Shambhunath Shukla : हिंदुस्तान के सारे दर्शन आपको सदा वैराग्य सिखाते हैं, जबकि पश्चिम के दर्शन निरंतर प्रगति करना। वहाँ सत्तर साल का आदमी भी युवा समझा जाता है, पर यहाँ कहते हैं- “तीस भये, तो खीस भये!” यानी तीस के बाद आप बधिया बन जाते हैं। भारत के दर्शनों की इस निवृत्तिमार्ग से यह देश विकास नहीं कर सका।
मशहूर साहित्यकार प्रभा खेतान ने एक बार मुझे कलकत्ता क्लब में डिनर पर बुलाया। मैं बीके पाल एवेन्यू के अपने ऑफ़िस से उठा और खुद गाड़ी ड्राइव कर पहुँच गया। गाड़ी पार्क करने के बाद जब मैं क्लब के भीतर जाने लगा, तो गार्ड ने मुझे रोक दिया। बोला- आप कुर्ता-पायजमा पहने हो, नहीं जा सकते। वहाँ पर फ़ॉर्मल ड्रेस थी, पैंट, शर्ट और टाई तथा फ़ीते वाले जूते। अथवा धोती-कुर्ता व चप्पल।
अब बड़ी मुसीबत। मैंने प्रभा जी के दत्तक पुत्र संदीप भूतोड़िया को बुलवाया। उस दिन वे भी सूटेड-बूटेड थे। जबकि संदीप सदैव कुर्ता-पाजामा और हवाई चप्पल ही पहनते हैं। खैर मेरे लिए धोती मँगवाई गई। किंतु फिर अड़चन आ गई। मैंने चप्पल नहीं स्पोर्ट्स शू पहन रखे थे। चप्पल आ गई तो पता चला, कि मेरा कुर्ता कॉलर वाला है। लेकिन ज़िद पर हम भी अड़ गए और बर्तानिया साम्राज्य की अभिजात्यता के प्रतीक उस क्लब में गया।
प्रभा जी ने कहा, कि फ़ॉर्मल ड्रेस हमें फ़ॉर्मल रखती है। इसलिए यूरोप में इसका रिवाज है। वे बताने लगीं, कि साठ के दशक में वे एक एक्सचेंज प्रोग्राम के चलते अमेरिका गईं। वहाँ उन्हें जिस महिला का घर शेयर करने को कहा गया, वह 70 साल की थीं, लेकिन 50 किमी दूर अपनी कार से ऑफ़िस आती जातीं। वे विधवा थीं। बेटी दूर-देश में थी। पर वे कोई अफ़सोस नहीं करती थीं। अपनी ज़िंदगी की स्वयं विधाता थीं। वे खुद खाना पकातीं और खुद ही साफ़ सफ़ाई करतीं। एक दिन प्रभा ने एक टमाटर का टुकड़ा प्लेट में झूठा छोड़ दिया और प्लेट सिंक में रख आईं।
उन महिला ने देख लिया। बोलीं, प्रभा यह टुकड़ा अभी खाओ या फ्रिज में रख दो, कल खाना। यह अमेरिका है, यहाँ प्लेट में उतना ही लो जितना खा सको। पर अपने देश में ओवरप्लेट खाएँगे। ड़ुगुर-ड़ुगुर कर जिएँगे। घर वाले बुढ़ऊ को ही ज्ञानी मानेंगे। और बुढ़ऊ पीपल के पेड़ को या घटाटोपा नंद को। इसलिए सदैव प्रवृत्तिमार्गी बनो। नए प्रयोग करो। याद रखो, यही जीवन आपका है। इसलिए अगले जन्म की प्रतीक्षा न करो। जो कुछ अच्छा है, उसे बाँटो!
वरिष्ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्ला की एफबी वॉल से.