वरिष्ठ पत्रकार Raj Kishore नहीं रहे। मैं उनके लिखे का प्रशंसक था। आम बोलचाल की भाषा में सरलता-सहजता से वे जिस तरह गंभीर बात लिख जाते थे, वह उन्हें विशिष्ट बनाता था। हिंदी के अनेक समाचार-पत्रों में उनके स्तंभ थे। दैनिक जागरण, जनसत्ता, अमर उजाला आदि में उनके नियमित लेख छपते थे। मैं बड़े ही …
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नंदकिशोर त्रिखा : पत्रकारिता के आचार्य
इस कठिन समय में जब पत्रकारिता की प्रामणिकता और विश्वसनीयता दोनों पर गहरे सवाल खड़े हो रहे हों, डा. नंदकिशोर त्रिखा जैसे पत्रकार, संपादक, मीडिया प्राध्यापक के निधन का समाचार विह्वल करने वाला है। वे पत्रकारिता के एक ऐसे पुरोधा थे जिसने मूल्यों के आधार पर पत्रकारिता की और बेहद प्रामाणिक लेखन किया। अपने विचारों और विश्वासों पर अडिग रहते हुए संपादकीय गरिमा को पुष्ट किया। उनका समूचा व्यक्तित्व एक अलग प्रकार की आभा और राष्ट्रीय चेतना से भरा-पूरा था।
डॉ. त्रिखा
फक्कड़ और घुमन्तू पत्रकारिता के झंडाबरदार अम्बरीश दादा खुद में एक संस्था थे
घुमंतू की डायरी अब बंद हो गयी क्योंकि इसे लिखने वाला फक्कड़ पत्रकार 19 जनवरी-2018 की रात ना जाने कब दुनिया छोड़ गया। दिल में यह हसरत लिये कि अभी बहुत कुछ लिखना-पढ़ना है। पत्रकारिता के फकीर अम्बरीश शुक्ल का हम सब को यूं छोडकर चले जाना बहुत खल गया। हिन्दी पत्रकारिता के पुरोधा अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी के शहर कानपुर में 35 साल से अधिक (मेरी अल्प जानकारी के मुताबिक) वक्त से फक्कड़ और घुमन्तू पत्रकारिता के झण्डाबरदार अम्बरीश दादा, चलते फिरते खुद में एक संस्था थे।
श्रीनिवास तिवारी रीवा से लेकर भोपाल दिल्ली तक यथार्थ से ज्यादा किवंदंती के जरिए जाने गए
Jayram Shukla : एक आम आदमी का जननायक बन जाना… श्रीनिवास तिवारी रीवा से लेकर भोपाल दिल्ली तक यथार्थ से ज्यादा किवंदंती के जरिए जाने गए। दंतकथाएं और किवंदंतियां ही साधारण आदमी को लोकनायक बनाती हैं। विंध्य के छोटे दायरे में ही सही तिवारीजी लोकनायक बनकर उभरे और रहे। मैंने अबतक दूसरे ऐसे किसी नेता को नहीं जाना जिनको लेकर इतने नारे,गीत-कविताएं गढ़ी गईं हों। सच्चे-झूठे किस्से चौपालों और चौगड्डों पर चले हों। उनकी अंतिमयात्रा में उमड़ा जनसैलाब इन सब बातों की तस्दीक करता है।
यदि आपको पत्रकारिता में रहना हो तो ब्राह्मणों के इन गुणों को अपने आप में विकसित कीजिए…
Surendra Kishore : बहुत दिनों से मैं सोच रहा था कि आपको अपने बारे में एक खास बात बताऊं। यह भी कि वह खास बात किस तरह मेरे जीवन में बड़े काम की साबित हुई। मैंने 1977 में एक बजुर्ग पत्रकार की नेक सलाह मान कर अपने जीवन में एक खास दिशा तय की। उसका मुझे अपार लाभ मिला। मैंने फरवरी 1977 में अंशकालीन संवाददाता के रूप में दैनिक ‘आज’ का पटना आफिस ज्वाइन किया था। हमारे ब्यूरो चीफ थे पारस नाथ सिंह। उससे पहले वे ‘आज’ के कानपुर संस्करण के स्थानीय संपादक थे। वे ‘आज’ के नई दिल्ली ब्यूरो में भी वर्षों तक काम कर चुके थे। पटना जिले के तारण पुर गांव के प्रतिष्ठित राजपूत परिवार में उनका जन्म हुआ था। वे बाबूराव विष्णु पराड़कर की यशस्वी धारा के पत्रकार थे। विद्वता और शालीनता से भरपूर।
छह माह से संपादकीय कामकाज से दूर रहने की लाचारी ने शेखर त्रिपाठी को तोड़ दिया था
Upendranath Pandey : शेखर भाई, तुमने यह अच्छा नहीं किया! आखिर तुमने फेसबुक फेस न करने की मेरी कसम तुड़वा दी। इसी छह मार्च को इसी जगह मुझे भाई संतोष तिवारी के जाने का दर्द बयां करना पड़ा, आज तुम इस जहां से चले गए। जाते समय तुमने यह भी नहीं सोचा कि हम मम्मी को कैसे फेस कर पाएंगे, जिनके हार्ट तुम्हीं थे। उनके हार्ट को कैसे बचाएं, क्या करें। गुड़िया भाभी अभी कल रात यशोदा अस्पताल से मेरे लौटते समय डबडबाई आंखों से मुझसे हाल पूछ रही थीं, जब मैं तुम्हें पुकार कर आईसीयू से लौटा था। अगर तुम्हें जाना था तो कंधा उचका कर और गर्दन हिलाकर मुझे संकेत क्यों किया कि फिक्र न करो।
स्व. शेखर त्रिपाठी
दैनिक जागरण लखनऊ, गोरा सांप और शेखर त्रिपाठी के दिन
Raghvendra Dubey : शेखर! आप बहुत याद आएंगे… बहुत बाद में आत्मीय रिश्ते बने भी तो सेतु स्व. मनोज कुमार श्रीवास्तव थे। वही मनोज , अमर उजाला के विशेष संवाददाता। शेखर, दैनिक जागरण लखनऊ में, संभवतः 1995 तक मेरे समाचार संपादक थे। कार्यरूप में, कागज पर नहीं। पद उन दिनों स्थानीय संपादक विनोद शुक्ल के तात्कालिक तरंगित और भभकते मूड पर निर्भर था। कभी-कभी तो एक ही दिन, सुबह की 11 बजे वाली रिपोर्टर मीटिंग में किसी का पद कुछ और जिमखाना क्लब से शाम को लौट कर वह (विनोद शुक्ल) कुछ कर देते थे।
अकेले शराब पीने को हस्त मैथुन मानते थे रवींद्र कालिया
Dayanand Pandey : संस्मरणों में चांदनी खिलाने वाला रवींद्र कालिया नामक वह चांद… आज रवींद्र कालिया का जन्म-दिन है… ‘ग़ालिब छुटी शराब’ और इस के लेखक और नायक रवींद्र कालिया पर मैं बुरी तरह फ़िदा था एक समय। आज भी हूं, रहूंगा। संस्मरण मैं ने बहुत पढ़े हैं और लिखे हैं। लेकिन रवींद्र कालिया ने जैसे दुर्लभ संस्मरण लिखे हैं उन का कोई शानी नहीं। ग़ालिब छुटी शराब जब मैं ने पढ़ कर ख़त्म की तो रवींद्र कालिया को फ़ोन कर उन्हें सैल्यूट किया और उन से कहा कि आप से बहुत रश्क होता है और कहने को जी करता है कि हाय मैं क्यों न रवींद्र कालिया हुआ। काश कि मैं भी रवींद्र कालिया होता। सुन कर वह बहुत भावुक हो गए।
संस्मरण – देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ जी : अभी मन भरा नहीं…
अवनीश सिंह चौहान
सुविख्यात साहित्यकार श्रद्देय देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ जी (गाज़ियाबाद) से कई बार फोन पर बात होती— कभी अंग्रेजी में, कभी हिन्दी में, कभी ब्रज भाषा में। बात-बात में वह कहते कि ब्रज भाषा में भी मुझसे बतियाया करो, अच्छा लगता है, आगरा से हूँ न इसलिए। उनसे अपनी बोली-बानी में बतियाना बहुत अच्छा लगता। बहुभाषी विद्वान, आचार्य इन्द्र जी भी खूब रस लेते, ठहाके लगाते, आशीष देते, और बड़े प्यार से पूछते— कब आओगे? हर बार बस एक ही जवाब— अवश्य आऊँगा, आपके दर्शन करने। बरसों बीत गए। कभी जाना ही नहीं हो पाया, पर बात होती रही।
राजेश शर्मा के निधन से भड़ास ने एक सच्चा शुभचिंतक खो दिया
राजेश शर्मा चले गए. दिवाली की रात. हार्ट अटैक के कारण. उमर बस 44-45 के आसपास रही होगी. वे इंडिया न्यूज यूपी यूके रीजनल चैनल के सीईओ थे. राजेश भाई से मेरी जान पहचान करीब आठ साल पुरानी है. वो अक्सर फोन पर बातचीत में कहा करते- ”यशवंत भाई, तुम जो काम कर रहे हो न, ये तुम्हारे अलावा कोई दूसरा नहीं कर सकता. मैंने मीडिया इंडस्ट्री को बहुत करीब से देखा है. यहां सब मुखौटे लगाए लोग हैं. भड़ास के जरिए तुमने आजकल की पत्रकारिता को आइना दिखाया है.”
यह संजय, शराब और शेरो शायरी का दौर था…. कह सकते हैं डिप्रेसन की इंतिहा थी…
स्वर्गीय संजय त्रिपाठी होते हैं कुछ लोग जो सिर्फ़ संघर्ष के लिए ही पैदा होते हैं। हमारे छोटे भाई और फ़ोटोग्राफ़र मित्र संजय त्रिपाठी ऐसे ही लोगों में शुमार रहे हैं। आज जब संजय त्रिपाठी के विदा हो जाने की ख़बर सुनी तो दिल धक से रह गया। फ़रवरी, 1985 से हमारा उन का साथ …
बचपन के मित्र बिग्गन महाराज के गुजरने पर यशवंत ने यूं दी श्रद्धांजलि : ‘दोस्त, अगले जनम अमीर घर ही आना!’
Yashwant Singh : गांव आया हुआ हूं. कल शाम होते-होते बिग्गन महाराज के गुजर जाने की खबर आई. जिस मंदिर में पुजारी थे, वहीं उनकी लाश मिली. उनके दो छोटे भाई भागे. मंदिर में अकेले चिरनिद्रा में लेटे बड़े भाई को लाद लाए. तख्त पर लिटाकर चद्दर ओढ़ाने के बाद अगल-बगल अगरबत्ती धूप दशांग जला दिया गया. देर रात तक बिग्गन महाराज के शव के पास मैं भी बैठा रहा. वहां उनके दोनों सगे भाइयों के अलावा तीन-चार गांव वाले ही दिखे.
स्मृति शेष : दिनेश ग्रोवर जितना मजेदार और जिन्दादिल इंसान कम ही देखा है
बड़ी ही मजेदार थी दिनेश ग्रोवर की जिन्दादिली… बहुत साल पहले की बात है। वयोवृद्ध पत्रकार एवं कवि-लेखक इब्बार रब्बी राजेन्द्र यादव की साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ में संपादन सहायक के तौर पर अवैतनिक सेवा दे रहे थे। रब्बी जी नवभारत टाइम्स से रिटायर हो चुके थे और आर्थिक रूप से परेशान चल रहे थे। रब्बी …
पहले प्रदीप संगम, फिर ओम प्रकाश तपस और अब संतोष तिवारी का जाना….
एक दुर्भाग्यपूर्ण संयोग या दुर्योग, जो कहिए… मेरे ज्यादातर प्रिय पत्रकारों का समुदाय धीरे-धीरे सिकुड़ता छोटा होता जा रहा है… दो-तीन साल के भीतर एकदम से कई जनों का साथ छोड़कर इस संसार को अलविदा कह जाना मेरे लिए स्तब्धकारी है… पहले आलोक तोमर, फिर प्रदीप संगम, उसके बाद ओमप्रकाश तपस और अब संतोष तिवारी… असामयिक रणछोड़ कर चले जाना या जीवन के खेल में आउट हो जाना हर बार मुझे भीतर तक मर्माहत कर गया… सारे पत्रकारों से मैं घर तक जुड़ा था और प्यार दुलार का नाता बहुत हद तक स्नेहमय सा बन गया था… इनका वरिष्ठ होने के बाद भी यह मेरा सौभाग्य रहा कि इन सबों के साथ अपना बोलचाल रहन-सहन स्नेह से भरा रसमय था… कहीं पर कोई औपचारिकता या दिखावापन सा नहीं था… यही कारण रहा कि इनके नहीं होने पर मुझे खुद को समझाने और संभलने में काफी समय लगा…
संतोष तिवारी की प्रतिभा को अंकुरित-पल्लवित होते बहुत निकट से देखा था मैंने
Rajendra Rao : दैनिक ट्रिब्यून के संपादक और मेरे अजीज संतोष तिवारी का असमय प्रस्थान स्तब्ध और उदास कर गया। सत्तर के दशक में मैंने उनकी प्रतिभा को अंकुरित और पल्लवित होते बहुत निकट से देखा था। तब वे इंटर में पढ़ते थे। लेखन का जुनून सवार था और अपनी प्रारंभिक रचनाएं दिखाने लाल कालोनी (किदवई नगर) से मेरे घर (अर्मापुर) नियमित रूप से आते थे। उनकी पहली ही कहानी धर्मयुग में छपी और फिर उन्होंने मुड़ कर नहीं देखा।