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प्यार नहीं, आपकी पॉलिटिक्स कुछ और है बॉस… प्यार है तो धर्मांतरण की जरूरत क्यों?

हाल ही में आया इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला न्याय व तर्क के हर पहलू पर फिट बैठता है. कितनी बेहतरीन बात कही न्यायालय ने… अगर धर्म में आस्था ही नहीं, तो धर्म परिवर्तन क्यों? सही बात है, इसे तो धर्मगुरु भी मानेंगे कि धर्म को एक दांव की तरह तो नहीं इस्तमाल किया जा सकता न कि शादी करनी हो या तालाक लेना हो तो धर्म का दांव खेल दिया. इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जिन मामलों की सुनवाई करते हुए फैसला दिया, आईये उन पर गौर करते हैं. दरअसल एक ही विषय पर पांच अलग-अलग याचिकाएं न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की गईं. इन सभी में हिन्दू लड़कियों ने मुसलमान लड़कों से शादी करने के खातिर इस्लाम कुबूल किया फिर निकाह किया व न्यायालय के समक्ष अपनी शादी को वैधता देने और सुरक्षा की मांग की. सभी याचिकाकर्ताओं ने मजिस्ट्रेट के समक्ष जो बयान दिए थे उनकी विषय वस्तु कमोबेश एक ही थी.

हाल ही में आया इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला न्याय व तर्क के हर पहलू पर फिट बैठता है. कितनी बेहतरीन बात कही न्यायालय ने… अगर धर्म में आस्था ही नहीं, तो धर्म परिवर्तन क्यों? सही बात है, इसे तो धर्मगुरु भी मानेंगे कि धर्म को एक दांव की तरह तो नहीं इस्तमाल किया जा सकता न कि शादी करनी हो या तालाक लेना हो तो धर्म का दांव खेल दिया. इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जिन मामलों की सुनवाई करते हुए फैसला दिया, आईये उन पर गौर करते हैं. दरअसल एक ही विषय पर पांच अलग-अलग याचिकाएं न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की गईं. इन सभी में हिन्दू लड़कियों ने मुसलमान लड़कों से शादी करने के खातिर इस्लाम कुबूल किया फिर निकाह किया व न्यायालय के समक्ष अपनी शादी को वैधता देने और सुरक्षा की मांग की. सभी याचिकाकर्ताओं ने मजिस्ट्रेट के समक्ष जो बयान दिए थे उनकी विषय वस्तु कमोबेश एक ही थी.

“मेरा नाम XYZ है, मेरे पिता जी का नाम ABC है. मैं जंगलीपुर जिला सिद्धार्थनगर की रहने वाली हूं. मैं इंटरमीडिएट तक पढी हूं. मेरा निकाह अब्दुल रहीम ने बब्लू उर्फ इरफान के साथ करा दिया. यह निकाह अकबरपुर जिला इलाहाबाद में कराया गया था. मेरा धर्म परिवर्तन अब्दुल रहीम ने कराया था. यह धर्म परिवर्तन उन्होंने शादी करने के लिए कराया था. धर्म परिवर्तन बब्लू उर्फ इरफान के कहने पर कराया गया था. मैं इस्लाम के विषय में कुछ नहीं जानती.”

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न्यायालय ने इन्हीं शपथ पत्रों के आधार पर कहा कि मात्र शादी के लिए धर्म परिवर्तन कैसे जायज ठहराया जा सकता है. जबकि धर्म परिवर्तन की तो आवश्यक शर्त है आस्था में बदलाव. ऐसा नहीं है कि यह पहली बार है जब न्यायालयों ने किसी खास मकसद के लिए किए गए धर्म परिवर्तन को अवैध ठहराया हो. ऐसे ही एक मामले लिलि थॉमस बनाम यूनियन ऑफ इंडिया में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि अगर कोई गैर मुस्लिम व्यक्ति मात्र दूसरी शादी करने के लिए मुस्लिम धर्म अपना लेता है, जबकि उसके धार्मिक आस्था में वास्तविक तौर पर कोई बदलाव नहीं हुआ है तो ऐसा धर्मांतरण शून्य होगा. ऐसे मामले जब बहुतायत में आने लगते हैं तो न्यायालयों को अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट रुख अपनाना ही पड़ता है.

लव जिहाद की बहस गरम होने के बाद न्यायालय परिसरों में भी इस बहस ने जोर पकड़ा कि क्या वाकई हिन्दू लड़कियों को प्रेम जाल में फंसा कर मुसलमान बनाया जा रहा है. ज्यादातर वकीलों का तो यही मानना है कि जिस मात्रा में मुस्लिम लड़का व हिन्दू लड़की की शादी के मामले आते हैं उसकी आधी मात्रा में भी हिन्दू लड़का व मुस्लिम लड़की के मामले नहीं ही आते हैं. न्यायालयों के रुख से भी लगता है कि इन मामलों पर स्पष्ट व्यवस्था अब वे देना चाहती हैं. अभी पिछले दिनों इलाहाबाद उच्च न्यायालय की ही लखनऊ खंडपीठ ने निकाह के मामलों में काजी को पार्टी बनाए जाने व निकाह की पूरी प्रक्रिया को आगे से स्पष्ट करने को कहा है. हैबियस कार्पस (बंदी प्रत्यक्षीकरण) का एक मामला चावली बनाम राज्य सरकार पर भी लखनऊ खंडपीठ में बहस पूरी हो चुकी है, फैसला सुरक्षित कर लिया गया है, उम्मीद है जल्दी ही एक और बड़ा बड़ा फैसला सुनाया जाएगा. इस मामले के साथ भी दर्जनों प्रेम विवाह के मामले कनेक्ट किए गए हैं. उधर एटा के शहर काजी बदूद अहमद ने न्यायालय के फैसले को मानने से इंकार कर दिया है. उन्होंने कहा कि धर्म परिवर्तन शरीयत का हिस्सा है. तो क्या काजी साहब ये कहना चाहते हैं कि कोई भी व्यक्ति कलमा पढ ले भले वो इस्लाम के नियमों को न माने वह मुसलमान हो सकता है? बल्कि मैं समझता हूं कि न्यायालय ने तो धर्मों का मजाक बनने से ही बचाया है.

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बात लम्बी होती जा रही है. दरअसल मेरी समझ में एक महत्वपूर्ण मुद्दा आता है. अगर लड़का-लड़की में प्रेम है तो धर्म कैसे बीच में आ जाता है? नहीं, धर्म को बीच में कोई और नहीं खुद लड़का लेकर आता है. आखिर क्यों लड़की का धर्म परिवर्तन करा के ही विवाह या निकाह कराया जाता है? जबकि कानून ने स्पेशल मैरिज एक्ट की सुविधा दे रखी है. जिसमें दो अलग-अलग मजहब को मानने वाले भी शादी कर सकते हैं. फिर लड़कों के लिए क्यों जरूरी होता है अपने वाले मजहब में ही शादी करना. माफ कीजिएगा, समाज धर्मान्ध है लेकिन ऐसे लड़के क्या कुछ कम धर्मान्ध हैं? आपको पता है लखनऊ में इस साल मात्र 13 जोड़ों की स्पेशल मैरिज एक्ट में शादियां हुईं जिसमें अलग-अलग मजहब को मानने वाले लड़के और लड़्की थे. प्यार करते समय स्थिति चाहे जो होती हो लेकिन शादी के वक्त तो आपके प्यार पर आपका मजहब भारी ही पड़ जाता है, मिस्टर. इन तथ्यों से तो यही लगता है कि प्यार नहीं आपकी पॉलिटिक्स कुछ और ही है बॉस.

लेखक चन्दन श्रीवास्तव लखनऊ से प्रकाशित हिंदी दैनिक कैनविज टाइम्स में बतौर वरिष्ठ संवाददाता कार्यरत हैं और लीगल बीट कवर करते हैं. चंदन से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

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0 Comments

  1. कुंवर समीर शाही

    December 23, 2014 at 10:58 am

    बहुत खूब चन्दन भाई सच तो यही है जो आपने समझा पर ऐसा करने वाले इस बात को क्यों नही समझ पा रहे है ..तकलीफ इसी बात की है ….

  2. rajkumar

    December 23, 2014 at 12:49 pm

    KOMRED V VAMPANTHI DHAKOSHKE VADI IS BAT KO NAHI SAMJHEGEN, UNKI AANKHO PAR SECULARVAD KA CHASMA JO LAGA RAHTA H, HINDU BECHARE GAY H KOI BHI USPAR KALAM GHIS DETA H ISLAMI KATRAVAD PAR LIKHANE SE DARTE H

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