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नरेंद्र मोदी के राज में भी हिंदी की वही दशा जो सोनिया-मनमोहन राज में थी : डा. वेदप्रताप वैदिक

नरेंद्र मोदी के राज में हिंदी की वही दशा क्यों हैं, जो सोनिया-मनमोहन राज में थी? सोनिया इटली में पैदा हुईं थीं और मनमोहनजी पाकिस्तान में! मोदी उस गुजरात में पैदा हुए हैं, जहां महर्षि दयानंद और महात्मा गांधी पैदा हुए थे। इन दोनों ने गुजराती होते हुए भी हिंदी के लिए जो किया, किसी ने नहीं किया। और फिर मोदी तो संघ के स्वयंसेवक भी रहे याने दूध और वह भी मिश्री घुला हुआ। फिर भी हिंदी की इतनी दुर्दशा क्यों है? यह दूध खट्टा क्यों लग रहा है?

<p>नरेंद्र मोदी के राज में हिंदी की वही दशा क्यों हैं, जो सोनिया-मनमोहन राज में थी? सोनिया इटली में पैदा हुईं थीं और मनमोहनजी पाकिस्तान में! मोदी उस गुजरात में पैदा हुए हैं, जहां महर्षि दयानंद और महात्मा गांधी पैदा हुए थे। इन दोनों ने गुजराती होते हुए भी हिंदी के लिए जो किया, किसी ने नहीं किया। और फिर मोदी तो संघ के स्वयंसेवक भी रहे याने दूध और वह भी मिश्री घुला हुआ। फिर भी हिंदी की इतनी दुर्दशा क्यों है? यह दूध खट्टा क्यों लग रहा है?</p>

नरेंद्र मोदी के राज में हिंदी की वही दशा क्यों हैं, जो सोनिया-मनमोहन राज में थी? सोनिया इटली में पैदा हुईं थीं और मनमोहनजी पाकिस्तान में! मोदी उस गुजरात में पैदा हुए हैं, जहां महर्षि दयानंद और महात्मा गांधी पैदा हुए थे। इन दोनों ने गुजराती होते हुए भी हिंदी के लिए जो किया, किसी ने नहीं किया। और फिर मोदी तो संघ के स्वयंसेवक भी रहे याने दूध और वह भी मिश्री घुला हुआ। फिर भी हिंदी की इतनी दुर्दशा क्यों है? यह दूध खट्टा क्यों लग रहा है?

मुझे पहले ही से डर था। यदि मोदी प्रधानमंत्री बन गए तो अन्य प्रधानमंत्रियों की तरह वे भी नौकरशाहों की नौकरी करने लगेंगे। इसीलिए मैंने कुछ सभाओं में भाषण देते हुए, जिनमें मोदी भी मौजूद थे, मैंने साफ-साफ कहा कि मोदी क्या-क्या व्रत लें। उनमें तीन बातें मुख्य थीं। एक तो गरीबी-रेखा 32 रु. नहीं, 100 रु. हो। दूसरी, 16 पड़ौसी राष्ट्रों का महासंघ बनाएं। अखंड भारत नहीं, आर्यावर्त्त! बृहद् भारत। और तीसरी, हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलाएं। मोदी ने बड़ी जोर से सहमति भी व्यक्त की लेकिन 20 महीने बीत गए और हमारे मोदीजी उस दिशा में 20 कदम तो क्या, दो कदम भी आगे नहीं बढ़े। ये व्रत भी ‘जुमले’ बन गए, काले धन की वापसी की तरह! हर भारतीय को 15-15 लाख रु. तो क्या, 15 रु. भी नहीं मिले।

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आज अंग्रेजी के अखबार ‘इकनामिक टाइम्स’ ने हिंदी में शीर्षक खबर छापकर बताया है कि सरकार के दफ्तरों में लगभग 100 प्रतिशत अधिकारी हिंदी जानते हैं लेकिन कई मंत्रालयों में उसका प्रयोग 10-12 प्रतिशत भी नहीं होता है। जहां थोड़ा ज्यादा होता है, वह निचली श्रेणी के कर्मचारी करते हैं। ऊंचे स्तरों पर कहीं-कहीं तो हिंदी बिल्कुल शून्य है। याने इस देश में हुकूमत किसकी चल रही है? बाबुओं की, नौकरशाहों की, अंग्रेजों के गुलामों की। प्रधानमंत्रीजी की नहीं। वे तो बस टीवी के पर्दों पर और अखबारों के पन्नों पर हैं। प्रधानमंत्री बाहर-बाहर हैं और नौकरशाह अंदर-अंदर! हिंदी है, नौकरानी और अंग्रेजी है, महारानी! इस गोरी महारानी ने मोदी को भी मोहित कर लिया है।

आप देखते नहीं क्या, कि मोदी फिल्मी सितारों की तरह ‘टेलीप्राम्पटर’ पर देख-देखकर अपने अंग्रेजी भाषण पढ़ते रहते हैं। वे भाषण देते नहीं, पढ़ते हैं, क्योंकि वे अंग्रेजी में होते हैं। इन भाषणों को लिखनेवाला नौकरशाह ऊपर और हमारे मोदीजी नीचे! ऐसे मोदीजी हिंदी को संयुक्तराष्ट्र की भाषा क्यों बनाएंगे? देश में ही हिंदी की इतनी दुर्दशा है। वे उसे राष्ट्रभाषा ही नहीं बना पा रहे हैं तो उसे वे विश्वभाषा कैसे बनाएंगे? शायद बना दें, क्योंकि उन्हें देश से ज्यादा विदेश अच्छा लगता है। इसीलिए उनके लगभग सारे अभियानों के नाम विदेशी भाषा में हैं। भाजपा और संघ के लाखों कार्यकर्ताओं की बोलती बंद है। बेचारे परेशान हैं। हिंदी की जो भी दशा हो, वे अपनी दुर्दशा क्यों करवाएं?

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लेखक डा. वेदप्रताप वैदिक जाने माने वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं.

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