ या संपादक अपनी मनमानी करके किसी व्यक्ति का इस तरह इस्तेमाल नहीं कर सकते। अगर उसे रखा गया है और वह अपने जेब खर्च से खबरें भेज रहा है, तो उसे प्रकाशित भी किया जाए। अगर कमी है तो उसे ब्यूरो स्तर पर दुरुस्त किया जाए। इतना ही नहीं अतुल जी के कहने पर ऐसे संवाददाताओं को खबरें भेजने का खर्च तक लगाया गया। हालांकि यह खर्च महज तीन सौ से पांच सौ रुपये तक था, मगर हैरानी की बात है कि आज भी इन रिपोर्टरों को इतनी ही राशि दी जा रही है। बड़ी बात तो यह है कि इन्हें अमर उजाला आज तक आईकार्ड तक नहीं दे पाया है, जबकि बाकी अखबारों में हर स्टींगर को अवैतनिक कर्मी का ही सही एक आईकार्ड तो दिया जाता है। ऊपर से विज्ञापन की शर्त के साथ-साथ एक ब्लैंक चैक, एक पांच हजार रुपये का चैक और शपथपत्र भी मांगा जा रहा है, जैसे ये अमर उजाला के स्टींगर न होकर कोई ब्लैकमेलिंग एजेंट हों। 

अब बात करें अमर उजाला के गिरते स्तर की, तो संपादकीय विभाग को विज्ञापन एकत्रित करने के काम से दूर रखने वाला यह अखबार अब अपने अवैतनिक संवाददाताओं को विज्ञापन के टारगेट देने की होड़ में कूद पड़ा है। जिन मूल्यों को स्व. अतुल जी ने संजो कर रखा था और जिनके दम पर अमर उजाला को एक शालिन व निष्पक्ष समाचार पत्र कहा जाता था वे मूल्य आज गटर में चले गए हैं। अब अमर उजाला के विज्ञापन प्रबंधक हर दूसरे-तीसरे माह ब्यूरो कार्यालय में पहुंच कर रिपोर्टरों के टारगेट फिक्स कर रहे हैं और टारगेट पूरा न करने पर खबरें रोकने की धमकियां दी जा रही हैं। ऐसा हिमाचल में तो हो ही रहा है, बाकी जगह की जानकरी नहीं है।

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शर्मनाक बात यह है कि जो स्टींगर या अवैतनिक संवाददाता बिना पगार के महज तीन सौ से पांच सौ रुपये के मानदेय पर जेबखर्चें से इस अखबार में पिछले 16 वर्षों से काम कर रहे थे। जिन्होंने अमर उजाला को हिमाचल में नंबर एक की दौड़ में शामिल किया, आज उनका मानदेय तो बढ़ाया नहीं जा रहा, उल्टे उन्हें विज्ञापन एकत्रित करने का टारगेट देकर खबरें रोकने की धमकियां मिल रही हैं। कुछ रिपोर्टरों ने तो साफ कह दिया है कि निकालना है तो निकाल दो। वैसे भी वो अमर उजाला के मानदेय पर तो जी नहीं रहे, अपना बिजनेस करके परिवार पाल रहे हैं। ब्लैकमेलिंग न करने की आदत उन्हें परंपरा से मिली थी, जिसे अब छिनने की कोशिश चल रही है। उन्हें भी अब खबरें लिखने के बजाय बाकी समाचारपत्रों की तरह ब्लैकमेलिंग या फिर गिड़गिड़ाकर विज्ञापन एकत्रित करने को कहा जा रहा है। हालांकि दूसरे समाचारपत्र ऐसे रिपोर्टरों को कमीशन के अलावा अमर उजाला से कहीं ज्यादा मानदेय देते हैं, मगर यहां तो मानदेय इतना है कि मोबाइल का खर्च भी पूरा न हो।

चलो अब बात करें अमर उजाला के मूल्यों की, तो ये मूल्य अब खत्म हो गए हैं। शायद मालिक लोग बैलेंसशीट चैक करने में मस्त हैं और संपादकों को मैनेजरों के हवाले कर दिया गया है। एक मैनेजर जो कोकाकोला कंपनी या फिर किसी साबून बेचने वाली कंपनी से उठाया गया है, वह अखबार भी कोकाकोला व साबून की तरह ही बेचने की कोशिश करेगा ही। इसमें उसका दोष नहीं, उसे अखबार के संपादकीस पक्ष की समझ नहीं है और उस पर टारगेट का दबाव भी है। ऐसे में अखबार के संपादकीय की संवेदना समझने का काम तो मालिक ही कर सकता है। ऐसे में मालिक को ही इसकी समझ न हो या इसे समझना न चाहे तो क्या कर सकते हैं। ऐसे में मूल्यों की बात करने वाले लोगों को नमस्कार कर दिया जाता है।

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लाला जी मैनेजरों के आंकड़ों की चकाचौंध में उलझे रहेंगे और अपने निचले स्तर के कर्मियों से संवाद तोड़ देंगे तो स्व. अतुल जी जैसे संस्कार व मूल्य तो खुद ही दम तोड़ देंगे। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि अब मूल्यवान अखबार अपनी छवि बदलकर अपने प्रतिद्विद्वियों की राह पर है, जो मूल्यों को पहले ही तिलांजली देकर मुनाफा कमाने वाली कंपनियों में बदल चुके हैं। वे शेयर मार्किटों से पैसा बटोर कर पूरे विश्व में नंबर वन बनने की होड़ में है, मगर अपनी श्रम शक्ति को कुचलकर व बौद्धिक संपदा को खोने वाली कंपनियां ज्यादा देर तक टिक नहीं पातीं। वैसे भी अखबरों का रॉ मेटिरियल खबरें ही हैं। भले ही विज्ञापनों के बाद इन्हें जगह मिलती है, मगर पाठक विज्ञापन के लिए अखबार नहीं नेता, बल्कि खबर के लिए अखबार खरीदकर विज्ञापन तक पहुंचता है।  अमर उजाला के मामले में अभी तक कोई ज्यादा देर नहीं हुई है, मगर देर हुई तो घातक होगी। अमर उजाला को चाहने वाले इस स्थिति को देखना पसंद नहीं कर सकते।

रविंद्र अग्रवाल
वरिष्ठ पत्रकार
हिमाचल प्रदेश
संपर्क: 9816103265

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