Rakesh Srivastava : रवीश को धमकाने का काम प्रायोजित है ऐसा मुझे नहीं लगता। बैंको के बाहर की हर लाईन में बहुत लोग प्रधानमंत्री के इस कदम की सराहना करने वाले भी मिलते हैं, इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। लेकिन, यह भी अपने आप में बहुत बड़ा सवाल है कि मोदी जी के समर्थक टाईप अधिकांश लोग बुली करने टाईप ही क्यों होते हैं। दो चार बुली करने वाले दसियों साधारण लोग की आवाज़ को दबा देते हैं। ऐसा सब जगह हो रहा है। इस प्रवृति को एक्सपोज कर रवीश ने अच्छा किया।
Nitin Thakur : एक अपील है। पत्रकारों को उनके हाल पर छोड़ दीजिए। रवीश कुमार बुलंदशहर जाते हैं तो उनकी गाड़ी के पीछे लगातार एक गाड़ी घूमती है। जहां रिपोर्टिंग के लिए रुकते हैं वहां अचानक से बाइक सवार फोन करके ना जाने किसे-किसे बुलाने लगते हैं…. क्या ये सब पिछली सरकार के शासन में भी हो रहा था? आपको याद हो ना हो लेकिन मैंने तो उस वक्त भी रवीश समेत ना जाने कितने पत्रकारों को सरकार की आलोचना करते हुए ग्राउंड रिपोर्ट भेजते देखा था पर यूं पत्रकारों का पीछा होते देखा-सुना नहीं कभी। सरकारों में बैठी पार्टियां हर काम कानून बनाकर ही नहीं करती बल्कि कुछ काम बिना कानून बनाए भी अंजाम दिए जाते हैं। अगर रवीश जैसे पत्रकार का ये हाल है जिसकी टीवी पर अपनी धमक है तो बाकी रिपोर्टर्स और स्थानीय पत्रकारों का तो क्या ही हाल होता होगा?
इस वक्त आवाम के बड़े तबके को यही समझ नहीं आ रहा कि पत्रकार के हाथ में कोई बंदूक नहीं होती। वो जो दिखा, सुना या बोल रहा है उसे बहस करके या लिखकर आसानी से काउंटर किया ही जा सकता है। ऐसे पत्रकारों की जान पर खतरा बनकर मंडराएंगे तो कोई ये नौकरी नहीं करनेवाला। उतनी ऊंची तन्ख्वाहें, पेंशन और मरने पर सरकारी मुआवज़े नहीं मिलते कि हर कोई जान दे दे। आप अपने हाथों से मीडिया को खत्म कर रहे हैं। वो लाख बुरी हो लेकिन उसे ज़िंदा रखना लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है। जैसे राजनीति कितनी ही बुरी हो मगर वो व्यवस्था की आवश्यक बुराई है। सरकार में बैठी पार्टियों को वो चाहे जो भी हों, उन्हें भी अपने भक्तों, प्यादों, मुरीदों वगैरह वगैरह को समझाना चाहिए कि हिंसा बुरी होती है, कम से कम उसके साथ तो बहुत ही बुरी जो अपने हाथ में डंडा तक ना रखकर अनजान जगहों पर जा घुसता है ताकि अपनी नौकरी कर सके और आपका ज्ञानवर्धन अथवा मनोरंजन। (आज के संदर्भों में) शुक्रिया।
Ajay Anand : मेरे पिताजी कहते थे अगर आपको डालडा खाने की आदत लग गई तो शुद्ध देशी घी नहीं पचेगी । यही आज के दौर में पत्रकारिता के साथ लागू होती है; क्योंकि पत्रकारिता के नाम पर हमें चाटुकारिता देखने/पढ़ने की आदत लग गयी गयी है इसलिए रवीश का रिपोर्ट हजम नहीं हो रहा है। लगतार तीनों दिन रवीश को धमकाया जाना अच्छे संकेत नहीं है… कल के प्राइम टाइम का वीडियो देखने के लिए नीचे क्लिक करें :
प्राइम टाइम : एक तो बैंक कम, ऊपर से इंतज़ाम अधूरे
सौजन्य : फेसबुक