मजीठिया वेतन बोर्ड को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने उन सभी संस्थानों की सूची मांगी है जो मजीठिया वेतन नहीं दे रहे है। ऐसे में अब पत्रकारों का दायित्व बनता है कि अंतिम समय में और सक्रिय होकर अपने हक की लड़ाई लड़े। वास्तविक स्थिति आज भी यह है कि कई वरिष्ठ पत्रकार यह नहीं जानते कि मजीठिया वेतन बोर्ड है क्या? लड़ाई किस बात को लेकर हो रही है, वेतन तो सभी को मिल रहे है। फिर उन्हें साफ शब्दों में समझाना पड़ता है कि मजीठिया वेतन बोर्ड मतलब कम से कम 30 हजार वेतन।
सुप्रीम कोर्ट उन संस्थानों की सूची मांगा है जो मजीठिया नहीं दे रहे है। ऐसे में केन्द्रीय श्रम मंत्रालय व राज्य सरकार के श्रम विभाग सामने यह धर्म संकट उत्पन्न होगा कि किन-किन संस्थानों की जांच करें, किनकी सूची दें। ऐसे में प्रेस संस्थानों से ही सूची मांगेगा, तो संस्थान चुनिंदे अपने 2-4 चम्मचों के नाम भेज देगा। ऐसे में आप जहां काम कर रहे है उस संस्थान की रिपोर्ट स्वयं सुप्रीम कोर्ट, केन्द्रीय श्रम मंत्रालय व राज्य श्रम मंत्रालय को भेजे। जिसमें संस्थान का नाम कितने कर्मचारी काम कर रहे है, किन्हें क्या वेतन मिल रहा है। संस्थान का वार्षिक कारोबार, पता आदि की जानकारी दें। हो सकें तो यह भी जानकारी दे कि वर्तमान में मजीठिया वेतनमान कितना होना चाहिए। उक्त जानकारी भरकर इसे रजिस्टर्ड डाक से उक्त संस्थानों को गुमनाम से भेज दें। जो ऐसा ना कर पाए तो कम से कम ई-मेल उक्त विभागों को कर दें। कोर्ट को भेजे पत्र में ऊपर पते के साथ केस नंबर भी दर्ज करें।
चूंकि जिन संस्थानों के नाम से अवमानना लगी है उन्हें मजीठिया देना मजबूरी है। ऐसे में संस्थान यह कर सकता है आधे-अधूरों को मजीठिया देकर मामला रफा-दफा कराने का प्रयास करे। या पत्रकारों की छंटनी करें, ऐसे में पत्रकार तैयार रहें। छंटनी क्यों कर रहे है, संस्थान को एक माह पहले बताना पड़ता है और पहले आओ, अंत में जाओ क्रम का पालन करना पड़ता है लेकिन संस्थान किसी को भी निकाल देता है। जर्नलिस्ट एक्ट की धारा 15 के तहत किसी कर्मचारी को वेतन बोर्ड के कारण नहीं निकाला जा सकता। यदि 240 दिन की कर्मचारी कार्य अवधि पूर्ण कर लिया हो तो लेबर कोर्ट में औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 की धारा 25 एफ के तहत परिवाद लग सकता है। जिसमें केस अवधि तक कोर्ट से कंपनसेशन की मांग की जाती है। मांग में केस अवधि तक पुनः नौकरी में रखने या गुजारा भत्ता देने की मांग की जाती है। लेकिन भूलकर भी लेबर आफिस के चक्कर में ना पड़ें। क्योंकि लेबर आफिस अंत में कोर्ट ही जाता है और संस्थान के प्रमुख से शिकायत के बदले राशि की मांग कर मामला रफा-दफा या ढीला करने का प्रयास करता है।