‘जानेमन जेल’ पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे यशवंत जी सामने बैठ कर अपनी कहानी सुना रहे हों…

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Prabudha Saurabh : यशवंत जी की किताब ‘जानेमन जेल’ पढ़ना बिलकुल नया अनुभव रहा। ‘जेल’ और ‘जानेमन’ शब्द का एक साथ होना ही इस किताब के प्रति आकर्षण पैदा करने के लिए काफ़ी था, दूसरा आकर्षण यशवंत। यह किताब मोटे तौर पर (हालांकि है बड़ी पतली सी) यशवंत जी की दो-तीन महीने की आपबीती (या यों कहें कि जेलबीती) है। निजी रूप में जितना मैं यशवंत जी को जानता हूँ, यह समझना तो मुश्किल है, कि वो क्रांतिकारी ज़्यादा हैं या पत्रकार लेकिन इतना ज़रूर है कि वो एक अनूठा फॉर्मूला हैं।

जिस मज़ेदार तरीके से वो आमने सामने बात करते हैं, ठीक उसी तरह से इस किताब में भी शब्द रखते चले गए हैं। किताब पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे यशवंत जी ही सामने बैठ कर अपनी कहानी सुना रहे हों। डासना जेल को बधाई, कि उस प्रांगण के ऊपर एक अच्छी किताब लिखी गई। उम्मीद है कि जेल के योगा-कम-लाइब्रेरी रूम में यह किताब भी ‘कुफ्र’ के साथ लगी होगी और क़ैदी-बंदी ‘Bhadas4media जी’ की किताब को उसी चाव से पढ़ते होंगे, जिस चाव से उन दूसरी किताबों को ‘पढ़ते’ थे। बहरहाल, यशवंत जी की सलाह के अनुसार मेरा अगला मिशन होगा ‘कुफ्र’!

प्रबुद्ध सौरभ के फेसबुक वॉल से.

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