स्व. अतुल जी के साथ चले गए अमर उजाला के सिद्धांत

पिछले दिनों अमर उजाला के नवोन्मेषक स्व. अतुल माहेश्वरी जी की पुण्यतिथि थी। अमर उजाला ने उनको याद करने की औपचारिकता भी निभाई, मगर सवाल यह है कि क्या अमर उजाला की नई मैनेजमेंट के दिमाग में उनकी नीतियां व दूरगामी सोच अभी अमर उजाला में जिंदा या है या फिर उनके साथ ही उनके मूल्यों का भी देहावसान हो चुका है। वैसे मौजूदा परिस्थितियों का आकलन करें, तो ऐसा लग नहीं रहा कि उनके जाने के बाद उनके द्वारा स्थापित सिद्धांतों तथा मूल्यों को पोषित किया जा रहा है। अब हालात बदल चुके हैं। शायद ऐसा होना भी चाहिए, क्योंकि हर व्यक्ति एक जैसा नहीं होता, मगर एक पद की परंपरा व मूल्य एक जैसे हो सकते हैं। ऐसा होने से ही तो आदर्श स्थापित होते हैं। अब असल बात यह है कि स्व. अतुल जी के निधन के बाद अमर उजाला में स्थापित मूल्यों का पतन होता जा रहा है या यह कहें कि उनकी हत्या कर दी गई है या नहीं।

मैंने पहली बार अमर उजाला का कंपनी रूप देखा था (किस्से अखबारों के : पार्ट-तीन)

(सुशील उपाध्याय)


भुवनेश जखमोला एक सामान्य परिवार से आया हुआ आम लड़का था। वैसा ही, जैसे कि हम बाकी लोग थे। वो भी उन्हीं सपनों के साथ मीडिया में आया था, जिनके पूरा होने पर सारी दुनिया बदल जाती। कहीं कोई शोषण, उत्पीड़न, गैरबराबरी न रहती। लेकिन, न ऐसा हुआ और न होना था। भुवनेश ने नोएडा में अमर उजाला ज्वाइन किया था। 2005 में उसे देहरादून भेज दिया गया, कुछ महीने बाद भुवनेश को ऋषिकेश जाकर काम करने को कहा गया। उस वक्त भुवनेश की शादी हो चुकी थी। अमर उजाला में काम करते हुए उसे लगभग पांच साल हो गए थे, उसे तब तक पे-रोल पर नहीं लिया गया था। पांच हजार रुपये के मानदेय में वो अपनी नई गृहस्थी को जमाने और चलाने की कोशिश कर रहा था। उसे उम्मीद थी कि एक दिन वह अपने संघर्षाें से पार पा लेगा और जिंदगी की गाड़ी पटरी पर आ जाएगा, लेकिन होना कुछ और था।

अतुल माहेश्वरी की चौथी पुण्य तिथि और अमर उजाला से चार दशक से जुड़े एक पत्रकार का दुख

प्रातः स्मरणीय भाई साहब अतुल माहेश्वरी की आज चौथी पुण्य तिथि है। हां हम ‘उन्हें भाई’ साहब नाम से ही पुकारते रहे हैं। अमर उजाला उन्हें ‘नवोन्मेषक’ कहता है। यह उसका विषय है। चौथी पुण्य तिथि पर एक ऐसे व्यक्ति जो इंसानियत की मिसाल हो, जो मनसा, वाचा, कर्मणा पत्रकारिता और अमर उजाला को समर्पित हो, जो अपने कर्मचारियों, छोटे से छोटे हम जैसे कार्यकर्ताओं का भी पूरा-पूरा ध्यान रखते हों, जिन्हें हर स्टेशन का स्टींगर मुंह जुबानी याद हो, जो हर फोन काल को स्वयं रीसिव करते और रीसिव न हो पाने की स्थिति में काल बैक करते, हर पत्र का उत्तर देना मानों उनका अपना दायित्व होता, कोई आमंत्रण हो तो उपस्थित न हो सकने की स्थिति में उसके लिए शुभ कामना का पत्र और किसी कर्मी, कार्यकर्ता के दुख-सुख में ढाल बन समाधान करते ऐसे संपादक को खोने का दुख हम-सा तुच्छ कार्यकर्ता भी महसूस कर सकता है। भाई साहब! आपको अश्रुपूरित श्रद्धांजलि, ईश्वर आपकी आत्मा को शान्ति दे।