Connect with us

Hi, what are you looking for?

सियासत

कल तक मैं भी ‘गोदी मीडिया’ के एक्ज़िट पाल को स्वीकार करने को तैयार नहीं था

‘कोशिश करने वालों की हार नहीं होती…’ स्व. हरिवंशराय बच्चन जी की एक कविता का जिक्र करते हुए आज फिर से अपनी बात रखूगां। लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।

हमारा लक्ष्य है जनता के हित में कार्य हो। हमारी पूंजी महज पांच रुपये की कलम है। ना तो हम मोदी जी के जैसे खान-पान कर सकते हैं ना ही कपड़े पहनने की कल्पना भी कर सकते हैं, ना ही राहुल गांधी की तरह हमें विरासत में राजगद्दी मिल सकती है। हम जनता के बीच से निकलते हैं और उनके बीच ही समा जाना पसंद करते हैं।

Advertisement. Scroll to continue reading.

लोकसभा के चुनाव परिणाम एक तरफ विपक्षी पार्टियों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया तो वहीं मोदी समर्थकों खेमे में ख़ुशियाँ बिखेर दी। इस बात को स्वीकार करने में मुझे जरा भी संकोच नहीं है कि कल तक मैं भी “गोदी मीडिया” के एक्ज़िट पाल को स्वीकार करने को तैयार नहीं था। देश के प्रायः सभी राजनीतिक पंडित कहे जाने वाले पत्रकारों के लिए उत्तरप्रदेश में महागठबंधन की असफलता, बिहार के सुसाशन बाबू की सफलता, बंगाल में भाजपा को ऐतिहासिक जीत और आंध्रप्रदेश में चंद्रबाबू नायडू की हार, इस लोकसभा चुनाव में चौंका देने वाले माने जायेंगे।

लोकतंत्र में इस बात को जो नहीं स्वीकार करता कि उसकी हार हो चुकी है उसे या तो लोकतंत्र में आस्था नहीं है या फिर वह व्यक्ति लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुकूल नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी जी ने अपने ताजा संदेश में कहा कि ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ वहीं विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने कहा कि ‘यह दो अलग-अलग विचारधारा की लड़ाई है। हमें मानना पड़ेगा कि मोदी जी जीते हैं। इसलिए मैं उन्हें बधाई देता हूँ।’ दो माह के तनावपूर्ण चुनावी यात्रा, कड़वाहट भरे बयानों के पश्चात नेताओं के सकारात्मक बयान ही हमारी जीत है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

आज इस बात की चर्चा करना कि चुनाव में क्या हुआ या क्या कहा गया या क्या लिखा गया इससे मीडिया को भी ऊपर उठना होगा। स्वाभाविक तौर पर हम बुद्धिजीवी वर्ग में खुद को मानते हैं। हमारे बीच भी विचारों की लड़ाई चलनी ही चाहिये। यदि पत्रकारों के बीच भी विचारों की शून्यता आ जायेगी तो फिर बचेगा ही क्या?

हमें अपने कार्य को पुनः सजगता के साथ करने की जरूरत है बिना किसी राजनैतिक विचारधारा से प्रभावित होकर नई ताजगी, नई ऊर्जा, नए जोश के साथ अपने पिच पर पुनः डट जाना चाहिये। समीक्षा के लिए हमारे पास फिर से नये पांच साल हैं, वह भी पिछले पांच सालों के आंकड़ों के साथ । हमारा लक्ष्य है जनता के हित में कार्य हो। हमारी पूंजी महज पांच रुपये की कलम है । ना तो हम मोदी जी के जैसे खान-पान कर सकते हैं ना ही कपड़े पहनने की कल्पना भी कर सकते हैं, ना ही राहुल गांधी की तरह हमें विरासत में राजगद्दी मिल सकती है। हम जनता के बीच से निकलते हैं और उनके बीच ही समा जाना पसंद करते हैं।

Advertisement. Scroll to continue reading.

पत्रकार का जीवन पुण्य प्रसून बाजपेयी से बेहतर कोई नहीं समझ सकता। उनको लगातार परेशान किया गया। एक नहीं, दो, दो नहीं तीन-तीन चैनलों से लगातार उनको हटा दिया गया। उनकी बेचैनी का अंदाज सिर्फ लगा लें कि यदि आने वाले दिनों में यही हाल हमारे साथ हो तो क्या करेंगे हम? हम गुलाम तो हम हो ही चुके हैं अब क्या अपने विचारों को भी गुलाम बना दें?

किसी राजसत्ता के अधीन गुलाम होना और उनकी गुलामी करना यह एक बात है पर विचारों को भी गुलाम बना देना तो जनवर बन के जीने के बराबर है। मैं यहां सिर्फ इस तर्क को समझाने के लिये यहां ‘‘मंगल पाण्डेय’’ का उदाहरण दे रहा हूँ। मंगल पाण्डेय ब्रितानी हकुमत के गुलाम सिपाही थे, परन्तु उनके विचार स्वतंत्र थे, तभी उन्होंने अपनी आवाज बुलंद की। यदि उनके विचार भी गुलामी की जंजीरों में जकड़े होते तो? आपके विवेक पर छोड़ता हूँ। कुछ देर सोचियेगा।

Advertisement. Scroll to continue reading.

उनके (पुण्य प्रसून बाजपेयी) यूट्यूब पर जो वीडियो सुनने को हमें लगातार मिल रहे थे उससे उनके चेहरे के भाव को हम यदि नहीं पढ़ पा रहे थे तो हमें पत्रकार नहीं होना चाहिये। संभवतः ऐसे कई पत्रकार होंगे, मेरी अज्ञानता के कारण उनके नामों को इस लेख में नहीं जोड़ पा रहा हूँ पर उनके दर्द को, हम महसूस नहीं करेंगें तो, हमारे दर्द को कौन करेगा? सत्ता में कौन आयेगा या जाएगा यह हमारे विचारों को यदि प्रभावित करता हो तो हमें इसी वक्त पत्रकारिता के पेशे को त्याग कर राजनीति से जुड़ जाना चाहिये। कई पत्रकार ऐसा कर चुके हैं। करने में कोई हर्ज भी नहीं हैं वे ईमानदार हैं कम से कम जनता को धोखा तरे नहीं दे रहे।

ताज़ा उदाहरण आशुतोष का ही हमारे सामने है उन्होंने पत्रकारिता को छोड़कर राजनीति स्वीकार कर ली, पर उनके विचारों में वह तनाव देखा जा रहा था जो वे राजनीति ज्वाईन करने के बाद उनके अंदर देखा गया था। आज उन्होंने राजनीति को छोड़ पुनः पत्रकारिता को स्वीकार कर लिया। उनकी साख कोई आंच नहीं आ सकती। उन्होंने जो कुछ भी किया ईमानदारी से किया।

Advertisement. Scroll to continue reading.

हम किसी विचारधारा के ना तो कभी समर्थक रहें है ना ही किसी विचारधारा के विरोधी। हम एक स्वाद टेस्टर के रूप में अपना काम पहले की तरह आज भी करते रहेगें। चाय का स्वाद यदि मीठा होगा तो हम नमकीन कैसे बोल दें? हम किसी के समर्थक या भक्त तो नहीं बन सकतें। पत्रकारिता का एक मात्र धर्म है सत्ताधारी दल के कार्यों की लगातार समीक्षा करते रहना। विरोध पक्ष की बातों को बिना भेदभाव के सामने रखना। अपने विचारों का तड़का ना लगाते हुए रोजाना सूर्य की तरह उगना, चमकना, धहकना, फिर शाम होते-होते ढल जाना।

वहीं संपादक की अलग भूमिका होती है, पत्रकारों की अलग। संपादक का कार्य है विचारों को प्रतिनिधित्व करना, भले वह सत्ता पक्ष को हो या प्रतिपक्ष का, जनता का हो या समाचार पत्र का। पत्रकारों को अपने विचारों में किसी का प्रतिनिधित्व नहीं करना चाहिये यदि वह ऐसा करते है तो उसके विचार हमेशा विवाद ही पैदा करेगें। कभी मेरी बात पर आप गौर करियेगा। जयहिन्द।

Advertisement. Scroll to continue reading.

लेखक शंभु चौधरी स्वतंत्र पत्रकार और विधिज्ञाता हैं।

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement