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Lipstick Under My Burkha : दैहिक मुक्ति को असली मुक्ति मान बैठीं ये संभोगरत स्त्रियां! (दो समीक्षाएं)

Mukesh Kumar : अलंकृता श्रीवास्तव को ढेर सारी बधाईयाँ। शायद एक स्त्री ही किसी स्त्री के अंदर पलने वाली हसरतों और चलने वाली कशमकश को इतनी बारीकी से फिल्मा सकती है। इतनी बेचैनी, इतनी छटपटाहट कि कुछ भी करने को तैयार। हर तरह की चौहददियों को लाँघने के लिए बेक़रार। और मर्द हैं कि हर जगह रास्ते रोकते हुए खड़े हैं। उन्हें मंज़ूर नहीं है कोई औरत उनके नियंत्रण से बाहर निकलकर अपनी इच्छाएं पूरी करे। कहीं वह सेक्स को हथियार बनाता है, कहीं धर्म को तो कहीं उसे छलकर दबाने की कोशिश करता है।

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Mukesh Kumar : अलंकृता श्रीवास्तव को ढेर सारी बधाईयाँ। शायद एक स्त्री ही किसी स्त्री के अंदर पलने वाली हसरतों और चलने वाली कशमकश को इतनी बारीकी से फिल्मा सकती है। इतनी बेचैनी, इतनी छटपटाहट कि कुछ भी करने को तैयार। हर तरह की चौहददियों को लाँघने के लिए बेक़रार। और मर्द हैं कि हर जगह रास्ते रोकते हुए खड़े हैं। उन्हें मंज़ूर नहीं है कोई औरत उनके नियंत्रण से बाहर निकलकर अपनी इच्छाएं पूरी करे। कहीं वह सेक्स को हथियार बनाता है, कहीं धर्म को तो कहीं उसे छलकर दबाने की कोशिश करता है।

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अलग-अलग उम्र की चार महिलाएं-दो हिंदू और दो मुसलमान। सभी निम्न मध्यवर्गीय समाज से। अपने सपनों के लिए लड़तीं और आगे बढ़ने के लिए रास्ते तलाशतीं। सबकी कहानी अलग-अलग हैं मगर मर्म एक ही है। एक ही सूत्र से चारों जुड़ी हुई हैं। मन की परतें खुलती जाती हैं और परदे पर पीड़ा उभरती जाती है। कसी हुई पटकथा एक क्षण को भी तनाव कम नहीं होने देती। सधा हुआ अभिनय और निर्देशन फिल्म को कई मील आगे ले जाकर खड़ा कर देता है।

किसी ने कहा, फिल्म में सेक्स बहुत ज़्यादा है। मुझे लगता है कि फिल्म में आए सेक्स दृश्यों को सही संदर्भों में समझने की ज़रूरत है। उसके अलग-अलग निहितार्थ हैं। कहीं वह मुक्ति की कामना को व्यक्त करता है तो कहीं आज़ादी को कुचलने के लिए। सेक्स यहाँ केवल सेक्स नहीं है, पूरी राजनीति है और दमन का हथियार भी। अगर आपने अभी तक Lipstick Under My Burkha नहीं देखी है तो ज़रूर देखिए।

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वरिष्ठ पत्रकार मुकेश कुमार की एफबी वॉल से.

Abhishek Srivastava : टिकट कराते वक्‍त (Lipstick Under My Burkha के लिए) थोड़ा अचरज हुआ क्‍योंकि इतवार को दोपहर के शो में एनसीआर के महंगे सिनेमाहॉल फुल दिखे। तीन बजे के शो में जगह मिली, तो मेरा हॉल भी तकरीबन फुल निकला। आखिर क्‍या सोचकर इस महानगर की मध्‍यवर्गीय जनता यह फिल्‍म देखने के लिए आई थी? दो घंटे के दौरान फिल्‍म के अलावा लोगों की प्रतिक्रियाएं भी मैं देखता-सुनता रहा। अंत में निकलते वक्‍त भी लोगों को आपस में बात करते सुना। इसमें कोई शक़ नहीं कि दर्शकों का मनोरंजन ठीकठाक हुआ था। बस एक समस्‍या दिखी- फिल्‍मकार अलंकृता श्रीवास्‍तव जो दिखाना चाहती रही होंगी, लोगों तक उसका ठीक उलटा संदेश पहुंचा है। अगर मैं ठीक देख पा रहा हूं, तो यह समस्‍या गंभीर है।

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दरअसल, सतह पर दो दिक्‍कतें हैं। एक महिला पति से ‘छुपाकर’ नौकरी करती है। दूसरी मां-बाप से ‘छुपाकर’ जींस पहनती है, पार्टी करती है, मोर्चा निकालती है और ‘झूठ’ बोलती है। तीसरी महिला लोगों से ‘छुपाकर’ स्विमिंग सीखने जाती है, ‘अश्‍लील’ किताब पढ़ती है और ‘नकली आइडेंटिटी’ बनाकर फोन पर बात करती है। चौथी महिला के जीवन में ‘झूठ’ की जगह दो पुरुषों के बीच का द्वंद्व है। इसका मोटा-सा संदेश इस देश के मोटी बुद्धि वाले महानगरीय सिने-दर्शक तक यह पहुंचता है कि 55 से लेकर 18 बरस तक की महिलाओं के जीवन में एक ‘छुपा’ हुआ पक्ष होता है। इस तरह पात्रों के निजी नैरेटिव एक सामान्‍य दर्शक के मन में म‍हिलाओं के प्रति हिकारत और संदेह पैदा करते हैं।

दूसरी दिक्‍कत फिल्‍म में संभोगरत/आत्‍मरत महिलाओं के कई स्‍तरों से पैदा होती है। एक पति अपनी पत्‍नी की नौकरी करने की सूचना पाकर आक्रोश में जो संभोग करता है, वह प्रेम में बेचैन दूसरी स्‍त्री के संभोग से या साहित्‍य पढ़कर आत्‍मरति में डूबी तीसरी स्‍त्री से बिलकुल अलहदा बात है। हमारा दर्शक इतना सूक्ष्‍म फ़र्क नहीं करता। वह हर संभोग पर मुंह छुपाकर हंसता है। आत्‍मरति में डूबी वृद्ध स्‍त्री का मज़ाक बनाता है। जब चारों स्त्रियां अपनी-अपनी किस्‍मत साथ लेकर अंतिम दृश्‍य में एक साथ कहानी के अंतिम पन्‍ने पलटती होती हैं, तो दर्शक कहता है- ”आगे क्‍या हुआ पता नहीं चला। लगता है दूसरा पार्ट भी आएगा।” दर्शक को निष्‍कर्ष चाहिए था, जो नहीं मिला। मुक्ति की प्रक्रिया को वह पचा नहीं सका क्‍योंकि यह प्रक्रिया चारों को कहीं ले नहीं गई।

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इसकी एक वजह यह लगती है कि फिल्‍म का कथानक चारों स्त्रियों की दैहिक मुक्ति से आगे नहीं बढ़ सका। यह समकालीन स्‍त्री-विमर्श की ऐसी बीमारी है जिसे आप Parched में भी देख सकते थे। मैं पहले भी लिख चुका हूं कि देह, देह तक ही ले जाती है। स्‍त्री-मुक्ति उससे बड़ी चीज़़ है। हमारे यहां का दिमागी पिछड़ापन ऐसा है कि सारे विमर्श को देह तक सीमित कर देता है। अगर आप इस फिल्‍म की स्क्रिप्‍ट के शुरुआती नैरेशन पर ध्‍यान दें तो शायद पकड़ में आवे। मसलन, यह वाक्‍य- ”उसके देह के फैलते बगीचे में उसकी जवानी का कांटा उसी को चुभ रहा था।” यह भाषा स्‍त्री की नहीं है। यह पुरुष की भाषा है। पुरुष की भाषा में रोज़ी को आप कैसे मुक्‍त कर पाएंगे? यह विपर्यय फिल्‍म के अंत तक कायम है।

नतीजा? एक कोठरी में सिमट कर सिगरेट फूंकने और रोज़ी की कहानी के अंतिम पन्‍ने पलटने के अलावा और क्‍या हो सकता था? वैसे, इस देश के औसत विवेक के नाते मुझे गंभीर संदेह है कि अब भी कई दर्शक एक-दूसरे से पूछ रहे होंगे कि इन चारों में रोज़ी कौन थी। कायदे से अगर तुलना करनी हो, तो मैं फिल्‍म में स्विमिंग ट्रेनर बने उस मांसल युवक को हिंदुस्‍तान का असली दर्शक मानूंगा जो अंत तक रोज़ी की कहानी में फंसा रहा और जब रोज़ी सामने आई, तो उसे बदनाम करते हुए पलट कर कह दिया- तुम रोज़ी नहीं हो सकती। रोज़ी का अपना एक सपना बेशक है, लेकिन रोज़ी भी किसी का सपना है। प्रॉब्‍लम यहां है।

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मीडिया और फिल्म समीक्षक अभिषेक श्रीवास्तव की एफबी वॉल से.

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