: 2009 से पहले के पीएचडी धारकों के साथ हो रहा अन्याय : सरकारी कालेजों में रिटायर्ड प्रोफेसरों की जगह पर पीएचडी बेरोजगारों को लें : यूजीसी के बेतुके फरमान से हजारों उच्चशिक्षित बेरोजगारों का भविष्य चौपट : नियम बनाया 2009 में और लागू कर दिया इससे पहले के वर्षों से :
देहरादून: उत्तराखंड के महाविधालयों में प्राध्यापकों के पदों पर भर्ती की आस लगाए बैठे उत्तराखंड के उच्च शिक्षित बेरोजगार मायूस हो गए हैं। 2009 से पहले के पीएचडी वालों की सुध नहीं ली जा रही है। विश्वविधालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी के रेगुलेशन-2009 नामक फरमान के बाद इन लोगों का भविष्य एक प्रकार से चौपट हो चुका है। इनमें से अनेक की उम्र काफी हो चुकी है। कर्इ राज्यों में 2009 से पहले की पीएचडी वालों को नेट-स्लेट से छूट प्रदान की जा चुकी है, लेकिन उत्तराखंड सरकार ने अभी तक इस पर विचार नहीं किया है। अब ये लोग आंदोलन के लिए हुंकार भरने लगे हैं।
उत्तर प्रदेश और हरियाणा जैसे कर्इ राज्यों में 2009 से पहले के पीएचडी धारक कालेजों और विश्वविधालयों में प्राध्यापकों की भर्ती के लिए योग्य हैं, लेकिन उत्तराखंड में नहीं। यहां के पीएचडी धारक भी वहां उक्त पदों पर भर्ती के लिए योग्य हैं। ऐसे में पीएचडी धारक अन्य राज्यों में नौकरी के लिए पलायन कर रहे हैं, जबकि उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमायूं में सरकारी महाविधालयों के साथ अशासकीय कालेजों और विश्वविधालयों में प्राध्यापकों के कर्इ पद रिक्त हैं। सरकार रिक्त 286 पदों पर उन प्रोफेसरों को रखने की इच्छुक है, जो रिटायर्ड हो चुके हैं। इनकी भर्ती के समय यहां हंगामा हो चुका है। ऐसे में पीएचडी वालों के साथ एक प्रकार का धोखा है।
बता दें कि यूजीसी ने 2009 में एक रेगुलेशन निकाला था, जिसमें कहा गया कि कालेजों-विश्वविधालयों में पढ़ाने के लिए अब राज्य पात्रता परीक्षा यानी स्लेट और राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा यानी नेट अनिवार्य है। 2009 से पहले जिसने पीएचडी कर ली, उसे भी ये दोनों परीक्षाएं पास करनी होंगी। अर्थात 2009 से पहले की पीएचडी की डिग्री अमान्य। इन पीएचडी वालों की समस्या को देखते हुए कर्इ राज्य सरकारों ने उनके हित में फैसला लेकर उन्हें स्लेट-नेट के समक्ष मान लिया, लेकिन उत्तराखंड सरकार ने इस गंभीर समस्या पर अभी तक गौर नहीं किया है। इससे अनेक पीएचडी धारकों का भविष्य चौपट हो चुका है और कर्इ अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं।
एचएचएनबी केंद्रीय विश्वविधालय श्रीनगर में कर्इ ऐसे पीएचडी धारकों को संविदा पर पढ़ाते-पढ़ाते कर्इ साल हो चुके हैं। अब वे भविष्य को लेकर चिंतित हैं। यहां करीब सौ संविदा शिक्षक हैं, जिनमें से 90 प्रतिशत 2009 से पहले के पीएचडी हैं। केंद्रीय विवि अगर यहां नर्इ नियुकितयां करता है तो यूजीसी के फरमान की मार इन लोगोें पर पड़नी तय है। इनमें से कर्इ लोग 45 से वर्ष से अधिक के हो चुके हैं।
फिर तो सभी कालेजों को खाली कराएं
यूजीसी का 2009 का रेगुलेशन बेतुका और हास्यास्पद है। इसके आधार पर देखें तो स्पष्ट होता है कि 2009 से पहले की पीएचडी कालेजों और विश्वविधालयों में पढ़ाने के लिए कोर्इ योग्यता नहीं रह गर्इ है। अब गौर करें कि किसी भी नियम पर अमल उस दिन से होता है, जिस दिन से वह लागू होता है, लेकिन यूजीसी का नियम इस मामले में उल्टा साबित हो रहा है। 2009 में रेगुलेशन निकला और वह लागू हो गया कर्इ साल पीछे तक। ठीक है अगर यूजीसी के रेगुलेशन 2009 को मानें तो इस आधार पर 2009 से पहले की सभी पीएचडी अमान्य हो गर्इ। तो फिर देश के समस्त कालेजों और विश्वविधायों में 2009 से पहले की पीएचडी वाले लेक्चरर-प्रोफेसर क्यों तैनात हैं। इस आधार पर तो वे भी आयोग्य हैं, उन्हें बर्खास्त किया जाना चाहिए था। अब इन बातों पर भी गौर करें. हास्यास्पद बात है कि जिस प्रोफेसर के अधीन किसी छात्र ने 2009 से पहले पीएचडी की, उसकी डिग्री तो अमान्य हो गर्इ, लेकिन उस प्रोफेसर की मान्य है, यह अजीब विरोधाभास नहीं? माना 2005 में दो छात्रों को एक साथ पीएचडी डिग्री अवार्ड हुर्इ, इनमें से एक को तो 2006 में लेक्चरर-असिस्टेंट प्रोफेसर की नौकरी मिल गर्इ, दूसरा जो आज तक बेरोजगार है, उसकी डिग्री अब मान्य नहीं होगी। यानी एक ही साल की एक ही विश्वविधालय की एक ही प्रकार की डिगि्रयों को यूजीसी ने दो भागों में बांट दिया है। 2009 से पहले गढ़वाल या कुमायूं विश्वविधालय से जिस भी शोधार्थी ने पीएचडी की, उसकी पीएचडी यूजीसी के नियम के ही तहत हुर्इ है। इन विश्वविधालयों ने अपने कोर्इ नियम नहीं बनाए थे, लेकिन 2009 में यूजीसी ने अपने ही नियमों से पल्ला झाड़कर ऐलान कर दिया कि अब दूसरे नियमों के तहत होने वाली पीएचडी ही मान्य होगी।
यह तो सरासर अन्याय है: प्रो मृदुला
एचएनबी केंद्रीय विश्वविधालय श्रीनगर की हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. मृदुला जुगरान का मानना है कि यूजीसी का यह फरमान और सरकारों की संवेदनहीनता पीएचडी वालों के साथ घोर अन्याय है। उनके अनुसार यह तो अपनी मनमानी थोपने वाली बात है। उनके अनुसार यूजीसी 2009 में कोर्इ नियम लागू करता है करे, लेकिन वह नियम 2009 से पहले की व्यवस्था पर क्यों लागू हो? यह तो अपने में बड़ी हास्यास्पद बात है। यूपीजी की पुरानी व्यवस्था की पीएचडी को वही नर्इ व्यवस्था के बाद अमान्य कर दे, यह कहां का न्याय है। इसमें पुराने पीएचडी वालों का क्या दोष? पीएचडी करना कोर्इ हंसी खेल नहीं, इसमें छात्र का दो से पांच साल तक का समय लगता है, उसका बहुमूल्य श्रम और पैसा इसमें व्यवय होता है और इसके बाद उसे कह दिया जाए कि तुम्हारी डिग्री का कोर्इ मूल्य नहीं है तो यह मानवता के प्रति अपराध कहा जाएगा। उस छात्र की क्या गलती है कि उसने पुरानी व्यवस्था में पीएचडी कर डाली। उसे तब नए नियम पता होते तो क्यों वह इनके अंतर्गत पीएचडी नहीं करता? आखिर कोर्इ नहीं चाहता कि उसका समय,श्रम और धन बेकार जाए। यूजीसी और सरकार को इस पर गंभीरता से मंथन कर पुराने पीएचडी वालों के पक्ष में निर्णय लेना होगा।
प्रो. मृदुला कहती हैं कि आज भले ही यूजीसी कालेजों-विश्वविधालयों में पढ़ाने वालों की योग्यता स्लेट-नेट निर्धारित कर दे तो हकीकत यह है कि स्लेट-नेट वालों में विषय के प्रति वह गंभीरता और समझ नहीं होती, जो पीएचडी वालों को होती है। यह मेरा अनुभव है।
पीएचडी संघ बना रहा रणनीति
उत्तराखंड पीएचडी उपाधिधारक संघ के संयोजक डा. अनिल शर्मा के अनुसार सरकार और विभाग को हमारी मांग तुरंत कार्रवार्इ करनी चाहिए। उनके अनुसार जब हरियाणा, मध्यप्रदेश समेत कर्इ राज्य अपने यहां 2009 से पहले की पीएचडी को नेट-स्लेट के समकक्ष मान चुकी हैं तो उत्तराखंड क्यों सोया पड़ा है। डा. जोशी के अनुसार यहां के कर्इ पीएचडी धारकों के पांच साल यूजीसी और राज्य सरकार के कारण बरबाद हो गए, इसलिए उन्हें आयु सीमा में अब पांच साल की छूट भी दी जानी चाहिए। डा. सुनील पंत के अनुसार आंदोलन से पहले सरकार से बातचीत की जाएगी। उनके अनुसार हमें अपने हक की लड़ार्इ लड़नी होगी। यह बेरोजगारों के साथ सरासर अन्याय है। पुरानी पीएचडी के मसले पर सरकार को ध्यान होगा। सरकारी कालेजों में रिटायर्ड प्रोफेसरों की भर्ती हमारे हितों पर कुठाराघात है।
उत्तराखंड पीएचडी उपाधिधारक संघ के मीडिया प्रभारी डा. वीरेंद्र बत्र्वाल के अनुसार अगर मांग पर विभाग ने गौर न किया तो आंदोलन आरंभ किया जाएगा। डा. नूतन के अनुसार अनुसार सरकार को कालेजों में रिक्त पदों पर पुराने पीएचडी वालों की भर्ती करनी चाहिए। पुरानी पीएचडी वाले कर्इ बेरोजगार 42 से अधिक की उम्र के हो चुके हैं। यानी उनकी सरकारी कालेजों में पढ़ाने की उम्र समाप्त हो चुकी है, इसलिए सरकार को चाहिए कि उन्हें मौका दे।
आखिर कौन दोषी है?
उत्तराखंड में पांच साल से पीएचडी धारक एक अजीब सी यंत्रणा भोग रहे हैं। वे ऐसा दंड भुगत रहे हैं, जिसका अपराधी कोर्इ और है। वे खुद को घर न घाट का महसूस कर रहे हैं। आर्थिक परेशानियों और सामाजिक असुरक्षा के दोहरे थपेड़ों को झेलते हुए वे अपने भविष्य से अधिक अपने परिवार और नौनिहालों के लिए चिंतित हैं। वे अब उम्र के ऐसे पड़ाव पर हैं कि कुछ और काम न तो सीख सकते हैं और न कर सकते हैं। पीएचडी धारकों की इस दशा के लिए यूं तो विश्वविदयालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी जिम्मेदार है, लेकिन राज्य सरकार को भी इस अपराध से बरी नहीं किया जा सकता है। दोनों ने मिलकर इन निरीह लोगों का बहुमूल्य समय नष्ट कर दिया है। यूजीसी रेगुलेशन- 2009 में व्यवस्था की गर्इ कि 2009 से पहले के पीएचडी धारकों को कालेजों और विश्वविधालयों में पढ़ाने के लिए स्लेट-नेट करना जरूरी होगा। इस रेगुलेशन को तुगलकी फरमान और मनमानी की संज्ञा दी जाए तो अतिरंजना नहीं होगी। वह इस संदर्भ में कि कानून लागू होने की तिथि से पहले के कर्इ सालों तक की सिथति पर कोर्इ कानून लागू हो, ऐसा कोर्इ सर्वमान्य सिद्धांत नहीं है।
यूजीसी से प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि जिन गढ़वाल और कुमायूं विश्वविधालयों से 2009 से पहले पीएचडी की गर्इं, क्या वे तब यूजीसी के अंतर्गत नहीं थे? क्या ये पीएचडी यूजीसी के अधिनियमों-नियमों के तहत नहीं हुर्इं? और अगर हुर्इं तो उन पीएचडी धारकों को देश के विभिन्न विश्वविधालयों-महाविधालयों में प्राध्यापकों की नौकरियां क्यों दी गर्इं। यह भी सवाल किया जाना चाहिए कि 2009 से पहले की पीएचडी वाला असिस्टेंट प्रोफेसर जब प्रोफेसर की नियुकित के साक्षात्कार के लिए योग्य है तो उसी पीएचडी वाला असिस्टेंट प्रोफेसर की योग्यता से बाहर क्यों हो गया? यूजीसी की सोच पर हंसी आती है कि एक ही प्रकार की पीएचडी के दो छात्रों में एक को 2009 से पहले नौकरी मिल गर्इ तो उसकी पीएचडी मान्य और जो अभी तक बेरोजगार है, उसकी पीएचडी अमान्य?
अब सरकार की भूमिका पर विचार करें तो हम पाते हैं कि उत्तराखंड की राज्य सरकारों ने 2009 से उच्च शिक्षा से जुड़े इतने गंभीर और महत्वपूर्ण मसले पर आज तक बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया। यह बहुत बड़ी लापरवाही भी कही जा सकती है, संवेदनहीनता भी और गलती भी। जब हरियाणा, मध्य प्रदेश जैसे कर्इ राज्य यूजीसी के इस रेगुलेशन को न मानते हुए अपने यहां 2009 से पहले की पीएचडी को नेट-स्लेट के समकक्ष मान चुके हैं तो उत्तराखंड गहरी निद्रा में क्यो सोयी रही? यह बात यह प्रतिबिंबित करने के लिए पर्याप्त है कि सरकारों को न तो उच्च शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण मसले की परवाह रही और न ही उन्होंने कभी उच्च शिक्षित बेरोजगारों की दशा पर ध्यान देने की जहमत उठार्इ।
ऐसा नहीं कि आज तक किसी सरकार के समक्ष यह मसला गया नहीं हो। अनेक सरकारों के मुख्यमंत्रियों-उच्च शिक्षा मंत्रियों के समक्षयह मामला गया होगा, लेकिन सरकारी कुपरंपरा के तहत उसे रददी की टोकरी या फिर फाइलों के अंबार के नीचे दबा दिया गया होगा। यह कुपरंपरा यूं तो संपूर्ण राज्य और प्रजा के लिए घातक है, लेकिन पीएचडी धारकों का इसने कुछ अधिक ही नुकसान किया है। यूजीसी के अविवेकपूर्ण और मनमाने फैसले और सरकारों की संवदेनहीनता ने इन निर्दोषों के पांच साल का समय चौपट कर दिया है।
यदि सरकार में इन बेरोजगारों के प्रति जरा भी दया की भावना होती तो उनका मसला सुलझा कर उन्हें राज्य के महाविधालयों में प्राध्यापकों की नौकरी दी जाती। इन पदों को भरने के लिए रिटायर्ड प्रोफेसरों को आयात नहीं करना पड़ता। सरकार के इस फैसले से उसे आर्थिक तौर पर तो नुकसान होगा ही, कर्इ उच्च शिक्षित बेरोजगारों का निवाला भी छिन गया है। संवेदनहीन सरकार के इस अन्यायपूर्ण निर्णय के बीच अगर इन रिटायर्ड प्रोफेसरों को भी जरा शर्म होती, आने वाली पीढ़ी के प्रति उनके मन में दया होती तो वे भी आराम करने वाले जिंदगी के इस आखिरी पड़ाव में इन पदों के लिए आवेदन नहीं करते।
कुल मिलाकर राज्य की उच्च शिक्षा में इस समय ये हालात उत्पन्न हो चुके हैं कि किसी के पास रोटी के लिए आटा नहीं और कोर्इ काजू-बादाम खाने के लिए सोने के दांत लगवा रहा है। राज्य में आर्थिक विषमता की इस सिथति को उत्पन्न करने के लिए केवल और केवल राज्य सरकार ही दोषी है। अगर राज्य में उच्च शिक्षिति बेरोजगार खाली पेट सोने को मजबूर हैं तो उसके लिए राज्य सरकार का ही दोष माना जाएगा। अगर आज उनका भविष्य चौपट हो रहा है तो इस अपराध का काल दाग यूजीसी के साथ ही राज्य सरकार पर भी लगेगा। बेरोजगारों की पीड़ा से उत्पन्न पाप का भागीदार सरकार को ही बनना पड़ेगा।
राज्य की उच्च शिक्षा मंत्री इंदिरा हृदयेश के स्वयं पीएचडी धारक होने के बावजूद इंदिरा हृदयेश द्वारा पीएचडी धारकों की पीड़ा को न समझ पाना किसी हैरत से कम नहीं है। सीएम के आदेश पर इस मसले की फाइल बनी थी, लेकिन बताते हैं कि इंदिरा हृदयेश के पास फाइल जाने के बाद उन्होंने इस संबंध में कुलपतियों की बैठक बुलाने को कहा है। यह मामले को उलझाने वाला का कदम माना जा रहा है।
देहरादून से डॉ.वीरेंद्र बर्तवाल की रिपोर्ट. संपर्क: veerendra.bartwal8@gmail.com