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फ्री स्पीच की वकालत करने वाले मीडिया संस्थान और उसके बहुतेरे नामचीन पत्रकार अंदर से बेहद कमजोर होते हैं!

Samarendra Singh

NDTV STORY PART 4 पत्रकार डरे हुए हैं और इसके लिए सरकार से अधिक वो खुद और मीडिया संस्थान जिम्मेदार हैं… आजाद सोच वाले पत्रकार सवाल करते हैं. खबरों के साथ जब खेल होता है, खबरें जब मैनिपुलेट की जाती हैं तो वो पकड़ लेते हैं और विरोध करते हैं. ऐसे पत्रकार एक पेशेवर मीडिया संस्थान के लिए तो ऐसेट होते हैं, लेकिन ऐसे मीडिया संस्थान के लिए बोझ बन जाते हैं जो एजेंडा चलाने के लिए तैयार किया गया है. जिसका मकसद एक खास सियासी धड़े के साथ मिल कर सत्ता में हिस्सेदारी हासिल करना हो. इसलिए डॉ रॉय ने स्वतंत्र चेतना वाले सभी पत्रकारों को बाहर कर दिया. वहां वही बच गए हैं जिनकी वैचारिक सहमति है या जिन्होंने सरेंडर कर दिया है.

बीते कुछ दिनों में एनडीटीवी की सियासत और डॉ रॉय के पाखंड पर मैं काफी कुछ लिख चुका हूं. सुनयना स्टोरी पर भी छोटी सी टिप्पणी कर चुका हूं. रवीश कुमार ने राहुल गांधी का जो ऐतिहासिक इंटरव्यू लिया है उस पर तो विस्तार से लिख चुका हूं. अभी लिखने को बहुत कुछ है. अमर सिंह टेप कांड में चैनल की संदेहास्पद भूमिका है. वोल्कर प्रकरण में कांग्रेस को बचाने के लिए नटवर सिंह को निपटाने का किस्सा है. बीएमडब्ल्यू कांड है. फ्री स्पीच के पैरोकार रवीश कुमार का पाखंड है. बहुत कुछ ऐसा है जो रोचक है और मुझे लगता है कि वह सब लोगों को जानने का हक है.

एनडीटीवी पर मेरी सीरीज के दौरान बहुत से लोगों ने मुझे फोन किया. फोन करने वालों में कुछ को छोड़ कर ज्यादातर ने मेरे किसी भी पोस्ट को लाइक नहीं किया है. दरअसल वो सभी डरते हैं. घबराते हैं. उन्हें लगता है कि जायज बात को भी लाइक करने से भविष्य की संभावनाएं खत्म हो सकती हैं. इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि मीडिया की स्थिति कितनी भयावह है और पत्रकार कितने असुरक्षित हैं. ऐसे में फ्री स्पीच की दलीलें कितनी खोखली हैं, आप यह भी महसूस कर सकते हैं. फोन करने वाले ज्यादातर साथियों ने मुझसे कहा कि तुमने बहुत साहसिक काम किया है. लेकिन यह भी पूछा कि यह सब लिखने से हासिल क्या होगा? और यह लिखना था तो तुमने दस साल पहले क्यों नहीं लिखा? सवाल जायज हैं. लेकिन मेरी लंबी चुप्पी के पीछे एक बड़ी वजह है. एनडीटीवी के मेरे कुछ साथी वह वजह जानते हैं. वो सभी अब एनडीटीवी छोड़ चुके हैं. मेरे उस सच का एक गवाह एनडीटीवी से बाहर भी है. वह गवाह हैं यशवंत सिंह.

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आज मैं आप सबसे वह सच साझा करता हूं. एनडीटीवी इंडिया में मैंने इस्तीफा 27 नवंबर, 2008 की सुबह 5:52 पर हैरतअंगेज हालात में दिया था (उस पर विस्तार से चर्चा पुस्तक में होगी). उसके कुछ दिन बाद मैंने एक ब्लॉग लिखा.

“… मैं व्यक्तिगत तौर पर मानता हूं कि एनडीटीवी का ख़बरों के बाज़ार में टिका रहना बेहद जरूरी है। लेकिन जब भी कोई मुझसे कहता है कि एनडीटीवी आइडियल है तो मैं इसका विरोध करता हूं। मैं मानता हूं कि एनडीटीवी की मौत का मतलब एक साफ-सुथरी टीवी पत्रकारिता की मौत होगी। यहां साफ-सुथरी टीवी पत्रकारिता का मतलब सिर्फ इतना है कि बिना किसी अश्लील वीडियो को दिखाए और बिना फूहड़ हुए भी चैनल चलाया जा सकता है। इससे अधिक मतलब निकलना ग़लत होगा। क्योंकि मैं निजी तौर पर ये भी मानता हूं कि एनडीटीवी स्कूल ऑफ जर्नलिज्म किसी भी दिन आज तक स्कूल ऑफ जर्नलिज्म से ज़्यादा घातक है। क्यों, इसे समझाने के लिए सिर्फ एक छोटा किस्सा सुनाना चाहूंगा। कुछ समय पहले एनडीटीवी ने मनमोहन सरकार के सबसे अच्छे और सबसे खराब मंत्रियों पर एडिटर्स सर्वे कराया था। देश भर के संपादकों की राय ली गई। एक सूची तैयार की गई। रात आठ बजे के बुलेटिन में उसे चलाया गया। लेकिन फिर खराब मंत्रियों की सूची गिरा दी गई। मगर अच्छे मंत्रियों की सूची चलती रही। वो खराब मंत्री कौन थे और एनडीटीवी ने वो सूची क्यों गिराई इस पर विस्तार से चर्चा किताब में होगी। लेकिन इससे आप एनडीटीवी के चरित्र का अंदाजा लगा सकते हैं। जो चैनल सिर्फ हल्के से दबाव में अपने ही सर्वे को तोड़-मरोड़ सकता है उस चैनल में स्टेट के विरुद्ध खड़े होने का कितना हौसला होगा?… ”
(9 दिसंबर, 2008)

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यह एनडीटीवी के उस दौर का सच था. उस दौर में केंद्र में उसकी अपनी सरकार थी. ब्लॉग लिखने के बाद मैं गांव चला गया. इस बीच यशवंत भाई ने मेरा लिखा अपनी वेबसाइट भड़ास4मीडिया डॉट कॉम पर छाप दिया. और उसका हेडर दिया कि “डॉ प्रणय रॉय दें जवाब…”. गांव पहुंचा तो एनडीटीवी से मेरे कुछ साथियों ने मुझे फोन किया. एनडीटीवी में हमें एक टीम के तौर पर देखा जाता था. माना जाता था कि वो सभी मेरे बहुत करीबी हैं. वो घबराए हुए थे. उन्हें एनडीटीवी के कुछ पुराने सीनियर डरा धमका रहे थे. धमकाने वाले “मम्मी पापा गैंग” के लोग थे. वो कहते थे कि समरेंद्र को तो बाहर कर दिया, अब तुम्हारी बारी है. उन्होंने मुझसे ऐसा कुछ नहीं करने की गुजारिश की जिससे उनकी नौकरी खतरे में पड़ जाए. मैं खुद ही सड़क पर आ गया था. मेरी स्थिति ऐसी नहीं थी कि मैं किसी को नौकरी दिला सकूं. इसलिए मैंने उन्हें यह भरोसा दिया कि भविष्य में कुछ नहीं लिखूंगा. यह मैं कर सकता था.

उसके बाद मैंने किसी से यशवंत भाई का नंबर लिया और उनको फोन किया. शायद उन्हें यह बात याद हो! मैंने उनसे कहा कि जब मैं डॉ रॉय से जवाब नहीं मांग रहा हूं तो फिर आप कौन होते हैं मेरे नाम पर जवाब मांगने वाले? मैंने उनसे पोस्ट हटाने की गुजारिश की. यशवंत बहुत जिद्दी इंसान हैं. जिद्दी नहीं होते तो इतना कुछ रच नहीं पाते. अनगिनत लोगों की आवाज नहीं बन पाते. उन्होंने पोस्ट हटाने से मना कर दिया. थोड़ा जिद्दी मैं भी हूं. मैंने उन्हें समझाया कि उनके इस फैसले से एनडीटीवी में मेरे साथियों की मुश्किलें बढ़ गई हैं. इसलिए हो सके तो पोस्ट को हटा दें. बातचीत खत्म होने के कुछ समय बाद उन्होंने मुझे फोन किया और पोस्ट हटाने की सूचना दी. ये उनकी उदारता थी. फिर वादे के मुताबिक मैंने लगभग दस साल तक एनडीटीवी पर कुछ नहीं लिखा. उस दौर में भी नहीं लिखा जब मैं जनतंत्र डॉट कॉम चलाया करता था.

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दरअसल, फ्री स्पीच की वकालत करने वाले मीडिया संस्थान और उनमें काम करने वाले बहुतेरे नामचीन पत्रकार अंदर से बेहद कमजोर होते हैं. वो अपने खिलाफ उठे स्वरों को दबाने के लिए हर हथकंडे अपनाते हैं. जनतंत्र डॉट कॉम चलाते वक्त, कई बार मैंने इसे बेहद करीब से महसूस किया था. ऐसा ही एक अनुभव सहारा से जुड़ा था. तब मैंने सहारा में छंटनी के खिलाफ एक सीरीज लिख दी थी. जिसके कारण सहारा ने मुझे पांच करोड़ रुपये की मानहानि का नोटिस भेजा. मैंने वो नोटिस भी जनतंत्र पर पोस्ट कर दिया.

उन दिनों सहारा में मेरे बेहद करीबी दो लोग काम कर रहे थे. दोनों बड़े भाई जैसे हैं. बेहद संजीदा और सहृदय इंसान हैं. मीडिया में इतने निश्छल लोग बहुत कम मिलते हैं. वो दोनों मेरे करीबी हैं, यह बात किसी ने सहारा मैनेजमेंट को बता दी. मैनेजमेंट ने उनमें से एक को अपने पास बुला लिया. यह बात मेरे दूसरे करीबी ने मुझे बताई और कहा कि वो मुश्किल में हैं. यह एनडीटीवी वाली घटना की पुनरावृति थी. मैं डर गया. उसके बाद जिन्हें मैनेजमेंट ने बुलाया था, मैंने उनको फोन किया. उन्होंने कहा कि समर तुम अपना काम कर रहे हो और मैं तुम पर किसी भी तरह का दबाव नहीं बनाना चाहता. मेरी तरफ से तुम स्वतंत्र हो. भविष्य में जो होगा वो देखा जाएगा. यह सुन कर मैं और घबरा गया. मुझे लगा कि बात काफी आगे बढ़ चुकी है. मैंने उनसे कहा कि दादा आप मैनेजमेंट को यह कह देना कि जनतंत्र पर भविष्य में सहारा के खिलाफ कुछ नहीं छपेगा. कम से कम जब तक आप दोनों वहां हो मैं कुछ नहीं लिखूंगा. नियति देखिए कि कुछ साल बाद जनतंत्र डॉट कॉम को ही मुझे बंद करना पड़ा.

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बहरहाल, एनडीटीवी के बारे में मैंने लंबे समय तक कुछ नहीं लिखा. जनतंत्र बंद होने के बाद तो किसी मसले पर कुछ नहीं लिखा. जब फिर से पढ़ना लिखना शुरू किया तो एनडीटीवी पर लिखने का मन हुआ. सोचा कि जब एनडीटीवी वाले धड़े की सरकार बनेगी तो अपना अनुभव दर्ज करूंगा. लेकिन यह इंतजार अब काफी लंबा हो गया है. पहले ही दस साल चुप रहा हूं. पांच साल और इंतजार करने का मन नहीं है. इसलिए लिख रहा हूं. वैसे भी सही समय के इंतजार में अक्सर समय ही गुजर जाता है. अगले कुछ महीने में परिस्थितियां ठीक रहीं तो एनडीटीवी पर अपने अनुभवों को किताब की शक्ल दे दूंगा. तब तक के लिए इस सीरीज को यहीं विराम देता हूं.

लेखक समरेंद्र सिंह एनडीटीवी में काम कर चुके हैं.

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इसके पहले के तीन पार्ट पढ़ने के लिए नीचे दिए शीर्षकों पर क्लिक करें-

…तभी दिबांग ने मुझे अपने कमरे में बुलाया और कहा- ‘स्पेशल गिराना है!’

छुटभैयों के आगे घुटने टेकने वाला चैनल सियासी खेल में कैसे बना ‘हथियार’?

जब रिपोर्टर प्रकाश सिंह को बाहुबली नेता अनंत सिंह ने बंधक बनाया तो NDTV ने दुम दबा लिया था!

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5 Comments

5 Comments

  1. madan kumar tiwary

    June 5, 2019 at 1:14 pm

    फ्री स्पीच को हम वकील सिर्फ जिंदा रखे हुए हैं,जिन्हें आपलोग गाली देते हैं

  2. ambrish

    June 5, 2019 at 1:25 pm

    Instead of singing melodies from the past (it is past, already gone), if you carry the GUTS express yourself /your vision /your observation on CURRENT regime & its policies, regards.

  3. Pradeep

    June 5, 2019 at 5:11 pm

    आपने सही कहा है आज मालिक पत्रकार को अपना खरीदा हुआ नौकर मानता है और जब चाहे रखता है जब चाहे नीकाल देता है इंडिया टीवी का तो बहुत बुरा ही हाल है अभी दो दिन पहले ही की बात है। अचार ने एक सेल्स के बंदे को बुलाया गया और उससे मोबाईल ले लिए और कहा गया कि आप पूनीत टंडन से मिलो और मोबाईल यहाँ रख दो वहां पर गार्ड बूलाकर उससे जबजस्स्ती इसतीफा लिखवाया गया। जबकि यह इंडिया में पिछले 18साल से काम करता था। मगर यहाँ पर अब कर्मचारी के साथ इस तरह से किया जाता है जैसे ये कोई देशद्रोह हो।यहाँ पूनीत टंडन की गूंडा गिरी दिनों बढती जा रही है और बढे भी क्यों नहीं सरकार जो उनकी आ गई है। इसलिए इंडिया टीवी स्टाफ हमेशा दहशत में रहता है पता नहीं कब पूनीत टंडन बुलाले और आफिस के गार्डों को बूलाकर इस्तीफा लिखवा ले ये हाल आज के मीडिया हाउस का।

  4. प्रद्युम्न तिवारी

    June 5, 2019 at 11:29 pm

    अच्छा कर रहे हो यशवंत

  5. Sanjeev kumar Singh chauhan

    June 6, 2019 at 9:46 pm

    Samrendra
    Badhaai se upar ke haqdaar ho. ND TV ki puri naukari me jo nahi kar paae woh aapne ab kiya. Tamaam media mathaadhishon ko kapde faadkar nangaa karne ke liye punash shubhashish. Badhaai aapki himmat ko.

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