Connect with us

Hi, what are you looking for?

सियासत

वित्तीय पूंजी ने किसानों के सभी तबकों को तबाह किया है

किसान आंदोलन की नयी शुरुआत :  बैंक पति, स्टाक एक्सचेंज अधिपति जैसे वित्तीय अभिजात वर्ग के शासन में किसानों की अर्थव्यवस्था और जीवन का संकट उनकी आत्महत्याओं के रूप में चैतरफा दिख रहा है। यह वो दौर है जिसमें कारपोरेट पूंजी ने राजनीतिक सम्प्रभुता और आम नागरिकों के जीवन की बेहतरी के सभी पक्षों पर खुला हमला बोल दिया है। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार पर भी वित्तीय पूंजी का गहरा हमला है लेकिन सबसे अधिक इसकी चोट अनौपचारिक आर्थिक क्षेत्र खासकर खेती-किसानी पर दिख रही है। पचास फीसदी से अधिक देश की आबादी खेती पर निर्भर है और आर्थिक संकट का भयावह चेहरा यहाँ खुलकर दिख रहा है।

<script async src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script> <script> (adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({ google_ad_client: "ca-pub-7095147807319647", enable_page_level_ads: true }); </script> <script async src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script> <!-- bhadasi style responsive ad unit --> <ins class="adsbygoogle" style="display:block" data-ad-client="ca-pub-7095147807319647" data-ad-slot="8609198217" data-ad-format="auto"></ins> <script> (adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({}); </script><p><span style="font-size: 18pt;">किसान आंदोलन की नयी शुरुआत : </span> बैंक पति, स्टाक एक्सचेंज अधिपति जैसे वित्तीय अभिजात वर्ग के शासन में किसानों की अर्थव्यवस्था और जीवन का संकट उनकी आत्महत्याओं के रूप में चैतरफा दिख रहा है। यह वो दौर है जिसमें कारपोरेट पूंजी ने राजनीतिक सम्प्रभुता और आम नागरिकों के जीवन की बेहतरी के सभी पक्षों पर खुला हमला बोल दिया है। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार पर भी वित्तीय पूंजी का गहरा हमला है लेकिन सबसे अधिक इसकी चोट अनौपचारिक आर्थिक क्षेत्र खासकर खेती-किसानी पर दिख रही है। पचास फीसदी से अधिक देश की आबादी खेती पर निर्भर है और आर्थिक संकट का भयावह चेहरा यहाँ खुलकर दिख रहा है।</p>

किसान आंदोलन की नयी शुरुआत :  बैंक पति, स्टाक एक्सचेंज अधिपति जैसे वित्तीय अभिजात वर्ग के शासन में किसानों की अर्थव्यवस्था और जीवन का संकट उनकी आत्महत्याओं के रूप में चैतरफा दिख रहा है। यह वो दौर है जिसमें कारपोरेट पूंजी ने राजनीतिक सम्प्रभुता और आम नागरिकों के जीवन की बेहतरी के सभी पक्षों पर खुला हमला बोल दिया है। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार पर भी वित्तीय पूंजी का गहरा हमला है लेकिन सबसे अधिक इसकी चोट अनौपचारिक आर्थिक क्षेत्र खासकर खेती-किसानी पर दिख रही है। पचास फीसदी से अधिक देश की आबादी खेती पर निर्भर है और आर्थिक संकट का भयावह चेहरा यहाँ खुलकर दिख रहा है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

आजादी के पहले उन्नीसवी शताब्दी में ढेर सारे किसान संघर्ष हुये लेकिन 1917 का गांधी जी के नेतृत्व में हुए चम्पारन सत्याग्रह ने राष्ट्रीय रंगभूमि में किसान आन्दोलन के बतौर राजनीतिक तौर पर अपनी दस्तक दी। नील खेती के विरूद्ध आन्दोलन देर तक नहीं चला लेकिन निलहे साहबों को नील की खेती को बन्द करना पड़ा। उसी तरह गुजरात का खेड़ा आन्दोलन भी राजनीतिक प्रभाव बनाने में सफल रहा। 1921 के असहयोग आन्दोलन में भी गांधी ने किसानों से सरकार को कर न देने की अपील की थी। दूसरा महत्वपूर्ण आन्दोलन किसानों का सहजानन्द सरस्वती की अगुवाई में बिहार में किसान सभा के माध्यम से दिखा जो अपने चरित्र में पूरी तौर पर रेडिकल था। 1927 में गठित इस किसान सभा ने सहजानन्द की अगुवाई में 1934 में गांधी जी से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर लिया।

इस आन्दोलन ने समाजवादियों, कम्युनिस्टों और सुभाष चन्द्र बोस को अपना पूरा सहयोग दिया और कांग्रेस के तमाम विरोध के बावजूद इसकी संख्या 1935 में लगभग 80,000 थी, जो 1938 में बढ़कर 250000 हो गयी। चर्चित किसान आन्दोलनों में जिसका राजनीतिक महत्व था उसमें गुजरात का बारदोली मालाबार का मोपला, बंगाल का तेभागा किसान आन्दोलन चर्चित रहा हैं। तेलंगाना की बात ही कुछ और थी वह भारत की राजनीति दिशा बदल देने का विशेष किस्म का किसान संघर्ष था। विकास का किसान बनाम कारपोरेट रास्ता इस आन्दोलन की अन्र्तवस्तु में था। तेलंगाना किसान आन्दोलन के बाद अस्सी के दशक का किसान आन्दोलन आमतौर पर राजनीति विरोधी दिखता है और गैर पार्टी स्वतंत्र किसान आन्दोलन की वकालत करता है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

इस किसान आन्दोलन में एक घड़ा शरद जोशी का रहा है जो मूलतः किसानों को लाभकारी मूल्य दिलाने और विश्व व्यापार से किसानों के उत्पादन को जोड़ने की वकालत करता है। ग्रामीण विकास पर विशेष जोर देते हुए शरद जोशी भारत बनाम इण्डिया के प्रवक्ता बने। कर्नाटक के नन्जन्डूस्वामी का किसान आन्दोलन अन्य फार्मर आन्दोलन से राजनीतिक तौर पर विकसित दिखता है। महेन्द्र सिंह टिकैत किसानों के उत्पादन के लिए सस्ते दर पर संसाधनों की उपलब्धता की वकालत करते थे। सब मिलाकर फार्मर आन्दोलन अपना प्रभाव छोड़ते हुए भी अपनी राजनीतिक दिशा नहीं तय कर पाया। अस्सी के दशक में ही फार्मर आन्दोलन के विपरीत बिहार का किसान संघर्ष खेतिहर मजदूर उनके साथ गरीब निम्न मध्यम किसानों में राजनीतिक प्रभाव बनाने में एक हद तक सफल रहा है। बिहार का किसान आन्दोलन सर्वागीण भूमि-सुधार पर ज्यादा जोर देता था, लेकिन हरित क्रांति से उत्पन्न संकट के सवाल पर भी हस्तक्षेप का पक्षधर रहा है।

आज दौर में भूमि अधिग्रहण कानून के खिलाफ दादरी, कलिंग नगर, पोस्को, रायगढ़, पलाचीमाड़ा आदि में किसानों का सशक्त आन्दोलन खड़ा हुआ और यूपीए सरकार को मजबूर होकर अंग्रेजों के 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून की जगह 2013 में नया भूमि अधिग्रहण कानून बनाना पड़ा। मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही कारपोरेट घरानों के पक्ष में भूमि अधिग्रहण कानून 2013 में संशोधन की कोशिश की थी जिसके खिलाफ पूरे देश में किसानों के आंदोलन हुए और किसानों के दबाव में उसे संशोधनों से पीछे हटना पड़ा।
आज हजारों किसानों की आत्महत्याओं के बावजूद देश के वित्तमंत्री, रिजर्व बैंक के गर्वनर व अन्य सत्ता प्रतिष्ठान किसानों के कर्जा माफी इंकार कर रहे है और तर्क दे रहे है कि इससे वित्तीय घाटा बढेगा।

Advertisement. Scroll to continue reading.

वित्तीय घाटा का तर्क कारपोरेट का है। यदि सरकार वित्तीय घाटा को बढ़ने से रोकने के प्रति ईमानदार है तो उसे बताना चाहिए कि परितोषिक के नाम पर कारपोरेट घरानों का लाखों करोड़ रूपया टैक्स का क्यों हर साल माफ किया जा रहा है, सरकार ने कारपोरेट घरानों की आय पर टैक्स का स्लैब क्यों घटा दिया, लाखों करोड़ों के कारपोरेट घरानों के एनपीए के नाम पर पड़े बैकों के कर्ज की वसूली क्यों नहीं हो रही और कारपोरेट घरानों की सम्पत्ति पर कर क्यों नहीं लगाती। दरअसल कारपोरेट घरानों के मुनाफे की अर्थव्यवस्था ने वित्तीय घाटा को बढाने का काम किया है। इसलिए इसे किसानों और जनता के मत्थे मढ़ने के सरकार की कोशिशों का हर स्तर पर प्रतिवाद करना होगा।

मध्य प्रदेश के मंदसौर में 6 किसानों की हत्या का राष्ट्रीय प्रतिवाद हुआ है और देश भर के अधिकांश किसान आन्दोलन और किसान आंदोलन की पक्षधर ताकतों ने मिलकर कर्जमाफी और लागत मूल्य के डेढ़ गुना दाम के लिए अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति बनाकर आन्दोलन शुरू किया है। 6 जुलाई से इस समन्वय समिति ने मंदसौर से किसान मुक्ति यात्रा शुरू की है जो छः राज्यों से होकर 18 जुलाई को दिल्ली पहुंचेगी जहां किसान जंतर-मंतर पर धरना शुरू करेंगे। भाजपा की मध्य प्रदेश की राज्य सरकार ने पूरे प्रदेश में रासुका लगाकर और यात्रा में शामिल किसान नेताओं को गिरफ्तार कर यात्रा को रोकने की कोशिश की थी पर भारी दबाब में सरकार को पीछे हटना पड़ा और यात्रा जारी है। बहरहाल यह किसान आन्दोलन का नया दौर है इस समन्वय समिति में समाजवादी, कम्युनिस्ट किसान संगठनों की भी अच्छी भागीदारी है। हालांकि कुछ किसान संगठन जो किन्हीं कारणों से अभी भी समन्वय समिति में शामिल नहीं हो सके है उन्हें जोड़ने की जरूरत है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

वित्तीय पूंजी ने किसानों के सभी तबकों को तबाह किया है। इसलिए वित्तीय पूंजी के खिलाफ व्यापक किसानों को उनके ज्वलंत मुद्दों को क्रमशः समाहित करते हुए गोलबंद करना वक्त की जरूरत है। आज के दौर के किसान आन्दोलन की दिशा और नीति को वित्तीय पूंजी की तानाशाही, जिसको केन्द्रीय स्तर पर एनडीए की सरकार स्थापित करने में लगी है, के खिलाफ संगठित और विकसित करने की जरूरत है। जब देश में मौजूद विपक्ष कोई कारगर भूमिका नहीं निभा रहा है किसान आंदोलन को अपने इर्द गिर्द वित्तीय पूंजी के हमलों से पीड़ित सभी तबकों को गोलबंद करना होगा। मोदी सरकार की अधिनायकवादी प्रवृत्तियों के खिलाफ प्रतिकार में उतरे सामाजिक नागरिक आंदोलनों के साथ कायम एकता किसान आंदोलन को राजनीतिक तौर पर मजबूती प्रदान करेगा।

अखिलेन्द्र प्रताप सिंह
राष्ट्रीय कार्यसमिति सदस्य
स्वराज अभियान

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement