Surendra Kishore : बहुत दिनों से मैं सोच रहा था कि आपको अपने बारे में एक खास बात बताऊं। यह भी कि वह खास बात किस तरह मेरे जीवन में बड़े काम की साबित हुई। मैंने 1977 में एक बजुर्ग पत्रकार की नेक सलाह मान कर अपने जीवन में एक खास दिशा तय की। उसका मुझे अपार लाभ मिला। मैंने फरवरी 1977 में अंशकालीन संवाददाता के रूप में दैनिक ‘आज’ का पटना आफिस ज्वाइन किया था। हमारे ब्यूरो चीफ थे पारस नाथ सिंह। उससे पहले वे ‘आज’ के कानपुर संस्करण के स्थानीय संपादक थे। वे ‘आज’ के नई दिल्ली ब्यूरो में भी वर्षों तक काम कर चुके थे। पटना जिले के तारण पुर गांव के प्रतिष्ठित राजपूत परिवार में उनका जन्म हुआ था। वे बाबूराव विष्णु पराड़कर की यशस्वी धारा के पत्रकार थे। विद्वता और शालीनता से भरपूर।
इधर मैं लोहियावादी समाजवादी पृष्ठभूमि से निकला था। पिछड़ों के लिए आरक्षण का प्रबल समर्थक। सक्रिय राजनीति से निराश होकर पत्रकारिता की तरफ बढ़ा ही था कि देश में आपातकाल लग गया। पहले छोटी-मोटी पत्रिकाओं में काम शुरू किया था। उन पत्रिकाओं में नई दिल्ली से प्रकाशित चर्चित साप्ताहिक ‘प्रतिपक्ष’ भी था। उसके प्रधान संपादक जार्ज फर्नांडिस और संपादक कमलेश थे। गिरधर राठी और मंगलेश डबराल भी प्रतिपक्ष में थे। भोपाल के आज के मशहूर पत्रकार एन.के.सिंह भी कुछ दिनों के लिए ‘प्रतिपक्ष’ में थे। पर वह जार्ज के दल का मुखपत्र नहीं था। वह ब्लिट्ज और दिनमान का मिश्रण था। आपातकाल में मैं फरार था। बड़ौदा डायनामाइट केस के सिलसिले में सी.बी.आई.मुझे बेचैनी से खोज रही थी कि मैं मेघालय भाग गया।
जब आपातकाल की सख्ती कम हुई तो में पटना लौट आया और ‘आज’ ज्वाइन कर लिया। मैंने अपनी पृष्ठभूमि इसलिए बताई ताकि आगे की बात समझने में सुविधा हो। आज ज्वाइन करते ही मैंने देखा के ‘आज’ में हर जगह ब्राह्मण भरे हुए हैं। मैंने पारस बाबू से इस संबंध में पूछा और सामाजिक न्याय की चर्चा की। उन्होंने जो कुछ कहा, उसका मेरे जीवन पर भारी असर पड़ा। ऋषितुल्य पारस बाबू ने कहा कि आप जिस पृष्ठभूमि से आए हैं, उसमें यह सवाल स्वाभाविक है। पर यह कोई लोहियावादी पार्टी का दफ्तर नहीं है। यदि यहां ब्राह्मण भरे पड़े हैं तो यह अकारण नहीं हैं। ब्राह्मण विनयी और विद्या व्यसनी होते हैं। ये बातें पत्रकारिता के पेशे के अनुकूल हैं। यदि आपको पत्रकारिता में रहना हो तो ब्राह्मणों के इन गुणों को अपने आप में विकसित कीजिए। अन्यथा, पहले आप जो करते थे, फिर वही करिए।
मैंने पारस बाबू की बातों की गांठ बांध ली। उसके अनुसार चलने की आज भी कोशिश करता रहता हूं। उसमें मेहनत, लगन और ध्यान केंद्रण अपनी ओर से जोड़ा। यदि 1977 के बाद के शुरूआती वर्षों में पत्रकारिता के बीच के अनेक ब्राह्मणों ने मुझे शंका की दृष्टि से देखा,वह स्वाभाविक ही था।उन्हें लगा कि पता नहीं मैं अपने काम में सफल हो पाऊंगा या नहीं। पर पारस बाबू की शिक्षा मेरे जीवन में रंग दिखा चुकी थी। नतीजतन मेरे पत्रकारीय जीवन में एक समय ऐसा आया जबकि देश के करीब आध दर्जन जिन प्रधान संपादकों ने मुझे स्थानीय संपादक बनाने की दिल से कोशिश की, उनमें पांच ब्राह्मण ही थे।उनमें से एक -दो तो अब भी हमारे बीच हैं। मैं इसलिए नहीं बना क्योंकि मैं खुद को उस जिम्मेदारी के योग्य नहीं पाता। पर, आज भी मेरे पास लिखने-पढ़ने के जितने काम हैं ,वे मेरी क्षमता से अधिक हैं। पैसे के मामले में भी संतुष्टि है। नौकरी में रहते हुए जितने पैसे मुझे मिलते थे, उससे अधिक अब भी मिल जाते हैं। मूल्य वृद्धि को ध्यान में रखने के बावजूद। यह सब पारस बाबू के गुरू मंत्र का कमाल है। मैंने तो अपने जीवन में ‘आरक्षण’ का विकल्प ढूंढ लिया। वैसे यह बता दूं कि मैं अनारक्षित श्रेणी वाले समाज से आता हूं।
वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर की एफबी वॉल से.