गले में बाँधे रहते थे, अब मुँह पर पट्टा बाँधे हैं,
पालतू हैं हम मोदी के, इस बात का गंडा बाँधे हैं।
सच की जुर्रत करने वाले एनडीटीवी को खत्म करो,
झूठ के भोपू वाले हैं, हम झूठ का दामन थामे हैं।
ये पंक्तियाँ उन चंद तथाकथित बिकाऊ पत्रकारों की भावनाओं की कल्पना है जिन्हें कोई अंध भक्त कहता है, कोई सरकार के झूठ का भोंपू तो कोई मोदी का पालतू। आजाद पत्रकारिता और निष्पक्ष कलम जब सरकार की गलत नीतियों का बखान करने लगता है तो पालतू गला फाड़-फाड़ कर भोंकते हैं। सरकार की मुखालिफत पर ये अक्सर काट भी लेते हैं। लेकिन इनके काटने से पीड़ितों को ना इन्जेक्शन लगवाना पड़ता है और न ही जान का खतरा महसूस होता है। मेडिकल साइंस कहती है कि काटने वाला जब तक जीवित है तब तक पीड़ित खतरे से बाहर है। अभी तीन साल तक इन्हे चंद टुकड़ों की ताकत जिन्दा रखेगी और सत्ता की ताकत इन्हेँ झूठ का साथ देने की आब-ए-हयात देती रहेगी। झूठ की हिफाजत के लिये निष्पक्ष पत्रकारिता पर जो भौकते रहते है उनका मोदी सरकार की दमनकारी नीतियों पर खामोश रहना स्वाभाविक भी है।
9 नवंबर को एनडीटीवी पर एक दिन के प्रतिबंध के खिलाफ बुलंद आवाजो मे खामोशी इख्तियार करने वाले पत्रकारों/पत्रकार संगठनों को तानाशाही मोदी सरकार का पालतू करार दिया जा रहा है। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की नई दमनकारी विज्ञापन नीति के बाद एनडीटीवी पर एक दिन के प्रतिबंध को केन्द्र सरकार के आगे नतमस्तक हो जाने की अप्रत्यक्ष चेतावनी माना जा रहा है। हिन्दुस्तानी मीडिया की आजादी को दौलत की जंजीरो मे बाँधकर कैद करने वाली नीतियों के खिलाफ पत्रकारों का गुस्सा उन पत्रकारों के खिलाफ ज्यादा मुखर हो गया है जो मोदी भक्ति मे मीडिया के खिलाफ केन्द्र सरकार के दमनकारी फैसलो पर खामोश है।
देशभर के पत्रकारों और मीडिया संगठनो मे एनडीटीवी पर एक दिन के लिये बैन को लेकर गुस्सा बढ़ता जा रहा है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सबसे बड़े संगठन- एडिटर्स गिल्ड आफ इन्डिया, प्रेस क्लब आफ इन्डिया के अतिरिक्त देशभर के दर्जनों पत्रकार संगठन एनडीटीवी के समर्थन मे आकर केन्द्र सरकार के खिलाफ आन्दोलन की रूपरेखा तैयार कर रहे है। वहीं इस मामले पर यूपी सहित देश के चंद पत्रकार संगठनों की खामोशी इन्हें कटघरे में खड़ा कर रही है। इन संगठनो ने मीडिया को गुलामी की जंजीरो मे बाँधने वाली मोदी सरकार की दमनकारी नीतियों के खिलाफ अब तक एक बयान तक भी नही दिया। यही नहीं, पत्रकारों और पत्रकारिता की आजादी के हक की बातेँ करने वाले इस तरह के कई मोदीपरस्त पत्रकार संगठन एनडीटीवी पर बैन के तानाशाही कदम पर खामोशी इख्तियार किये हैं। इस खामोशी से ये शक और आरोप और भी उभरने लगे ही कि बड़े मीडिया समूहों को ही नही संगठनों की दुकान चलाने वाले कथित पत्रकारों को भी मोदी समर्थन की सुपारी के टुकड़े दिये जाते हैं।
लेखक नवेद शिकोह लखनऊ के पत्रकार हैं. उनसे संपर्क 08090180256 या [email protected] के जरिए किया जा सकता है.