Siddhant Mohan : बनारस स्थित काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में एमए हिन्दी प्रथम वर्ष के 23 वर्षीय छात्र अंकित तिवारी (बदला हुआ नाम) के साथ विश्वविद्यालय के ही कर्मचारी और उसके मित्रों द्वारा बलात्कार का मामला सामने आया है. अंकित घटना के अगले दिन से अपना मेडिकल करवाने का इच्छुक है, लेकिन पुलिस और विश्वविद्यालय प्रशासन की कारस्तानियों के चलते घटना के दस दिन बीतने पर आधा-अधूरा मेडिकल कराया गया. दस दिनों बाद हुए पीड़ित छात्र के मेडिकल परीक्षण में बलात्कार की पुष्टि नहीं हो सकी है. रिपोर्ट में यह बात ज़रूर स्वीकारी गयी है कि शरीर के अन्दर मौजूद मांस नाज़ुक अवस्था में हैं.
अंकित का आरोप है कि बाहरी जांच के दौरान उनकी जांच नहीं की गयी और इसके बाद रिपोर्ट लगा दी गयी. इसके बाद अंदरूनी जांच के लिए उन्हें मंडलीय चिकित्सालय भेजा गया. चार दिनों तक वे मंडलीय चिकित्सालय भटकते रहे, लेकिन उन्हें यहां स्थित डॉक्टरों द्वारा बहकाया जाता रहा. आखिरकार आज जब अंकित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और कुछेक साथियों के साथ पहुंचे, तब काफी नोंक-झोंक के बाद डॉक्टर उनकी अंदरूनी जांच के लिए तैयार हुए. मंडलीय चिकित्सालय के एक डॉक्टर नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर बताते हैं, ‘बाहरी जांच कायदे से नहीं की गयी है. शरीर के बाहरी हिस्से पर ही सिगरेट से जलने के दाग मौजूद हैं, लेकिन मंडलीय चिकित्सालय में सिर्फ अंदरूनी जांच के लिए ही रेफर किया गया है. इस वजह से ही सकता है कि इसे रिपोर्ट में नहीं लिखा गया है.’ उनका आगे कहना है, ‘रेप के केस में सबसे सही तरीके से जांच घटना के 48 घंटों के भीतर ही होती है. लेकिन यहां मामला दस दिनों के बाद आ रहा है. इतना लंबा वक़्त अंदरूनी घावों और चोटों के भरने के लिए काफी होता है.’ इस मामले में अंकित का ही नहीं, विशेषज्ञों का भी यही कहना है कि अंकित की जांच में देर हुई है, अन्यथा कुछ मजबूत साक्ष्य जुटाए जा सकते थे. अंकित कहता है, ‘मैं पहले दिन से अपनी जांच के लिए थाने दौड़ रहा हूं. लेकिन वहां मौजूद पुलिसकर्मी मुझे बेज्जत करने और गालियां देने के अलावा और कोई काम नहीं कर रहे हैं. अब समझ में नहीं आ रहा है कि आगे क्या करूं?’
बीते हफ्ते 13 अगस्त दिन शुक्रवार को पीड़ित छात्र अंकित रात नौ बजे कैम्पस से होता हुआ अपने घर की ओर लौट रहा था. तभी बीएचयू के चिकित्सा विज्ञान संस्थान की माइक्रोबायलजी लैब में बतौर अटेंडेंट कार्यरत दीपक कुमार शर्मा और उसके साथ मौजूद चार अन्य सहयोगियों ने उसे जबरदस्ती कार में खींच लिया. इसके बाद अंकित को चाकू की नोंक पर शराब पिलायी गयी और फिर उसे कोई नशीला पदार्थ सुंघाकर बेहोश कर दिया गया. इसके बाद सभी लोगों ने बारी-बारी अंकित के साथ अप्राकृतिक रूप से यौन सम्बन्ध बनाए. इस दौरान अंकित के गुदाद्वार में जलती हुई सिगरेट भी डाली गयी. दुष्कर्म के बाद घायल और बेहोश अंकित को बीएचयू के आखिरी छोर पर स्थित कृषि विज्ञान विभाग के मैदान पर गाड़ी से फेंक दिया गया. चौंकाने वाली बात यह है कि अंकित के साथ दुष्कर्म कुलपति आवास से कुछ मीटर की दूरी पर किया गया. और दुष्कर्म के बाद कार कैम्पस के चक्कर काटती रही.
घटना के बाद डरा अंकित अपने कमरे पर लौट आया और अगली सुबह उसने पुलिस को सूचना दी. पुलिस और विश्वविद्यालय प्रशासन से जुड़े लोग इस मामले को रफादफा करने पर जुट गए हैं. प्राक्टोरियल बोर्ड ने अंकित से सिर्फ एक सादे कागज़ पर अर्जी लिखवाई और उसे कहा कि वह अब थाने में जाकर एफआईआर लिखवाए. बातचीत में अंकित बताते हैं, ‘अगली सुबह मैं लंका थाने गया तो थानाध्यक्ष साहब मुझे बरगलाने लगे कि एफआईआर करोगे तो तुम्हारी ही बदनामी होगी.’ बकौल अंकित, थानाध्यक्ष संजीव कुमार मिश्रा ने बार-बार अंकित पर यह दबाव डालने का प्रयास किया कि वह एफआईआर न दायर करे. जब अंकित ने एफआईआर दायर कर दी तो विश्वविद्यालय के कई कर्मचारी और थानाध्यक्ष दोनों ही मिलकर अंकित पर एफआईआर वापिस लेने का दबाव डालने लगे. बलिया के रहने वाले अंकित बताते हैं, ‘थानेदार साहब बार-बार मुझसे बोल रहे थे कि – साले आदती हो, खुद किए हो फिर बोल रहे हो.’ उन्हें मुझसे पता नहीं क्या शिकायत थी, बार-बार मुझसे बोल रहे थे कि बलिया वाले हो न साले, यही सब करने बनारस चले आते हो.
अंकित कहते हैं, ‘मैंने डरकर घर पर इस मामले के बारे में नहीं बताया था. थानाध्यक्ष ने मुझ पर दबाव बनाकर घर पर फोन कराया और कहा कि फोन करो, मैं बताता हूं कि तुम क्या करते हो? तब जाकर मेरे घर पर पता चला.’ अंकित कहते हैं, ‘मैं घटना के अगले दिन से थाने पर लगातार कह रहा हूं कि मेरा मेडिकल करा लिया जाए और अच्छे से करा लिया जाए लेकिन पुलिस मेरी बात सुनने के बजाय मुझे ही गालियां दे रही है और भद्दी-भद्दी बातें बोल रही हैं.’ साथ ही साथ बलिया में मौजूद अंकित के परिवार वालों पर विश्वविद्यालय के लोगों की ओर से बेनामी फोन जा रहे हैं, जिनके माध्यम से अंकित को जान से मारने की धमकी दी जा रही है. एक फोन पर कहा गया, ‘नाम क्या पूछ रहे हो? बेटा मरेगा तो मेरी ही गोली से. तुम्हारे बेटे के केस की वजह से विश्वविद्यालय को थोड़े ही बदनाम होने देंगे.’ इस मामले में विश्वविद्यालय कुलपति की ओर से बयान देने के लिए आधिकारिक रूप से नियुक्त जनसंपर्क अधिकारी राजेश सिंह पीड़ित बालक को मानसिक रोगी करार देते हैं. राजेश सिंह कहते हैं, ‘साफ़ कहूं तो वह बच्चा मानसिक रोगी है. एक बार पुलिस के पास जाता है तो एक बार प्राक्टोरियल बोर्ड के पास. वह एकदम बेबुनियादी रूप से आरोप-प्रत्यारोप का खेल खेल रहा है.’ राजेश सिंह आगे बताते हैं, ‘इस मामले में विश्वविद्यालय इन्क्वायरी के बाद ही कोई निर्णय लेगा. कथित अभियुक्त कर्मचारी पर जब तक कोई आरोप साबित नहीं हो जाता है तब तक उस पर कोई एक्शन कैसे ले सकते हैं.’ (twocircles.net में प्रकाशित सिद्धांत मोहन की दो रिपोर्ट्स का संपादित अंश)
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Anil Kumar Yadav : सदमा लगा था जब विश्विद्यालयों के छात्र खुद को “बच्चे” कहने लगे थे. वे अबोध और असहाय होने के बदले रियायत चाहते थे. इधर बीएचयू को महामना की बगिया और खुद को फूल कहने का फैशन बढ़ा है. यहां मुराद बौद्धिक क्षमता के बजाय हुस्न से ज्यादा है. छात्रों का यह सेल्फअसेस्मेन्ट काफी कुछ कहता है. शायद बीएचयू का एक पूर्व छात्र होने के नाते महामना आज मेरे सपने में आए. मूंछों के नीचे से उदास मुस्कान के साथ बोले, पहली बार देख रहा हूं कि ऐसा एक प्रधानमंत्री (जो काशी से सांसद भी हैं) अत्याचारियों के आगे अपने को करते हुए कहता है- मुझे गोली मार दो लेकिन मेरे दलित भाईयों पर हमले बंद करो. अनिल, मैं प्रेरित होकर परिसर में घूमते अपराधियों से कहता हूं, मेरे साथ गुदा मैथुन कर लो लेकिन मेरे फूलों को बख्श दो. बीएचयू के कुलपति और पुलिस के कप्तान से कहता हूं- जब मेरे साथ कुछ हो तो कान में तेल डाल लेना लेकिन अभी तो कार्रवाई करके उस छात्र को दिमागी तौर पर अपाहिज और सदा के लिए हीन होने से बचाओ.
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Abhishek Srivastava : दस दिन पहले बर्बर सामूहिक दुष्कर्म के शिकार बीएचयू के छात्र की आंतरिक मेडिकल जांच में आज बलात्कार की पुष्टि नहीं हो सकी। डॉक्टर का कहना था कि बाहरी जांच ठीक से नहीं की गयी और देरी के कारण साक्ष्य खत्म हो गए। पुलिस ने अब तक किसी की गिरफ्तारी नहीं की है और विश्वविद्यालय प्रशासन मामले से ही इनकार कर रहा है। क्या आपको लगता है कि किसी महिला का रेप हुआ होता तब भी स्थिति यही होती? क्या प्रशासन ऐसी छूट ले पाता? क्या युनिवर्सिटी झूठ बोल पाती? क्या मेडिकल में दस दिन लग जाते? क्या स्त्री अधिकार संगठन, मानवाधिकार संगठन चुप बैठे रहते?
मुकदमा आइपीसी की धारा 377 में दर्ज है जिस पर बीते सात साल से राजनीति और मुकदमेबाजी हो रही है। जुलाई 2009 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने ‘सहमति’ के आधार पर समलैंगिक संबंध को जब अपराध की श्रेणी से हटाया था, तो कथित एलजीबीटी समुदाय में बड़ा जश्न मना था। सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में जब इस फैसले को पलट दिया, तो गज़ब की राष्ट्रीय चीख-पुकार मची। इस मुकदमे ने हमारे दौर में आधुनिकता की ऐसी परिभाषा गढ़ी है कि प्रगतिशीलता का एक आयाम धारा 377 का विरोध बन चुका है। हमारे समाज के तमाम एनजीओ, प्रगतिशील संगठन, मानवाधिकार संगठन, स्त्री अधिकार संगठन और यहां तक कि कम्युनिस्ट छात्र संगठन भी एलजीबीटी समुदाय के अधिकारों के पक्ष में खड़े होकर 377 का विरोध करते हैं। तब बताइए, क्या खाकर कोई संगठन बीएचयू के एक अदद छात्र के साथ खड़ा होगा? सिद्धांत बड़ा कि न्याय? इसे कहते हैं प्रगतिशील पाखण्ड।
अब आइए प्रतिगामी (गैर-प्रगतिशील / यथास्थितिवादी /आस्थावादी) व्यक्तियों / संगठनों पर। वे तो हमेशा से समलैंगिकता को पाप मानते रहे हैं। धर्म की नगरी बनारस और सर्वविद्या की राजधानी बीएचयू में ऐसा महापाप? वे मान लेंगे तो उनका धर्म भ्रष्ट हो जाएगा और धर्म भ्रष्ट हुआ तो धंधा चौपट हो जाएगा। इसीलिए पुलिस, प्रशासन, शिक्षक समुदाय, धार्मिक लोग सब न केवल संट मारे बैठे हैं बल्कि घटना के होने को ही नकार रहे हैं। बड़ी मुश्किल से एक एफआइआर हुई है, उसे रफा-दफा करने की कोशिशें इसीलिए जारी हैं। इसे कहते हैं परंपराजन्य पाखण्ड।
इन दो सामाजिक पाखण्डों के समर्थन में धारा 377 का 150 साल पुराना दिलचस्प इतिहास भी खड़ा है जिसमें न्यायपालिका के समक्ष आए अब तक कुल छह मामलों में केवल एक में सज़ा तामील हुई है। सुन कर झटका लगा? अब आप ही बताइए, क्या हम बीएचयू के छात्र के मामले को 377 के इतिहास का दूसरा मामला बनाने की हैसियत रखते हैं जिसमें सज़ा तामील हो जाए? हल्ला करने से कुछ हो सकता है, लेकिन करेगा कौन? पाले के दाएं और बाएं एक जैसे लोग बैठे हैं। ये मामला दबंगई और गुंडई का नहीं है, हमारी सामाजिक संरचना का है जिसमें झूठ बोलना किसी के लिए पॉलिटिकली करेक्ट है तो किसी दूसरे के लिए रेलीजियसली करेक्ट। बेचारे छात्र की बस यही गलती है कि वह इस वीरभोग्या वसुंधरा पर पैदा हो गया और मधुर मनोहर अतीव सुंदर मालवीयजी की राष्ट्रवादी बगिया में पढ़ने आ गया।
पत्रकार सिद्धांत मोहन, अनिल यादव और अभिषेक श्रीवास्तव की एफबी वॉल से.