Abhishek Srivastava : बीते चार महीनों के दौरान हर महीने कम से कम दो बार जगदीश बहराइच के अपने गांव से मुझे फोन करता रहा। आज फिर उससे बात हुई। हर बार फोन कर के एक ही बात कहता है- बाबूजी, हमार औरत अभी ले नहीं आई। कछु पता लगे तो बतइहो…।” मथुरा में 2 जून को जय गुरुदेव के अनुयायियों पर हुई गोलीबारी के बाद से उसकी औरत और लड़की गायब है। ऐसे बहुत से लोग हैं जिनके परिजनों का आज तक पता नहीं लगा। इनके स्वयंभू नेता रामवृक्ष यादव की मौत की पुष्टि भी अब तक नहीं हो सकी है।
इस अधूरी कहानी के बीच कल जय गुरुदेव के लोगों की बनारस में हुई भगदड़ में मौत की जब ख़बर आई, तो दिल दहल गया। इस बार झंडा रामवृक्ष ने नहीं, पंकज यादव ने थाम रखा था। आवेश तिवारी लिखते हैं कि लाशों के बीच से लोग खून में सने जय गुरुदेव के झंडे बंटोर रहे थे। पढ़ते हुए याद आया कि वृंदावन के अस्पताल में 2 जून की घटना में गोली खाए देवरिया के एक बुजुर्ग से मुलाकात हुई थी। घटना का विवरण देते हुए उन्होंने कहा था, ”गुरु बोले थे कि जब अन्याय हो तो झंडा आगे कर देना। हम झंडा आगे किए तो छाती पर गोली मार दिया।”
जय गुरुदेव के अनुयायी बेहद गरीब-गुरबा, सीधे-सादे और ग्रामीण लोग हैं जिनका ब्रेन वॉश कर दिया गया है। झंडा उनकी आस्था का प्रतीक है जो उन्हें ताकत देता है। हमारे पास उन्हें देने को कुछ नहीं है। लाशों के बीच से उनका झंडा बंटोरना एकबारगी विद्रूप लग सकता है, लेकिन यह उस देश के पढ़े-लिखे और खाए-अघाए लोगों पर एक तीखी टिप्पणी है जो उन्हीं की तरह किसी दूसरे का झंडा तो ढोते रहते हैं, लेकिन अपनी बौद्धिकता के दंभ में किसी और के झंडे तले खड़े मजबूर लोगों को नीची निगाह से देखते हैं।
जय गुरुदेव के अनुयायी मथुरा में 25 मार दिए गए, तो बनारस में 25 हादसे में मर गए। दोनों के लिए बुनियादी रूप से स्टेट ही जिम्मेदार है लेकिन उनके लिए इस देश में फासीवाद कभी नहीं आया। उनके लिए जनवादियों से कभी आह्वान नहीं किया गया। पास्टर निमोलर होते तो लिखते, ”पहले वे आस्तिकों को मारने के लिए आए/मैं चुप रहा क्योंकि मैं नास्तिक था/फिर वे मुझे मारने के लिए आए/और तब तक कोई नहीं बचा था/ जो मेरे लिए बोलता”।
पत्रकार और एक्टिविस्ट अभिषेक श्रीवास्तव की एफबी वॉल से.