हुजूर, इस कदर भी न इतरा के चलिए!
सन् 2004 में इस कदर इंडिया शाइन करने लगा था कि जनता ने केंद्र की अटलबिहारी वाजपेयी सरकार से छुट्टी ले ली थी। दरअसल यह भूखी-नंगी औऱ समस्याओँ से ग्रस्त जनता के जले पर नमक छिड़कने जैसा था। अब इंडिया शाइनिंग की जगह सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को लेकर नए-नए जुमले गढ़े जा रहे हैं। सत्ता के शीर्ष पर जिसके मुंह से सुनो वही जीडीपी ग्रोथ पर इतराता मिल जाएगा। दिल्ली के सत्ता के गलियारो में जीडीपी ग्रोथ को लेकर हर कोई 56 इंच का सीना किए घूम रहा है। उधर जमीनी हकीकत अपनी जगह है। झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले में भूख से तड़पते एक आदिवासी ने महज 1000 रुपये में अपने बेटे को बेच दिया। यह महज एक उदाहरण है।
अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में एक और फैशन था। वह था सार्वजनिक क्षेत्रे के उपक्रमों को बेचने का। अनेक सौदे कौड़ियों के भाव हुए। मुंबई हवाई अड्डे के पास स्थित सेंटोर होटल को 115 करोड़ रुपए में बत्रा हॉस्पिटैलिटी से बेचा गया था। इस कंपनी ने चार महीने के भीतर ही इसे सहारा समूह को 147 करोड़ रुपए में बेच कर मोटी कमाई कर ली थी। उस दौरान घाटे वाले कई कल-कारखाने बंद किए गए थे। भाजपा को उसका भी खामियाजा भुगतना पड़ा था।
अब इसे महज संयोग कहिए या कुछ और, फिर से ऐसी ही तैयारी है। नीति आयोग ने घाटे में चल रहे 74 सार्वजनिक उपक्रमों में से 34 की पहचान की है, जिनकी हिस्सेदारी बेची जा सकती है। इनमें से भी 15 को आयोग ने बंद करने की सिफारिश की है, क्योंकि, जैसा कि कहा गया है, इनकी हालत सुधारना संभव नहीं है। अंदरखाने की खबर यह है कि बुनियादी ढ़ांचों के विकास के लिए सरकार के पास धन का टोटा है। इसलिए निजीकरण और विनिवेश से लगभग 60 हजार करोड़ रूपए जुटाने का लक्ष्य है।
खैर, मेरा कहने का तात्पर्य यह कि जाने-अनजाने मोदी सरकार भी कई मामलों में अटलबिहारी वाजपेयी वाली सरकार की राह पर ही जा रही है, जो आत्मघाती साबित हो चुकी है। पहले भी नौकरशाही ने यह राह चुनी थी और अब भी जैसी खबरें हैं, नौकरशाही ने ही यह राह चुनी है। यदि समय रहते जनता के नुमाइंदों का त्रिनेत्र नहीं खुला तो यह आत्म-मुग्धता कौन-से मुकाम तक पहुंचाएगी, इसे आसानी से समझा जा सकता है।
लेखक Kishore Kumar से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.