चौथी दुनिया साप्ताहिक अखबार में कर्मचारियों को डर के साये में काम करना पड़ रहा है। उन्हें पता नहीं है कि कौन-सा दिन उनका आखिरी दिन हो जाए। अखबार के संपादक संतोष भारतीय की जुबान पर हमेशा दो वाक्य रहते हैं, पहला- ”डफर कहीं का”। दूसरा- ”अगर ऐसा नहीं करोगे तो बाहर का रास्ता खुला है”। वहां काम करने के लिए काम आने से अधिक जरूरत संतोष भारतीय को खुश करना हो गया है।
हाल ही में एक फोटोग्राफर को नौकरी पर रखा गया। आश्चर्य की बात तो यह है कि अखबार के इस फोटोग्राफर को मात्र 15 दिनों के भीतर बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। उस फोटोग्राफर ने जो जानकारी दी वह चौंका देने वाला है। फोटोग्राफर का काम अखबार के लिए फोटो लाना होता है लेकिन यहां उसका काम अजीब था। उसे संतोष भारतीय का विभिन्न पोज में फोटो खींचना होता था। संतोष भारतीय जैसे हीं आफिस में आएं, उनका दो तीन फोटो खींचना जरूरी है। दरवाजा से अंदर आते हुए एक फोटो चाहिए और उसके बाद तो दिन में तीन से चार बार संपादक संतोष भारतीय का फोटो लेने का निर्देश उस फोटोग्राफर को दिया गया था। उसे हर दिन अखबार के लिए फोटो खींचने जाने के बजाय संतोष भारतीय का फोटो खींचना पड़ता था। हालांकि, इसके बावजूद नौकरी बरकार रखने की उसकी मजबूरी ने उसे काम करने को विवश किया और वह संतोष भारतीय का प्रत्येक एंगिल से फोटो खींचता रहा लेकिन संतोष जी को क्या चाहिए था, इसका अनुमान तो लगाना लगभग असंभव है। उस फोटोग्राफर को महज 15 दिनों के अंदर ही बाहर का रास्ता दिखा दिया गया।
फोटोग्राफर ने बताया कि उसे यहां पर मुंबई से फौजी आरशी के निर्देश पर भेजा गया था। उसे हर रोज संपादक संतोष भारतीय का हर पोज में फोटो खींचकर मुंबई आफिस में भेजना होता था। वह हर रोज कैमरा लेकर संतोष भारतीय के ऑफिस आने का इंतजार करता और पूरा दिन उनके इर्द गिर्द घूमता रहता ताकि कुछ अच्छे फोटो उसे मिल जाए। उनके केबिन में बैठने से लेकर खाना खाने तक का फोटो खींचकर उसने भेजा। यहां तक कि कार में बैठते हुए कई फोटो उसे लेना होता था क्योंकि पता नहीं उसमें कौन सा फोटो संतोष भारतीय और फौजिया आरशी को पसंद आ जाए ताकि उसकी नौकरी बची रहे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। उसे बिना कारण बताए हटा दिया गया और पैसा भी नहीं दिया गया।
संतोष जी की इस तनाशाही का विरोध भी कौन करे। जिन लोगों ने थोड़ा बहुत विरोध किया उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया। संतोष जी को केवल हां में हां मिलाने वाला आदमी चाहिए चाहे वह काम कैसा भी करता हो। अभी इस संस्थान को संभालने वाले प्रभात रंजन दीन लखनऊ में रहते हैं और महीने में एक दो दिन के लिए दिल्ली आते हैं। उनके लिए होटल में कमरा बुक कराया जाता है लेकिन कर्मचारियों का तो वेतन भी जिस महीने मिल जाए उन्हें वही आखिरी महसूस होता है। प्रभात रंजन दीन जब लखनऊ में होते हैं, तो उनके पास हर पेज का पीडीएफ भेजा जाता है, जिसके बाद वे उसे देखते हैं। कई बार वह उसमें सुधार करने के नाम लटकाए रखते हैं। छोटी-छोटी बातों पर वे संतोष भारतीय की तरह ही अपने सहयोगियों से बदतमीजी करते हैं। संतोष भारतीय जितनी बात समाज में कायम शोषण को लेकर करते हैं, उसके हिसाब से दस प्रतिशत भी मानवीय संवेदना वे अपने अंदर ले आएं तो चौथी दुनिया और वहां काम करने वाले लोगों का भला हो जाए।
चौथी दुनिया अखबार से एक मीडियाकर्मी द्वारा भेजे गए पत्र पर आधारित.
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