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सियासत

मोदी सरकार की मौजूदा पहल में खेती में क्रांतिकारी बदलाव लाने की क्षमता है!

शेष नारायण सिंह-

नई कृषि नीति के बारे में मेरे विचार

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कबिरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,
ना काहू से दोस्ती, न काहू से बैर.

5 फरवरी को पहली बार टीवी डिबेट में किसान आंदोलन से जुड़े मुद्दों पर चर्चा के लिए दिल्ली के गाजीपुर बार्डर के यू पी गेट पर गया. डिबेट वहीं किसानों के बीच होनी थी.
मुझे खुशी है कि मैंने वह सब बातें खुलकर कहीं जिनको मैं सच मानता हूं. स्टूडियो में तो कई बार बहस में शामिल हो चुका हूँ लेकिन ज़मीनी बहस का यह पहला मौक़ा था.

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मैंने कहा कि सरकारी नीतियों के स्तर पर नीतिगत हस्तक्षेप की ज़रुरत बहुत दिनों से ओवरड्यू है . यह काम सरकार को कई साल कर लेना था. तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने अपने 1992 के आद्योगीकरण और उदारीकरण के कार्यक्रम में इसका संकेत दिया था .लेकिन गठबंधनों की सरकारों के चलते कोई नहीं सरकार यह काम नहीं कर सकी.

आज़ादी के बाद देश में करीब बीस साल तक खेती में कोई भी सुधार नहीं किया गया . १९६२ में चीन के हमले के समय पहले से ही कमज़ोर अर्थव्यवस्था तबाही के कगार पर खडी थी तो पाकिस्तान का भी हमला हो गया . खाने के अनाज की भारी कमी थी . उस समय के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने अपने कृषिमंत्री सी सुब्रमण्यम से कुछ करने को कहा . सी सुब्रमण्यम ने डॉ एस स्वामीनाथन के सहयोग से मेक्सिको में बौने किस्म के धान और गेहूं के ज़रिये खेती में क्रांतिकारी बदलाव ला चुके डॉ नार्मन बोरलाग ( Dr Norman Borlaug ) को भारत आमंत्रित किया . उन्होंने पंजाब की खेती को देखा और कहा कि इन खेतों में गेहूं की उपज को दुगुना किया जा सकता है . लेकिन कोई भी किसान उनके प्रस्तावों को लागू करने को तैयार नहीं था . कृषि मंत्री सी सुब्रमण्यम ने गारंटी दी कि आप इस योजना को लागू कीजिये ,केंद्र सरकार सब्सिडी के ज़रिये किसी तरह का घाटा नहीं होने देगी. शुरू में शायद डेढ़ सौ फार्मों पर पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना के सहयोग से यह स्कीम लागू की गयी. और ग्रीन रिवोल्यूशन की शुरुआत हो गयी. पैदावार दुगुने से भी ज़्यादा हुई और पूरे पंजाब और हरियाणा के किसान इस स्कीम में शामिल हो गए . ग्रीन रिवोल्यूशन के केवल तीन तत्व थे . उन्नत बीज, सिंचाई की गारंटी और रासायनिक खाद का सही उपयोग . उसके बाद तो पूरे देश से किसान लुधियाना की तीर्थयात्रा पर यह देखने जाने लगे कि पंजाब में क्या हो रहा है कि पैदावार दुगुनी हो रही है . बाकी देश में भी किसानों ने वही किया .उसके बाद से खेती की दिशा में सरकार ने कोई पहल नहीं की है .आज पचास साल से भी ज़्यादा वर्षों के बाद खेती की दिशा में ज़रूरी पहल की गयी है .मोदी सरकार की मौजूदा पहल में भी खेती में क्रांतिकारी बदलाव लाने की क्षमता है .

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1991 में जब डॉ मनमोहन सिंह ने जवाहरलाल नेहरू के सोशलिस्टिक पैटर्न के आर्थिक विकास को अलविदा कहकर देश की अर्थव्यवस्था को मुक़म्मल पूंजीवादी विकास के ढर्रे पर डाला था तो उन्होंने कृषि में भी बड़े सुधारों की बात की थी . लेकिन कर नहीं पाए क्योंकि गठबंधन की सरकारों की अपनी मजबूरियां होती हैं . अब नरेंद्र मोदी ने खेती में जिन ढांचागत सुधारों की बात की है डॉ मनमोहन सिंह वही सुधार लाना चाहते थे लेकिन राजनीतिक दबाव के कारण नहीं ला सके. मोदी सरकार ने उन सुधारों का कांग्रेस भी विरोध कर रही है , किसानों का एक वर्ग भी विरोध कर रहा है . वह राजनीति है लेकिन कृषि सुधारों के अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र को समझना ज़रूरी है . सरकार ने जो कृषि नीति घोषित की है उसको आर्थिक विकास की भाषा में agrarian transition development यानी कृषि संक्रमण विकास का माडल कहते हैं . यूरोप और अमरीका में यह बहुत पहले लागू हो चुका है . आज देश का करीब 45 प्रतिशत वर्कफ़ोर्स खेती में लगा हुआ है . जब देश आज़ाद हुआ तो जीडीपी में खेती का एक बड़ा योगदान हुआ करता था . लेकिन आज जीडीपी में खेती का योगदान केवल 15 प्रतिशत ही रहता है . यह आर्थिक विकास का ऐसा माडल है जो एक तरह से अर्थव्यवस्था और ग्रामीण जीवनशैली पर बोझ बन चुका है .

आर्थिक रूप से टिकाऊ ( sustainable ) खेती के लिए ज़रूरी है कि खेती में लगे वर्कफोर्स का कम से कम बीस प्रतिशत शहरों की तरफ भेजा जाय जहां उनको समुचित रोज़गार दिया जा सके. आदर्श स्थिति यह होगी कि उनको औद्योगिक क्षेत्र में लगाया जाय. आज सर्विस सेक्टर भी एक बड़ा सेक्टर है .गावों से खाली हुए उस बीस प्रतिशत वर्कफोर्स को सर्विस सेक्टर में काम दिया जा सकता है . खेती में जो 25 प्रतिशत लोग रह जायेंगें उनके लिए भी कम होल्डिंग वाली खेती के सहारे कुछ ख़ास नहीं हासिल किया जा सकता . खेती पर इतनी बड़ी आबादी को निर्भर नहीं छोड़ा जा सकता ,अगर ऐसा होना जारी रहा तो गरीबी बढ़ती रहेगी .इसलिए खेती में संविदा खेती ( contract farming ) की अवधारणा को विकसित करना पडेगा . संविदा की खेती वास्तव में कृषि के औद्योगीकरण का माडल है .खेती के औद्योगीकरण के बाद गावों में भी शहरीकरण की प्रक्रिया तेज़ होगी और वहां भी औद्योगिक और सर्विस सेक्टर का विकास होगा . इस नवनिर्मित औद्योगिक और सर्विस सेक्टर में बड़ी संख्या में खेती से खाली हुए लोगों को लगाया जा सकता है .
मैंने उस डिबेट में यह भी कहा कि सरकार जो मौजूदा कानून लाई है उसमें खामियां भी हैं .उनको ठीक किया जाना चाहिए नहीं तो वे नतीजे नहीं निकलेगें जो निकलना चाहिए . ज़खीरेबाज़ों और कान्ट्रेक्ट फार्मिंग के ज़रिये ज़मीन हथियाने वालों पर लगाम लगाने का प्रावधान बिल में नहीं है ,वह भी किया जाना चाहिए . कानून में इस बात की गारंटी होनी चाहिए कि विवादों का निपटारा दीवानी अदालतों में होगा ,एस डी एम् को सारी ताक़त नहीं दी जानी चाहिए . सरकार को और किसान नेताओं को जिद के दायरे से बाहर आना पडेगा . सरकार का कानून अभी प्रो बिजनेस है उसको प्रो मार्केट करने की ज़रूरत है . अपनी जिद छोड़कर सरकार को यह सुधार करके बात करनी चाहिए और किसानों को भी क़ानून वापस लेने की जिद छोडनी चाहिए क्योंकि अगर यह क़ानून रद्द हो गया तो कृषि को आधुनिक बनाने की कोशिश को बड़ा झटका लगेगा .
मुझे व्यक्तिगत रूप से खुशी इस बात की है कि किसानों के बीच में खड़े होकर उनकी कमियाँ बताने की हिम्मत मुझे ऊपर वाले ने दी. जहाँ तक सरकार की कमियाँ बताने के बात है वह तो मैं कई बार स्टूडियों में बैठकर कर चुका हूँ. . अब न्यूज़ 18 इंडिया के अलावा भी अब सभी चैनलों में जा सकता हूँ . जो लोग भी मुझे बुलाएं उनकी सूचनार्थ निवेदन है मेरे यही दृष्टिकोण हैं और कोई चैनल इससे इतर बात कहलवाना चाहता है तो वहां मैं नहीं आ पाऊंगा .

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( लिख दिया ताकि सनद रहे .इस लेख में कुछ पैराग्राफ मेरे एक पुराने लेख से कापी पेस्ट किये गए हैं )

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