धार्मिक जनगणना के डाटा पर टीओआई और द हिंदू के इन शीर्षकों को गौर से पढ़िए

See how two of India’s leading newspapers have today reported the same data (of the latest Census)

Nadim S. Akhter : इसे देखिए, पढ़िए और समझिए. देश के दो प्रतिष्ठित अखबारों निष्ठा. किसकी निष्ठा पत्रकारिता के साथ है और किसकी चमचई में घुली जा रही है, खबर की हेडिंग पढ़ के समझा जा सकता है. मैंने कल ही फेसबुक की अपनी पोस्ट में लिखा था कि अलग-अलग चम्पादक, माफ कीजिए सम्पादक धार्मिक जनगणना के इस डाटा का अपने अपने हिसाब से इंटरप्रिटेशन करेंगे. आज फेसबुक पर एक ही खबर के दो एंगल, बिलकुल जुदा एंगल तैरता हुआ देखा तो आपसे साझा कर रहा हूं.

नकली मुसलमान

हरियाणा के भगाना नामक गांव में एक अजीबो-गरीब घटना घटी। इस गांव के लगभग डेढ़ सौ दलितों ने अपना धर्म-परिवर्तन कर लिया। वे हिंदू से मुसलमान बन गए। उन्होंने ऐसा इसलिए किया कि पिछले तीन साल से वे बहुत दुखी थे। उनके गांव की ऊंची जातियों के लोगों ने उनकी ज़मीनों पर कब्ज कर लिया था। उनकी बहू-बेटियों के साथ बलात्कार करते थे। उन्हें कुएं से पानी नहीं भरने देते थे और लगभग ढाई-सौ दलितों को गांव-निकाला दे दिया था। 

संस्थागत धर्म आधुनिक इंसान को बार्बेरियन युग में खींच ले जाने का प्रमुख स्रोत

धर्म ने इंसान को इंसानियत के कितने निचले पायदान पर पहुँचा दिया है, इसका अंदाज़ा सांप्रदायिक दंगों में बरती जाने वाली हिंसा के तरीकों को देखकर लगाया जा सकता है. प्रतिपक्ष धर्म के लोगों, खासकर महिलाओं और बच्चों के प्रति प्रयुक्त हिंसा का यह तथ्य स्थापित करता है कि एक दूसरे के प्रति उगले/निगले प्रचारित सांप्रदायिक ज़हर का रुप कितना भयंकर होगा? महिलाओं का सामूहिक बलात्कार, उनके कौमार्य भंग, जला देना, गला रेत देना, बच्चों को जला देना, काट देना यकायक यूँ ही नहीं हो जाता. यह कोई एकदम से घटने वाली परिघटना नहीं होती. इसके मनोवैज्ञानिक पहलुओं का अगर अध्ययन करें तो निश्चय ही पता लगेगा कि एक बड़े दंगे को अंज़ाम देने के लिये जिस खास विकृत मनोदशा की जरुरत होती है, जिसके नशे में इंसान हैवान बन कर दूसरे इंसान को अपना शिकार बनाता चला जाता है, उसके पीछे वर्षों की तैयारी काम कर रही होती है.

It is hard to be loved by Idiots… मूर्खों से प्यार पाना मुश्किल है…

Arun Maheshwari : ग्यारह जनवरी को दस श्रेष्ठ कार्टूनिस्टों के हत्याकांड के बाद आज सारी दुनिया में चर्चा का विषय बन चुकी फ्रांसीसी व्यंग्य पत्रिका ‘शार्ली एब्दो’ पर सन् 2007 एक मुकदमा चला था। तब इस पत्रिका में डैनिस अखबार ‘जिलैट पोस्तन’ में छपे इस्लामी उग्रपंथियों पर व्यंग्य करने वाले कार्टूनों को पुनर्प्रकाशित किया गया था। इसपर पूरे पश्चिम एशिया में भारी बवाल मचा था। फ्रांस के कई मुस्लिम संगठनों ने, जिनमें पेरिस की जामा मस्जिद भी शामिल थी, शार्ली एब्दो पर यह कह कर मुकदमा किया कि इसमें इस्लाम का सरेआम अपमान किया गया है। लेकिन, न्यायाधीशों ने इस मुकदमे को खारिज करते हुए साफ राय दी कि इसमें मुसलमानों के खिलाफ नहीं, इस्लामी उग्रपंथियों के खिलाफ व्यंग्य किया गया है।

नमाज शुरू होने से पहले रस्मी दुआ “मुसलमानों की काफिरों की कौम पर जीत हो” का मतलब क्या है?

Chandan Srivastava : तारेक फतह का एक लेख पढ़ा जिसमें वे लिखते हैं कि… 

”वे टोरंटो (कैनाडा) जहाँ वे रहते हैं, जुम्मे के नमाज को मस्जिद में जाना पसंद नहीं करते. उसमें से एक कारण ये है कि नमाज शुरू हो उसके पहले जो भी रस्मी दुआएं अता की जाती है उसमें एक दुआ “मुसलमानों की काफिरों की कौम पर जीत हो” इस अर्थ की भी होती है. बतौर तारेक फतह, यह दुआ सिर्फ टोरंटो ही नहीं लेकिन दुनियाभर में की जाती है. अब आप को पता ही है काफ़िर में तो सभी गौर मुस्लिम आते हैं – यहूदी, इसाई, हिन्दू, बौद्ध, सिख और निरीश्वरवादी भी. यह दुआ अपरिहार्य नहीं है. इसके बिना भी जुम्मे की नमाज की पवित्रता में कोई कमी नहीं होगी.”

पेरूमल मुरगन प्रकरण : तुम्हारी आस्थाएं इतनी कमजोर और डरी हुई क्यों है धार्मिकों?

(भंवर मेघवंशी)


प्रसिद्ध तमिल लेखक पेरूमल मुरगन ने लेखन से सन्यास ले लिया है. वे अपनी किताब पर हुए अनावश्यक विवाद से इतने खफ़ा हो गए है कि उन्होंने ना केवल लेखनी छोड़ दी है बल्कि अपनी तमाम प्रकाशित पुस्तकों को वापस लेने की भी घोषणा कर दी है और उन्होंने प्रकाशकों से अनुरोध किया है कि भविष्य में उनकी कोई किताब प्रकाशित नहीं की जाये. पी मुरगन की विवादित पुस्तक ‘मधोरुबगन‘ वर्ष 2010 में कलाचुवंडू प्रकाशन से प्रकाशित हुई थी.

पूंजीपतियों की पक्षधरता के मामले में कांग्रेसी ममो के बाप निकले भाजपाई नमो!

: इसीलिए संघ और सरकार ने मिलजुल कर खेला है आक्रामक धर्म और कड़े आर्थिक सुधार का खेल : जनविरोधी और पूंजीपतियों की पक्षधर आर्थिक नीतियों को तेजी से लागू कराने के लिए धर्म पर बहस को केंद्रित कराने की रणनीति ताकि जनता इसी में उलझ कर रह जाए : सुधार की रफ्तार मनमोहन सरकार से कही ज्यादा तेज है। संघ के तेवर वाजपेयी सरकार के दौर से कहीं ज्यादा तीखे है । तो क्या मोदी सरकार के दौर में दोनों रास्ते एक दूसरे को साध रहे हैं या फिर पूर्ण सत्ता का सुख एक दूसरे को इसका एहसास करा रहा है कि पहले उसका विस्तार हो जाये फिर एक दूसरे को देख लेंगे।

प्यार नहीं, आपकी पॉलिटिक्स कुछ और है बॉस… प्यार है तो धर्मांतरण की जरूरत क्यों?

हाल ही में आया इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला न्याय व तर्क के हर पहलू पर फिट बैठता है. कितनी बेहतरीन बात कही न्यायालय ने… अगर धर्म में आस्था ही नहीं, तो धर्म परिवर्तन क्यों? सही बात है, इसे तो धर्मगुरु भी मानेंगे कि धर्म को एक दांव की तरह तो नहीं इस्तमाल किया जा सकता न कि शादी करनी हो या तालाक लेना हो तो धर्म का दांव खेल दिया. इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जिन मामलों की सुनवाई करते हुए फैसला दिया, आईये उन पर गौर करते हैं. दरअसल एक ही विषय पर पांच अलग-अलग याचिकाएं न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की गईं. इन सभी में हिन्दू लड़कियों ने मुसलमान लड़कों से शादी करने के खातिर इस्लाम कुबूल किया फिर निकाह किया व न्यायालय के समक्ष अपनी शादी को वैधता देने और सुरक्षा की मांग की. सभी याचिकाकर्ताओं ने मजिस्ट्रेट के समक्ष जो बयान दिए थे उनकी विषय वस्तु कमोबेश एक ही थी.

संत रामपाल : ….यूं ही कोई इतना लोकप्रिय नहीं हो सकता!

मैं संत रामपाल को नहीं जानता न ही उनके दर्शन और अध्यात्म की उनकी व्याख्या से। पर वे खुद कहते हैं कि वे हिंदू नहीं हैं और खुद को ही परमेश्वर मानते हैं। हिंदुओं के लगभग सभी सेक्ट उनके खिलाफ हैं खासकर आर्य समाज से तो उनकी प्रतिद्वंदिता जग जाहिर है। वे कबीर साहब के आराधक हैं और मानते हैं कि वे इस दुनिया में आने वाले पहले गुरु थे। इसमें कोई शक नहीं कि संत रामपाल अपार लोकप्रिय हैं। उनके भक्त उनके लिए अपनी जान तक दे सकते हैं। संत परंपरा वैदिक अथवा ब्राह्मण परंपरा नहीं है। संत परंपरा श्रावक व श्रमण परंपरा तथा पश्चिम के सेमेटिक दर्शनों का घालमेल है। पर जो व्यक्ति संत की पदवी पा जाता है उसके भक्त उसको ईश्वर अथवा ईश्वर का दूत मानने लगते हैं।

कबीर साहेब क्यों हैं आज भी स्वीकृत और गौतम बुद्ध हो गए खारिज?

Sumant Bhattacharya : इस धरती पर “कबीर साहेब” एकमात्र ऐसे संत हुए जिन्होंने लाठी लेकर “हिंदू और मुसलमानों” के आडंबर पर बरसाया। जितना उन्होंने गरिआया, और वो भी देसी भाषा में, उतना तो किसी और ने नहीं। बावजूद आज भी भारत में कबीर साहेब के 21 करोड़ से ज्यादा अनुयायी है। वहीं “गौतम बुद्ध” हुए। जिन्होंने एक संगठित धर्म की स्थापना की. “ब्राह्मण आडंबरों” की पुरजोर मुखालफत की, समृद्ध दर्शन भी दिया। फिर क्यों गौतम बुद्ध अपनी ही जमीन से खारिज हो गए और कबीर साहेब आज भी पूजे जाते हैं?

क्या हिंदू ब्राह्मणों ने भी कर्बला की लड़ाई में हिस्सा लिया था ?

हिंदुस्तान के सभी धर्मों में हज़रत इमाम हुसैन से अकीदत और प्यार की परंपरा रही है. घटना कर्बला के महान त्रासदी ने उदारवादी मानव समाज हर दौर में प्रभावित किया है. यही कारण है कि भारतीय समाज में शहीद मानवता हज़रत इमाम हुसैन की याद न केवल मुस्लिम समाज में रही है बल्कि ग़ैर मुस्लिम समाज में मानवता के उस महान नेता की स्मृति बड़ी श्रद्धा के साथ मनाई जाती है. भारतीय सभ्यता जिसने हमेशा मज़लूमों का साथ दिया है घटना कर्बला के महान त्रासदी से प्रभावित हुए बगैर ना रह सकी. भारतीय इज़ादारी एक व्यक्तिगत स्थिति रखता है, जो सांस्कृतिक परंपरा न केवल मुसलमानों में स्थापित है बल्कि हिन्दो हज़रात भी इसमें भाग लेते हैं. भारतीय पूर्व राजवाड़ों में हिन्दो हज़रात यहाँ इमाम हुसैन से अकीदत की ऐतिहासिक परंपरा मिलती हैं जिसमें राजस्थान, ग्वालियर “मध्य प्रदेश”, बंगाल मुख्य है.