साथियों, मजीठिया वेजबोर्ड के संघर्ष में हम एकजुट होकर विरोधस्वरूप काली पट्टी बांधकर जागरण प्रबंध तंत्र की मजबूत नींव को हिलाने में कामयाब जरूर हुए लेकिन वर्तमान की एकता से घबराए प्रबंध तंत्र अंदर ही अंदर किसी भयानक षड्यंत्र को रचने से बाज नहीं आएंगे। 1991 की बात है। 8-10-1991 की मध्यरात्रि में हड़ताल का बिगुल बजने पर तात्कालिक सुपरवाइजर प्रदुमन उपाध्याय ने एफ-21, सेक्टर-8 (मशीन विभाग) में ले जाकर यूनियन से अलग होने और यूनियन का बहिष्कार करने के एवज में नकदी की पेशकश की थी।
साथियों, लालच को मैंने दरकिनार कर दिया था। मेरे अंदर यूनियन का एक नशा था, जुनून था, जज्बा था, ईमानदारी थी। गद्दारी ना करने की सोच थी। कर्मचारियों के प्रतिनिधित्व करने के दौरान मैंने कभी अपने जमीर को शर्मसार नहीं होने दिया। 1991 में यूनियन के दबंग अध्यक्ष अनिल कुमार शर्मा की यादें ताजा हो आईं। उनके अंदर भी दैनिक जागरण के प्रति नफरत की चिंगारी ज्वलंत देखी थी। सोच अच्छी रहती किंतु निर्णायक मोड़ पर प्रश्नचिन्ह लग जाता। मैं यूनियन उपाध्यक्ष पद रहते हुए उनकी कुछ बातों से सहमत नहीं हो पाता था। अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के तालमेल ना होने का नतीजा ही यूनियन टूटने का सबब बना। चंदमिनटों में बाजी पलट गई। नतीजा- जागरण मैनेजमेंट को भीख में जीत हासिल हो गई। स्व. नरेंद्र मोहन द्वारा जीत की खुशी में कुछ देने की मंशा पर झट से मैंने सर्वहित में परमानेंट लेटर मांग लिया। एकाएक स्तब्ध होकर सोचने को विवश नरेंद्र मोहन वचनबद्ध स्वरूप को तात्कालिक प्रबंधक अरूण महेश्वरी को आदेश देना पड़ा। यहां मेरा निर्णय सर्वहित में था।
साथियों, मा. सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार 2011 में मजीठिया वेजबोर्ड की सुगबुगाहट होते ही 1991 में छोटे ओहदे से शुरूआत कर महाप्रबंधक का सफर तय करने वाले निशिकांत ठाकुर ने पहला शिकार फिर मुझे यानि रामजीवन गुप्ता (पीटीएस, आईएनएस) को यह सोचकर बनाया कि 1991 में यह बंदा कभी शेर था, अब तो गीदड़ बन गया होगा, शिकार आसानी से हो जाएगा। 2012 में सुस्त पड़े शेर को जगाने की भूल करने वाले जागरण को अपनी संपत्ति समझने वाले महाप्रबंधक के साथ संलिप्त समस्त अधिकारीगण अब संस्थान से विदा हो गए। बाद में आए अधिकारीगण भी उत्पीड़न की कला में माहिर एक से बढ़कर एक शातिर चालों में पारंगत चापलूस टीम मालिकों को भ्रम में रखकर अपनी गोटियां सेंक रहे हैं। मालिक भी धृतराष्ट बने बैठे हैं। महाभारत होने का इंतजार कर रहे हैं। महाभारत का परिणाम पता है- केवल पतन। वही अब दैनिक जागरण का होने वाला है, ऐसा प्रतीत होता है।
दोस्तों, युद्ध होने में कुछ दिन बाकी हैं। सहयोगी रूपी यूनियन के पदाधिकारियों का कुछ कहना है। मैं भी इनका शिकार मई-2012 से बना हुआ हूं। वाद-विवाद के चलते मैं (रामजीवन गुप्ता, पीटीएस, आईएनएस) जीविकोपार्जन हेतु मोहताज हूं। बिछुड़े कर्मचारियों के बारे में वर्तमान यूनियन ने कोई जिक्र नहीं किया। केवल वर्तमान की आधारशिला पर किला फतेह करना आसान नहीं होगा। मेरी जंग आज भी धारदार है, किंतु भूखे पेट क्या खाक लड़ा जाएगा। यूनियन के पदाधिकारियों से गुजारिश है- जब भी मैनेजमेंट और वर्कर की बात आती है तो हम भी पलकें बिछाए बैठे हैं सनम आपकी राहों में, जरा इधर भी निगाहें करें। हम भी तो आपके ही सिपाही हैं। भले ही सीट छिन गई, पर दम तो बाकी है। यह बातें सब आपबीती हैं।
रामजीवन गुप्ता
पीटीएस
आईएनएस