संजय कुमार सिंह
आज के अखबारों का पहला पन्ना निर्माणाधीन सुरंग धंसने से फंसे 41 मजदूरों को सुरक्षित निकाल लिये जाने की खबरों से भरा हुआ है। होना भी था। हालांकि, इसलिए आज मैं भी इसी खबर की चर्चा करूंगा। इसमें पहली बात तो यह कि शुरू में इस खबर को वह गंभीरता नहीं मिली जो मिलनी चाहिये थी। कई राष्ट्रीय अखबारों में तो यह खबर पहले पन्ने पर भी नहीं थी। अब कहा जा सकता है कि अखबारों में कई दिनों तक पहले पन्ने पर खबर छपने का दबाव भी रहा होगा कि मजदूरों को सुरक्षित निकाला जा सका। यह संयोग ही है कि कल पांच राज्यों में चुनाव प्रचार खत्म हुआ और कल ही प्राइम टाइम के समय मजदूर बाहर आये। मामला कुछ ऐसा रहा कि चुनाव प्रचार में श्रेय लेने या देने की गुंजाइश नहीं के बराबर रही। कल के अखबारों के पहले पन्ने का हाल लिखने के बाद मिलने वाली खबरों से लगने लगा था कि रैट होल माइनर्स कामयाब हो जायेंगे। हालांकि खबर थी कि इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता है। ऊपर से हो रहा ड्रिल भी तेज चल रहा था। 86 में से 36 मीटर काम कर चुका था।
इसलिए मजदूरों के सफल निकल आने पर कल दिन भर भ्रम रहा। कइयों ने दोपहर में ही खबर दे दी कि मजदूर निकलने लगे हैं। शाम तक बहुत लोग निश्चिंत हो चले थे। पर निकले मजदूर का नाम, समय या वीडियो जैसा कुछ नहीं था। मैं यूट्यूब पर डीबी लाइव के न्यूजप्वाइंट में था और तभी खबर मिली कि मजदूर निकलने लगे हैं। मैंने फिर चेक किया लेकिन इंटरनेट पर कोई खबर नहीं थी। कार्यक्रम खत्म होने के बाद, नौ बजे दैनिक भास्कर की खबर मिली कि पहला मजदूर 7:50 में निकला और सब निकाले जा चुके हैं। आज के अखबारों में भी लगभग यही खबर है। मेरा मानना है कि पहले ही दिन खबर छपी होती और उसमें बताया गया होता कि टनल का निर्माण करने वाली कंपनी अदाणी की है (हालांकि समूह ने दुर्घटना से संबंध होने से इनकार किया है) और निर्माण के दौरान अपनाये जाने वाले सुरक्षा उपायों का क्या हाल था तथा एस्केप रूट नहीं था तो बात अलग होती।
दुर्घटना के बाद ये सारी बातें पता की जानी चाहिये थी और पूरी खबर तभी बनती जो पहले पन्ने की होती। अखबारों, पत्रकारों और पत्रकारिता का यह काम है। इसीलिए मीडिया को ‘वाच डॉग’ कहा जाता था कि जहां गड़बड़ी लगे उसे सूंघे और बताये। इससे लोग गड़बड़ी करने की हिम्मत नहीं करेंगे, जो करेंगे उसका पता समय पर चल जायेगा और फिर डर से लापरवाह लोग कोशिश करेंगे कि मामला न बढ़े। इस तरह व्यवस्था सही रहेगी। हालांकि, इसका उल्टा असर भी होता है लेकिन इस डर से पत्रकार या मीडिया अपना काम छोड़ दें, यह देशभक्ति तो नहीं ही है। हालांकि ज्ञान यही दिया गया है पर वह सब अलग मुद्दा है। मुझे लगता है कि आज जो खबर है उससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह बताना था कि फंसे हुए मजदूरों को निकालने के लिए जो पाइप लगाया गया और जिसमें 16 दिन लगे वह अगर खुदाई के साथ लगता रहता तो यह स्थिति नहीं बनती। इस्केप रूट ऐसा ही कुछ होगा जो जाहिर है, बहुत महंगा नहीं है, नहीं बनाना गंभीर चूक है। मीडिया इसपर शांत है। विदेशी विशेषज्ञ ने सवाल उठाया था पर भारतीय मीडिया ऐसी बातों पर ध्यान नहीं देता है।
ऐसी पत्रकारिता में आज नवोदय टाइम्स ने पहले पन्ने के बॉटम का शीर्षक है, भगवान के आगे नतमस्तक हुए इंसान और विज्ञान। इस खबर में हाइलाइट किया अंश है, अंतरराष्ट्रीय टनल विशेषज्ञ आर्नोल्ड डिक्स ने सोशल मीडिया पर लिखी स्थानीय देवताओं पर आस्था को लेकर पोस्ट। कहने की जरूरत नहीं है कि वे यह सब देखकर चकित होंगे और उन्होंने अपने प्रशंसकों या परिचितों को इसकी जानकारी दी है लेकिन यहां इसे आस्था के प्रति उपलब्धि के रूप में पेश किया जा रहा है और इस खबर का पहला ही वाक्य है, …. बचाव अभियान ने एक बार फिर विज्ञान और इंसान पर भगवान की श्रेष्ठता को साबित किया है। दूसरों की आस्था को रिपोर्ट करना तो पत्रकारिता हो सकती है लेकिन उसमें अपनी आस्था शामिल नजर आये तो वह पत्रकारिता या रिपोर्टिंग नहीं आस्था प्रदर्शन है। हो सकता है उससे तरक्की भी हो जाये पर यह पत्रकारिता नहीं है। नवोदय टाइम्स ने तस्वीर के साथ बताया है कि अर्नोल्ड डिक्स ने ऐसे व्यक्त की बाबा बौखनाग पर अपनी आस्था। इसके साथ उनके ट्वीट का हिन्दी अनुवाद भी है। दिलचस्प यह कि आस्था वाले भी इसे चेतावनी के रूप में नहीं लेते हैं। पर वह सब अलग मुद्दा है।
इन दिनों चल रही पत्रकारिता और खबरों का एक उदाहरण अमर उजाला में आज छपा बॉटम है। शीर्षक से ही यह सरकारी प्रचार और विज्ञापन लगता है तथा चुनाव प्रचार खत्म होने तुरंत बाद (तेलंगाना में मतदान से पहले) छपा है। हालांकि तेलंगाना के पाठक हिन्दी कहां पढ़ते होंगे। शीर्षक है, डेढ़ महीने में तीन लाख नियुक्ति पत्र बांटेंगे पीएम मोदी। उपशीर्षक है, लोकसभा चुनाव में बेरोजगारी के मुद्दे को कुंद करने की तैयारी, ग्यारहवां रोजगार मेला कल, 50 हजार युवाओं को मिलेगा नियुक्ति पत्र। वैसे इस प्रचार के साथ एक खबर और फोटो है जिसका शीर्षक है, यह सफलता भावुक कर देने वाली। हाइलाइट हिस्सा है, पीएम मोदी ने की फोन पर बात और फिर कैप्शन है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने श्रमिकों से फोन पर बात कर उनका हालचाल जाना। उन्होंने कहा, आपका साहस और धैर्य हर किसी को प्रेरित करने वाला है। इससे पहले, मजदूरों के निकलने से कई दिन पहले की खबरों में बताया गया था कि सुरंग के बाहर 41 एम्बुलेंस तैयार हैं, उन्हें पहिये वाले स्ट्रेचर से निकाला जायेगा आदि आदि। पर यह नहीं बताया गया कि उनकी प्रधानमंत्री से बात करवाने की तैयारी चल रही है।
जो फोटो छपी है उससे लग रहा है कि यह अचानक नहीं हो गया होगा, फिर भी। यही नहीं, प्रधानमंत्री ने कहा है और अखबारों में पहले पन्ने पर छपा है, बचाव अभियान मानवता की अद्भुत मिसाल है। नवोदय टाइम्स ने तस्वीर के साथ बताया है कि अर्नोल्ड डिक्स ने ऐसे व्यक्त की बाबा बौखनाग पर अपनी आस्था। इसके साथ उनके ट्वीट का हिन्दी अनुवाद भी है। इंडियन एक्सप्रेस में एक्सप्रेस एक्सप्लेन्ड के अनुसार, मजदूरों को फिलहाल चिकित्सीय निगरानी में रखा जा रहा है और आने वाले समय में इन्हें सतर्क निगरानी की आवश्यकता हो सकती है। द हिन्दू के अनुसार उन्हें 47-72 घंटे ऑब्जर्वेशन में रखा जायेगा। लेकिन प्रधानमंत्री से बातचीत की यह खबर और तस्वीर अमर उजाला में ही है।
तथ्य यह है कि बचाव अभियान की पांच योजनाएं फेल हुईं। खबर छपी कि एक साथ सभी योजनाओं पर काम चल रहा है फिर भी ऊपर से खुदाई तब शुरू हुई जब ऑगर मशीन फेल हो गई। अब रैट होल माइन तकनीक की कामयाबी के बाद उसकी प्रशंसा की जा रही है पर इसे पहले ही क्यों नहीं अपनाया गया। जाहिर है, कहा जा सकता है कि यह 66 मीटर के लिए नहीं है। पर जितने समय में 10-12 मीटर या उससे कम खोदा गया उससे लगता है कि 16 दिन में 66 मीटर भी खोदा जा सकता था और यह भी साथ-साथ चल रहा होता तो क्या दिक्कत थी? मशीन पहले भी टूटती क्षतिग्रस्त होती रही तो विकल्प पहले ही क्यों नहीं सोचा गया। मुझे लगता है कि एक साथ सभी प्रयास क्यों नहीं किये गये – इसका जवाब मांगा जाना चाहिये। लेकिन अखबार प्रधानमंत्री के कहे का प्रचार कर रहे हैं और यह भी अद्भुत मिसाल है। कुल मिलाकर, 66 मीटर मलबा हटाने में 400 घंटे लगे क्योंकि जिस पाइप से मजदूर निकले वह पहले से वहां नहीं रखी थी और सुरक्षा के लिए रखी जानी चाहिये थी। मैं कोई विशेषज्ञ नहीं हूं, खबरों से ही पता चल रहा है कि ये कमियां थीं और ये सब नहीं किया गया। दूसरी ओर, छोड़ देना संभव नहीं था तो जो किया गया उसमें उद्भुत क्या है? अगर अद्भुत है तो विदेशी विशेषज्ञ का आना, स्थानीय लोगों के साथ मिलकर पूजा करना आदि। पर अखबारों ने यह नहीं बताया कि वे खुद आये या उन्हें किसने बुलाया था, पैसे दिये- लिये कि नहीं आदि।
प्रधानमंत्री ने प्रशंसा में कहा है तो यह खबर क्यों है, जब बाकी सब नहीं है? पहले पन्ने पर एक और खबर है, पीएमओ ने अभियान में निभाई अहम भूमिका। मौके पर राजमार्ग राज्यमंत्री थे, प्रधानमंत्री के सलाहकार सोमवार को पहुंचे ही थे, मुख्यमंत्री ने पहला श्रेय बाबा बौख नाग जी को दिया ही है और खबर थी कि जरूरत हुई तो टनल में फंसे मजदूर को हेलीकॉप्टर से इलाज के लिए ले जाया जायेगा। 41 एम्बुलेस खड़ें करने की फोटो छापने से मजदूर नहीं निकले तो एयर एम्बुलेंस की बारी थी। यह सब पीएमओ के बिना कहां संभव था और इसमें खबर क्या है? पीएमओ ही तो देश चलाता है। इस महत्वपूर्ण और जरूरी अभियान में अहम भूमिका कैसे नहीं निभाता। हालांकि, इस काम के लिए ट्वीटर पर लोगों को मुक्त करने और जल्दी करने और इसे मैच जीतने से जरूरी बताने वाले ट्वीट भरे पड़े हैं। वैसे भी, प्रधानमंत्री अपना काम कर रहे थे।
इसके लिए उन्हें वेतन-भत्ता और सुविधाएं मिलती हैं। यह काम उन्होंने चुनाव लड़कर जीता, पाया या लिया है। फिर काम करने पर इतनी प्रशंसा क्यों और वह भी तब जब आलोचना कभी की ही नहीं गई। खबर यह भी है एक मजबूर मजदूर का पिता घर के गहने गिरवी रखकर 9000 रुपए के करीब का कर्ज लेकर वहां पहुंचा था और बेटे के बाहर आने से पहले उसकी जेब में 290 रुपये ही बचे थे। उसकी भगवान ने सुन ली। बेटा सुरक्षित निकल आया लेकिन कर्ज, जेवर और 290 रुपए खबर नहीं हैं? कम महत्वपूर्ण हैं या कम भावुक करने वाले।