उन्नीस सौ अस्सी के आसपास की बात है । मैं नई दुनिया, इंदौर में सह संपादक था। एक दिन एक नौजवान मिलने आया। वह झाबुआ के भीलों, भिलालों तथा अन्य आदिवासियों के कुछ मसलों पर बहुत ग़ुस्से में था। संपादक के नाम पत्र तो वह आली राजपुर से पहले ही लिखा करता था। मैं ग्रामीण मुद्दों के लिए बेहद लोकप्रिय स्तंभ परिवेश का भी प्रभारी था। मैंने उसके आक्रोश में एक ईमानदारी देखी। उससे कहा कि परिवेश के लिए लिखना शुरू कर दो। जहाँ तक मुझे याद है, उसकी पहली रिपोर्ट ही धमाकेदार थी। वह आदिवासियों को ज़िंदा ज़मीन में गाड़ देने के बारे में थी। वे कुष्ठ रोगी थे। उन्हें जीवित दफ़न कर दिया गया था।
पुष्पेंद्र की इस रिपोर्ट ने धमाका कर दिया। सरकार के गृह विभाग को जाँच का आदेश देना पड़ा। इसके बाद पुष्पेंद्र मेरे पसंदीदा पत्रकारों में से एक था। उसके आलेख आते रहे। मैं छापता रहा। उन दिनों आलीराजपुर से पुष्पेंद्र सोलंकी, महू से योगेश यादव और दिनेश सोलंकी, कुक्षी से रमन रावल और चंदा बारगल, थांदला से सुरेंद्र कांकरिया पसंद किए जाने वाले नाम थे। चंदा तो नई दुनिया में ही थे। झाबुआ के फोटू वाले बाबा पारीक के अनेक फोटो हमने पुष्पेंद्र के आलेख के साथ प्रकाशित किए।
नई दुनिया से मैं 1985 में नवभारत टाइम्स में मुख्य उप संपादक के पद पर काम करने जयपुर चला गया। पुष्पेंद्र के कभी फ़ोन आते तो कभी ख़त। अधिकतर आदिवासी मुद्दों पर चिंता होती। एक बार दिल्ली में राजेंद्र माथुर जी को मैने पुष्पेंद्र की चिंताओं के बारे में बताया। उन्होंने कहा, पुष्पेंद्र से कहिए कि नवभारत टाइम्स में लिखे। इस तरह पुष्पेंद्र का नवभारत टाइम्स से रिश्ता बन गया। जब 1991 में मेरा भोपाल लौटना हुआ तो पुष्पेंद्र से फिर मुलाक़ातें होने लगीं। वह एक परिपक्व सरोकारों के लिए संवेदनशील पत्रकार बन चुका था।
इसके बाद 1992 में भारत की टेलिविजन पत्रकारिता की पहली पत्रिका परख शुरु हुई तो एक बार फिर पुष्पेंद्र अपनी चिंता लेकर मेरे सामने था। उसने बताया कि झाबुआ जिले में कुछ समय से आदिवासी महिलाओं को डायन बता कर मारा जा रहा है। उनकी मौतों को पुलिस हत्या नहीं मान रही है। मैंने इस रिपोर्ट को परख पर दिखाने का फ़ैसला किया।
उन दिनों झाबुआ के आदिवासी इलाक़ों में बिना अनुमति के फोटोग्राफी पर पाबंदी थी। हम इस ख़बर की इजाज़त लेते तो ख़बर ही नहीं दिखा पाते। इसलिए हम लोगों ने पुलिस से बचते हुए शूटिंग करने का फ़ैसला किया। अपनी एम्बेसडर कार से छह लोगों की टीम की शक़्ल में चुपचाप गए। दो दिन में दो केस हिस्ट्री मिल गईं। तीसरे दिन कहीं से पुलिस को भनक लग गई। अब दो दिन हम लोग पुलिस से बचते फिरे। दो दिन कुल्थी खाकर और ताड़ी पीकर काटे। पुलिस हमारे पीछे। कभी हम उनके दाएं बाएं। अंदरूनी रास्तों पर।
आख़िरकार ख़बर पूरी हुई। पुष्पेंद्र के संपर्कों ने इस रिपोर्ट को प्रामाणिक बनाने में बहुत मदद की। इससे वह बहुत खुश था। विशेष रिपोर्ट दिखाई तो पीएमओ से पूछताछ हुई। गृह मंत्रालय हरक़त में आया और राज्य सरकार की बड़ी किरकिरी हुई।
भोपाल प्रवास में 2005 तक उससे नियमित भेंट होती रही।मित्र सुधीर सक्सेना ने माया में पुष्पेंद्र की अनेक समाचार कथाएँ प्रकाशित कीं। सांध्यप्रकाश में उसके संपादन ने चार चांद लगा दिए थे। इसी बीच नियति के निर्देश पर मैं एक बार फिर दिल्ली में था। बीते चौदह साल में अक्सर रात को उसके भावुक फ़ोन आते। देर तक बात होती। बात करने के बाद मन दुखी हो जाता। क़रीब बीस दिन पहले उसका फ़ोन आया। बहकी बहकी बातें करता रहा। मुझे अंदाज़ा हो गया था कि अब शराब उसे पीने लगी है। मन खिन्न था। इस व्यवस्था में सरोकारों के प्रति समर्पित एक संवेदनशील पत्रकार जी न सका। उसके ज़ाती दुःख जानता था, लेकिन कभी भी उसने उनका रोना नहीं रोया। पुरानी पीढ़ी के लिए शिष्टाचार और आदर भी उसने कभी नहीं छोड़ा। हम उसका ख़्याल नहीं रख पाए। कलेजे में यह फाँस चुभती रहेगी। विनम्र माफ़ी पुष्पेंद्र। हम तुम्हें नहीं भूल सकेंगे। मेरी श्रद्धांजलि।
लेखक राजेश बादल प्रिंट और टीवी के जाने माने पत्रकार हैं.