DNA या यूं कहें Deoxyribonucleic acid, the molecule that carries genetic information about all living. अर्थात डीएनए वह अणु है जो सभी जीवधारियों की आनुवंशिक सूचनाओं का संवहन करता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नीतीश कुमार के बारे में डीएनए खराब होने की टिप्पणी करके एक नई बहस को हवा दे दी है। लेकिन अब तक प्रधानमंत्री ने जिन हरकतों को अंजाम दिया है, उससे उनका भी डीएनए सवालों के घेरे में आ गया है। वह अपने को चाय वाला बता कर गरीबों से निकटता का प्रदर्शन भले ही करें, लेकिन उनके डीएनए में गरीब विरोधी और कारपोरेट समर्थक व्यक्ति की पहचान उभर कर सामने आई है। यह अलग बात है कि उनके मनसूबों पर लगातार पानी फिर रहा है।
प्रधानमंत्री को भूमि अधिग्रहण विधेयक पर जिस तरह से मुंह की खानी पड़ी है और उन्हें यू टर्न लेना पड़ा है, उससे यह बात साफ हो गई है कि प्रधानमंत्री जी के इरादे आम जनता के प्रति नेक नहीं हैं। राज्य सभा में भी उनका बहुमत होता तो वह अंग्रेजों की तरह देश की आम जनता को गुलाम बना चुके होते। उनकी गरीब विरोधी सोच इस बात से भी सामने आती है कि मजीठिया जैसे संवेदनशील मुद्दे पर उन्होंने अभी तक चुप्पी नहीं तोड़ी है। हर बात को वोट बैंक के नजरिये से देखना नरेंद्र मोदी जैसे युग पुरुष को शोभा नहीं देता। शायद यही वजह है कि उनका आभामंडल कलुषित होने लगा है। यही हाल रहा तो कल वह यह भी कह देंगे कि मजीठिया वेतनमान मांगने वाले पत्रकारों का भी डीएनए खराब है।
यह आश्चर्यजनक है कि मीडिया कर्मचारियों का खून पीने वाले मीडिया मालिकों के डीएनए में प्रधानमंत्री जी को कभी कोई खोट नजर नहीं आती। उन्हें तो आम जनता के डीएनए में खोट नजर आ रही है। जिस जनता ने उनके चाय वाले के डीएनए को बदल कर प्रधानमंत्री का डीएनए बना दिया और उसी जनता के डीएनए में प्रधानमंत्री जी को खराबी नजर आ रही है।
दरअसल, प्रधानमंत्री जी के डीएनए में जो परिवर्तन नजर आ रहा है, उसके बहुत ही गहरे कारण हैं। कुछ राजनीतिक दल प्रधानमंत्री जी पर लगातार यह आरोप लगा रहे हैं कि चुनाव से पहले उन्होंने अडानी और अंबानी से कर्ज लिया था, जिसे चुकाने के लिए वह कारपोरेट समर्थक नीतियों का समर्थन कर रहे हैं। इसी पर एक देहाती कहावत प्रचलित है- माई मीठ नहीं खाई मीठ। अर्थात खिलाने वाला मां से भी अधिक प्रिय हो जाता है। यही दुर्घटना मोदी जी के साथ घटित हुई है। यह सही है कि वह गरीब परिवार से रहे हैं और चाय बेचकर अपना जीवन यापन किया, लेकिन प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा में वह कारपोरेटों से पैसा ले लिए, जिसके एहसान तले वह आज भी दबे हैं।
उसी एहसान का परिणाम है कि मोदी जी कारपोरेट की भाषा बोलने लगे हैं। मोदी जी को यह समझना चाहिए कि वह देश के प्रधानमंत्री हैं, कारपोरेट के प्रबंधक नहीं। यदि वह कारपोरेट का प्रबंधक बनने की हरकत करते रहेंगे तो कभी भी अच्छे प्रधानमंत्री नहीं बन पाएंगे, प्रधान सेवक तो कभी नहीं। यदि प्रधान सेवक बनना है तो उन्हें अल्पसंख्यक वर्ग की समस्याओं के प्रति संवेदना दिखानी होगी। उसके लिए सबसे पहले उन्हें मजीठिया वेतनमान मुद्दे पर अपना और अपनी पार्टी का रुख स्पष्ट करना होगा।
भूमि अधिग्रहण विधेयक के संदर्भ में उन्हें समग्र भूमि उपयोग की नीति लागू करनी होगी। उन्हें किसानों की भूमि छीनने का उपक्रम नहीं करना चाहिए। यह ठीक है कि देश के विकास के लिए भूमि की जरूरत पड़ती है, लेकिन भूमि छीन कर नहीं सहमति से ली जानी चाहिए। और यह सहमति तभी बनेगी, जब किसी भी विकास वेंचर के लिए जिस किसान की भूमि ली जाए, उसे वेंचर में शेयरहोल्डर बनाया जाए, न कि औने पौने दाम का मुआवजा देकर किसान को भूमिहीन बना दिया जाए। शेयरहोल्डर बनाने से किसान की आय का स्रोत समाप्त नहीं होगा और देश के विकास पर बड़ी सहमति बन सकेगी।
Fourth Pillar एफबी वाल से
Comments on “‘मजीठिया’ पर पीएम की चुप्पी कर्मचारियों का खून पीने वाले मीडिया मालिकों के पक्ष में”
Modi ji,
Maan ki baat karte hai, to hamari bhi sune.
Media kramchariyo ke sath bhaskar or rajasthan paprika kya ker rahi hai. Isper dhyaan dijiye otherwise ane wale samay main aap per bhari padne wala hai.