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सियासत

क्या किसान लॉबी देश की सबसे ताकतवर लॉबी है जिससे सरकारें डरती हैं?

समरेंद्र सिंह-

इस देश में किसान एक ताकतवर लॉबी है। ये अकेली ऐसी लॉबी है जो वर्ग रहित है। मतलब सैकड़ों एकड़ वाला, उन खेतों में मजदूरी करने वाला और एक-दो बीघे पट्टे पर लेकर खेती करने वाला – सब किसान हैं। जमीन के मालिक और मजदूर सब किसान हैं। इसलिए किसान लॉबी की ताकत अधिक है। किसी और क्षेत्र के कर्मचारियों से बहुत अधिक। औद्योगिक क्षेत्र के मजदूरों से तो इनकी कोई तुलना ही नहीं हो सकती है। फैक्ट्री मजदूर तो लावारिश प्रजाति हैं।

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किसान इतनी ताकतवर लॉबी है कि इनसे सरकार डरती है। वोट के लिए इनके कर्जे माफ करती है। गरीबों के लिए दिए जाने वाले पैसे का सीधा भुगतान नहीं करती है। बल्कि वो भुगतान किसानों को होता है। कुछ क्षेत्र के किसानों को। फिर भी तस्वीर ऐसी खींची जाती है कि सारे देश में किसानों का भला हो रहा है। गरीबों के हिस्से का सारा फायदा वो थोड़े से लोग उठा ले जाते हैं जिनके पास बड़ी जोत है।

ये एक बात हुई। अब दूसरी बात देखिए।

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गांव से लेकर शहरों तक, लोग अपने बच्चों को अंग्रेजी मीडियम के स्कूल में पढ़ा रहे हैं। ABC के चक्कर में बच्चे कखग भूलते जा रहे हैं। जमीन से रिश्ता टूटता जा रहा है। वो खेती करने के लायक नहीं हैं। स्कूल से लेकर कॉलेज तक का सारा ढांचा कर्मचारी तैयार करने के लिए है। सरकारी तंत्र में काम करने वालों के अलावा हम इंजीनियर, डॉक्टर, एकाउंटेंट, सेक्रेटरी, वकील, टीचर जैसे अनेक लोग तैयार करते हैं। किसान नहीं तैयार करते। क्योंकि खेती और किसानी के लिए मिट्टी में उतरना होगा। गोबर उठाना होगा। पशुओँ से और पौधों से बात करनी होगी। उनके रंग बदलने का अर्थ समझना होगा। उनकी आवाज का अर्थ समझना होगा। मौसम का मिजाज समझना होगा। ये अर्थ आसान नहीं है।

मेरे दोस्तों के बीच में बहुत से लोग खेती करना चाहते हैं। लेकिन ये उनका पहला विकल्प नहीं है। कुछ 40-50 साल की दहलीज पार करके खेती करना चाहते हैं। ये उनकी मजबूरी है या फिर शौक। विकल्प के अभाव में कुछ लोग खेती की तरफ मुड़े हैं। ये खुद को व्यस्त रखने का, उलझाए रखने का अच्छा तरीका हो सकता है, लेकिन व्यवसाय नहीं हो सकता। यहां यह भी बात ध्यान रखने लायक है कि ये सभी लोग इसलिए उधर मुड़ सके हैं क्योंकि उनके पास जमीन है। मेरे पास भी जमीन है। मैं भी जा सकता हूं। लेकिन ऐसे खुशकिस्मत लोग कितने हैं?

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दरअसल आजाद हिंदुस्तान के पास एक मौका था कि वो विकास की अपनी राह चुन सके और एक नया मॉडल तैयार कर सके। वह मौका छोड़ कर आसान राह चुनी गई। 1990 के दशक में उस राह पर तेजी से दौड़ने का फैसला लिया गया। सारा तंत्र उसी आधार पर विकसित हुआ। हजारों इंजीनियरिंग कॉलेज खुले। उनमें भर्ती के लिए हजारों की संख्या में कोचिंग इंस्टीट्यूट बने। इंजीनियरिंग कॉलेजों से कई गुना अधिक आईटीआई खोले गए। हर साल इन जगहों से पढ़ कर निकलने वालों की संख्या लाखों में है।2-4 लाख नहीं बल्कि 25-30 लाख है। मतलब हमने कृषि आधारित नहीं बल्कि उद्योग आधारित ढांचा विकसित किया।

अब अचानक कोई आकर कर कहे कि राह बदल लो और राह बदलने का मंत्र MSP को जारी रखना है तो यह बात समझी नहीं जा सकती। लाखों-करोड़ों लोगों द्वारा दिए गए टैक्स की राशि गरीबों की बेहतरी पर तो खर्च की जा सकती है, लेकिन एक सड़े-गले ढांचे को और शोषण के सिस्टम को बचाने में खर्च नहीं की जा सकती है। वर्तमान दौर का हमारा खेती का मॉडल ऐसा ही है। इसमें कुछ लोगों के पास बड़ी जोत है और ये बड़ी जोत वाले किसान खेतीहर मजदूरों का शोषण करते हैं। उनके हिस्से का पैसा इन्हें चाहिए मगर उनके श्रम का भुगतान भी नहीं करना चाहते।

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मैं उदारीकरण के पक्ष में नहीं था और मैं आज भी नहीं हूं। लेकिन एमएसपी को ऐसे प्रस्तुत करना कि विद्रूप उदारीकरण दूर हो जाएगी, एक मूर्खता भरी बात है। एमएसपी की व्यवस्था खत्म होनी चाहिए और जल्दी खत्म होनी चाहिए। एक बात और इस देश में कोई किसी पर एहसान नहीं कर रहा। ना किसान और ना ही जवान। सब अपना-अपना काम कर रहे हैं। मेरे घर का चूल्हा किसी अन्नदाता की वजह से नहीं जलता है। इसलिए जलता है कि क्योंकि मैं और मेरे घर के लोग काम करते हैं। अन्न का सौदा करने वाला किस बात का अन्नदाता!

ये जो आधुनिक ट्रैक्टर हैं, ये भी उसी उदारीकरण की देन है। हार्वेस्टर भी उसी की देन है। गायों के बछड़े और भैंसों के पाड़े ट्रैक्टरों की वजह से मार दिए जाते हैं। उदारीकरण भी चाहिए, ट्रैक्टर और हार्वेस्टर चाहिए, विदेशी कंपनियों के बीज चाहिए मगर सरकार ऐसी चाहिए जो माल खरीदे। इस सभी किसानों ने अपने लायक बच्चों को घर से खदेड़ दिया है। गांव के मजदूरों को काम देना बंद कर दिया है। बोआई-कठाई का हिस्सा देना भारी लगता है। मगर उन गरीबों के हिस्से की रकम इन्हें चाहिए। ये सब सवर्ण और कुछ पिछड़ी प्रभावी जातियों के किसान देश की छाती पर मूंग दल रहे हैं। किसान शब्द सभी किसानों का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। ये सिर्फ बड़ी जमीन के प्रभावी किसानों का प्रतिनिधित्व करता है।

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किसान आंदोलन के बारे में कई लोगों ने मुझसे मेरी राय पूछी है। आंदोलन मुझे अच्छे लगते हैं। मैं चाहता हूं कि हर रोज हर पल आंदोलन होते रहें। ये आंदोलन बहुत जरूरी हैं। इससे सत्ता में बैठे लोगों में ये खौफ बना रहता है कि अगर उन्होंने ठीक से काम नहीं किया तो उनके खिलाफ आवाज बुलंद होगी। उन्हें सत्ता से उखाड़ फेंका जाएगा। इस लिहाज से ये आंदोलन बहुत अच्छा है। किसानों ने अपना टेंट गाड़ दिया है और उसकी कील सरकार की छाती पर ठोंक दी है। अब सरकार फंस गई है। करे तो क्या करे!

लेकिन सरकार तो सरकार होती है। उससे जीतना आसान नहीं है। वह भी तब जब बात जिद पर आ जाए। इसलिए कुछ मुद्दों पर गंभीरता से सोचना चाहिए।

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(1) क्या मसला सिर्फ एमएसपी और तीन कानूनों का है?
(2) क्या तीनों कानून वापस हो जाए तो उससे जीत मिल जाएगी?
(3) कानून वापस लेने के बाद सरकार कोटा सिस्टम लगा दे तब क्या होगा? जिस राज्य में PDS के अनाज की जितनी जरूरत है, उसकी खरीद वहीं से होगी और कमी होने पर पड़ोसी राज्य से खरीद होगी – तब क्या होगा?
(4) क्या सरकारों के लिए ये संभव है कि वो सभी किसानों के अनाज की खरीद कर सके और वो सारा अनाज अगर खरीद लिया जाएगा तो उसका होगा क्या?
(5) और अगर यही करना है तो फिर WTO का क्या होगा? क्या भारत उससे बाहर आने के लिए तैयार है? क्या भारत के सभी दल इस बात के लिए तैयार हैं कि हमारे देश को WTO से बाहर आ जाना चाहिए?
(6) यह संभव नहीं है कि कोई देश WTO में बना रहे और उसके लाभ ले मगर उसके हिसाब से भुगतान करने को तैयार नहीं हो। तो क्या सभी सियासी दल इस पर एकमत हैं?
(7) अगर WTO से बाहर आने पर रजामंदी है तो फिर उस ढांचे का क्या होगा जो हमने उदारीकरण के हिसाब से खड़ा किया है?
(8) आज हमारे देश में 4000 इंजीनियरिंग कॉलेज हैं। 16000 आईटीआई हैं। उनमें लाखों बच्चे पढ़ाई करते हैं। हर साल 10-14 लाख इंजीनियर पैदा होते हैं। लाखों तकनीकी श्रमिक तैयार होते हैं। उनका क्या होगा? क्या उन्हें नौकरी हमारी सरकार दे सकेगी?
(9) हम अमेरिका में सबसे अधिक निर्यात करते हैं। ब्रिटेन में भी हमारा निर्यात सकारात्मक है। यूरोप में भी बड़ा निर्यात करते हैं। हमारे देश में उनका निवेश भी काफी ज्यादा है। हमारे यहां से हर साल लाखों लोग यूरोप और अमेरिकी देशों में काम करने जाते हैं। नागरिकता लेते हैं। उन सब का क्या होगा?

सवाल बहुतेरे हैं। इन सब पर बात होनी चाहिए। आंदोलन अच्छा है। आंदोलन होते रहने चाहिए। लेकिन आंदोलन से जुड़े सभी मुद्दों पर व्यापक चर्चा होनी चाहिए। बात रास्ता बदलने की है। यह देश 73 साल एक रास्ते पर चला है। देश का एक धड़ा अब रास्ता बदलना चाहता है। लिहाजा ये बात होनी ही चाहिए कि ये रास्ता छोड़ने के बाद हम किस रास्ते पर चलेंगे? वह धड़ा हमें किस रास्ते पर ले जाना चाहता है?

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